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गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 45




अनिता जी कहती हैं, "यह अनंत सृष्टि एक रहस्य का आवरण ओढ़े हुए है, काव्य में यह शक्ति है कि उस रहस्य को उजागर करे या उसे और भी घना कर दे! लिखना मेरे लिये सत्य के निकट आने का प्रयास है."
और बुलेटिन ने उस सत्य को समीप करने की कोशिश की है 



बिन गुरू ज्ञान न होए

सद्गुरु कहते हैं जीवन गुरूतत्व से सदा ही घिरा है. गुरु ज्ञान का ही दूसरा नाम है. अपने जीवन पर प्रकाश डालकर हमें ज्ञान का सम्मान करना है, अर्थात सही-गलत का भेद जानकर जीवन में आने वाले दुखों से सीखकर ज्ञान को धारण करना है, ताकि पुनः वे दुःख न झेलने पड़ें. मन ही माया को रचता है और अपने बनाये हुए लेंस से दुनिया को देखता है. साधक वह है जो कोई आग्रह नहीं रखता न ही प्रदर्शन करता है. देने वाला दिए जा रहा है, झोली भरती ही जाती है. हमें वाणी का वरदान भी मिला है और मेधा भी बांटी है उसने. यदि उसे सेवा में लगायें जीवन तब सार्थक होता जाता है. भक्ति और कृतज्ञता के भाव पुष्प जब भीतर खिलते हैं, मन चन्द्रमा सा खिल जाता है, गुरु पूर्णिमा तब मनती है. 


जगे चेतना भीतर ऐसी

जीवन में कई बार ऐसा होता है जब हम दोराहे पर खड़े होते हैं. एक रास्ता जाना-पहचाना होता है, जिस पर चल कर हम कहीं भी तो नहीं पहुंचते  पर रास्ते का न तो कोई भय होता है न ही कोई दुविधा, दूसरा मार्ग अपरिचित होता है, वह कहाँ ले जायेगा ज्ञात नहीं होता उस पर चलने के लिए विरोध सहने का साहस भी चाहिए और मार्ग की कठिनाइयों का सामना करने की हिम्मत भी. अक्सर हम पहला  मार्ग ही चुन लेते हैं क्योंकि इसमें कोई जोखिम नहीं है और नतीजा यह होता है हम वहीं रह जाते हैं जहाँ थे. जीवन हमें कई बार अवसर देता है पर किसी न किसी तरह का भय हमें आगे बढ़ने से रोक लेता है. क्या ये सारे भय हमारे मन की दुर्बलता के परिचायक नहीं हैं. भीतर एक चेतना ऐसी भी है जो चट्टान की नाईं हर विरोध का सामना कर सकती है पर उसका हमें कोई स्मरण ही नहीं है.


टिक जाये जब मन ध्यान में

जीवन के स्रोत से जुड़े बिना मन सन्तुष्ट नहीं हो सकता, जिस तक जाने का उपाय है ध्यान। पहले-पहल  जब कोई ध्यान का आरम्भ करता है तो भीतर अंधकार ही दिखाई देता है, विचारों का एक हुजूम न जाने कहाँ  से आ जाता है, किन्तु साधना व निरन्तर अभ्यास से मन ठहरने लगता है और उस स्रोत की झलक मिलने लगती है जहाँ  से सारे  विचार आते हैं. मन के पार जाये बिना कोई मन को देख नहीं सकता उस पर नियंत्रण का तो सवाल ही नहीं उठता। ध्यान का  अनुभव किये बिना उस अनन्त शांति का स्वाद नहीं मिल सकता जिसका जिक्र सन्त कवि करते हैं, ध्यान ही वह राम रतन  है जिसे पाकर मीरा नाच उठती है. एक मणि  की तरह वह भीतर छिपा है जिसकी खोज ही साधक का लक्ष्य है.


माली सींचे मूल को

जब तक स्वयं की सही पहचान नहीं मिलती, जीवन में एक अधूरापन महसूस होता है. सब कुछ होते हुए भी एक तलाश जारी रहती है. देह किसी भी क्षण रोगग्रस्त हो सकती है, मृत्यु को प्राप्त हो सकती है, यह भय भी अनजाने सताता रहता है, शेष सारे भय उसकी की छाया मात्र हैं. स्वयं की पहचान करना इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी हम इस कार्य को टालते रहते हैं, इसका कारण शायद यही है कि हमें लगता ही नहीं कि हम स्वयं को नहीं जानते, तभी हम अक्सर दूसरों से यह कहते हैं, तुम मुझे नहीं जानते. इस जानने में एक बड़ी भूल यह हो रही है कि जन्म के बाद इस जगत में हमने जो भी हासिल किया है, उसी से हम स्वयं को आंकते हैं. वृक्ष का जो भाग बाहर दिखाई देता है उसका मूल भीतर छिपा है. इस जीवन में हमने जो भी पाया अथवा खोया है उसका मूल भीतर है. यदि बाहर को संवारना है तो मूल से परिचय करना ही होगा.  

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति ..आभार!

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  2. अनीता जी का भी अपना अलग अन्दाज है चिट्ठाकारी में । सुन्दर चयन ।

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  3. अनिता जी के ब्लॉग पर बहुत दिनों तक केवल दो टिप्पणियाँ हुआ करती थीं... एक मेरी और दूसरी उन्हीं की प्रतिटिप्पणी. एक बेहतरीन आध्यात्मिक लेखन है इनका... अनवरत, बिना किसी प्रत्याशा के... मानो, एक संवाद चल रहा है अनीता जी का किसी एक अनदेखे और अदृश्य के साथ.

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  4. आप सभी सुधी जनों का स्नेह पाकर मैं अभिभूत हूँ, उसी अदृश्य की कृपा है यह भी, हृदय से आभार

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