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मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 43 : डेढ़ हज़ार पचासवीं ब्लॉग बुलेटिन

एक बड़ी प्यारी कथा है. एक आदमी कहीं जा रहा था. रास्ते में एक दुकान के बाहर उसे संगमरमर की एक शिला पड़ी दिखाई दी. वो वहीं रुक गया और उसने दुकानदार से उस शिला का मूल्य पूछा. दुकानदार ने कहा कि यह बेकार पड़ा पत्थर का टुकड़ा है, जिसने अकारण उसके दुकान की जगह घेर रखी है. दुकानदार बिना मूल्य वह शिला देने को राज़ी हो गया. यहाँ तक कि उसे पहुँचाने के पैसे भी उसने स्वयम दे दिए.

कुछ समय पश्चात वह व्यक्ति उस दुकानदार के पास दुबारा गया और उसे आग्रह कर अपने साथ ले आया. जब उस व्यक्ति ने एक कमरे में ले जाकर उस दुकानदार के सामने से परदा हटाया तो वो हैरान रह गया. परदे के पीछे एक अद्भुत कलाकृति छिपी थी. दुकानदार ने आश्चर्य से पूछा कि यह किसकी कलाकृति है, तो वह व्यक्ति बोला, “यह वही पत्थर की शिला है जो मैं तुम्हारे पास से लेकर आया था. इसमें जो व्यर्थ था उसे मैंने हटा दिया और जो बचा है उसे ही तुम एक अनुपम कलाकृति कह रहे हो!”

यह ब्लॉग-संसार बहुत छोटा है, लेकिन इसके अन्दर बहुत सारे घुमावदार रास्ते हैं. इन रास्तों में भटकने वाला इंसान कभी किसी गली में किसी कविता की छाँव तले पनाह पाता है, तो कभी किसी ग़ज़ल की ठण्डी हवा के झोंके के बीच सुस्ताता है, कभी कोई कहानी उसका माथा चूमती है, तो कभी कोई व्यंग्य गुदगुदा जाता है. कितनी गलियाँ तो ऐसी हैं, जिनसे कभी गुज़रे ही नहीं होते. कितने रास्ते हैं जिनका हमें अनुमान भी नहीं और कुछ ऐसे मनभावन ठाँव हैं जिनका हमें पता तक नहीं मालूम.

दरसल किसी भी अनजान शहर या गाँव में घूमना तो बहुत ही सुखद अनुभव होता है, किंतु कोई गाइड मिल जाए, तो यह सफ़र यादगार बन जाता है. उस गाँव के हर घर-घरौंदे, पेड़-पौधे, फूल-काँटे, फल-पत्ते, ईंट-रोड़े मानो उस गाइड की ज़ुबान से बोलने लगते हैं, सजीव होकर बतियाने लगते हैं हमसे. वो “गाइड” ही तो है जो किसी रोज़ी मार्को को नलिनी बना देता है और वो कहती है “आज फिर जीने की तमन्ना है.”

आप सोचेंगे कि मैं इतनी बड़ी भूमिका आख़िर क्यों बाँध रहा हूँ. तो मित्रो, जिनका परिचय मैं आपसे करवाना चाहता हूँ, वास्तव में वो किसी परिचय की मोहताज नहीं और इतनी लम्बी भूमिका भी उनके व्यक्तित्व को बाँध सके, यह सम्भव नहीं. लेकिन इतना भी नहीं कहता मैं, तो शायद ख़ुद से बेईमानी होती. आप समझ ही रहे होंगे कि मैं किनकी बात कर रहा हूँ. ब्लॉग-संसार को यदि हम एक शिलाखण्ड समझें, तो पिछले महीने भर से उस शिलाखण्ड से उकेरी गई कलाकृति के विभिन्न रूप वे आपके समक्ष प्रस्तुत करती रही हैं और एक गाइड की तरह एक-एक रचनाकार से आपका परिचय करवाती रही हैं.


मैं जानता हूँ कि उनका नाम न लूँ तो भी दूसरा कोई नाम आपके मन में आ ही नहीं सकता, सिवा एक नाम के, जो है – रश्मि प्रभा ! हमारे बुलेटिन-टीम की वरिष्ठ सदस्य और हम सबकी रश्मि दी! ऐसा भी नहीं है कि यह उनका प्रथम प्रयास है. विगत कई वर्षों से वो इस तरह के सुन्दर प्रयोग करती रही हैं. इसी से जुड़ी एक और कहानी याद आ रही है. तीन दोस्त एक गाँव से दूसरे गाँव जीविकोपार्जन के लिये जा रहे थे. रास्ते में एक नदी आई, जिसमें प्रवेश कर उन्हें उस पार जाना था. कोई छूट न गया हो इसलिये उन्होंने नदी पार कर मित्रों की गिनती शुरू की. लेकिन उनके दु:ख का पारावार न रहा जब उनकी गिनती में केवल दो ही मित्र पाए गये. बारी बारी से तीनों ने गिनती की, लेकिन बस दो ही मित्र दिखाई दिये. उनके विलाप को सुनकर एक व्यक्ति उनके समीप आया और सारी बात सुनकर उन्हें एक साथ खड़ा किया और उनकी गिनती की – एक, दो और तीन! तीनों खुशी-खुशी अपनी यात्रा पर निकल गये.

रश्मि दी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उन्होंने सभी रचनाकारों के परिचय हमसे करवाये और उनकी रचना से रू-ब-रू करवाया. किंतु इस गिनती में वे स्वयम की गिनती करना भूल गईं. ऐसे में मैंने सोचा कि क्यों न उनकी गिनती दुरुस्त कर दूँ और आपको उनसे मिलवाऊँ, एक ब्लॉगर के रूप में, एक सम्वेदनशील कवयित्री के रूप में, एक बेहतरीन सम्पादक के रूप में और सबसे ऊपर एक बहुत ही अच्छे इंसान के रूप में.

फेसबुक पर उनकी रचनाओं के साथ जितनी छेड़छाड़ मैंने की है, किसी और ने की हो, मेरी स्मृति में नहीं है. अन्य कोई रचनाकार होता तो मुझे ब्लॉक/अनफ़्रेण्ड कर चुका होता या खरी खोटी सुना देता. लेकिन यह रश्मि दी की उदारता है कि वे हमेशा मेरी बातों का प्रत्युत्तर देती हैं, मेरी आपत्ति को काटते हुये अपना पक्ष प्रस्तुत करती हैं. अपनी बात बड़प्पन के सहारे मनवाने से परे, वो अपनी सोच स्पष्ट करती हैं और मेरे भी तर्क पर ध्यान देती हैं. कभी मैं सुधर जाता हूँ और कभी वो सुधार लेती हैं. रचनाओं को लेकर हम दोनों भाई-बहन एक दूसरे के साथ वही सलूक करते हैं जो एक रचनाकार, दूसरे रचनाकार के साथ करता है. और यही उनका बड़प्पन है, जो उन्हें एक विशाल ब्लॉगर समूह के बीच सम्मान के साथ स्थापित करता है.

तो लोगों की गिनती में ख़ुद को नज़रअन्दाज़ करती रश्मि प्रभा दी के लिये हमने एक और नई गिनती खोजी है, जो है हमारी आज की एक हज़ार पाँच सौ पचासवीं ब्लॉग-बुलेटिन और उनका चयन अवलोकन शृंखला के अंतर्गत किया जाना, जो मेरी विशेष बुलेटिन है, मेरे लिये गर्व का विषय है. तो अब मुझे अनुमति दीजिये और आप आनन्द लीजिये रश्मि दी की एक प्रतिनिधि रचना का जिसे आप उनका आत्मकथ्य भी कह सकते हैं!


रात होते 
बन्द पलकों की सुरंग से 
अतीत में चहलकदमियाँ करती हूँ 
अहले सुबह 
आँख खुलते 
वर्तमान की लालिमा में 
ओस की बूँदों से उठाती हूँ शब्द 
"आत्मकथा" लिखने के लिए 
.... 
एक अथक प्रयास है धुंध को समेटने का 
पर,
मुमकिन नहीं !

यूँ लिखती तो हूँ,
पर वो कहाँ लिख पाती 
जो मन के दराजों में 
बुलबुलों की तरह बनता मिटता है 
... 
आत्मकथा तो उसे ही कहते हैं न !
ooo 

खैर,
मैं लिखना चाहती हूँ 
गोल गोल सफ़ेद फ्रॉक में घूमती लड़की को 
जो काबुलीवाला की मिन्नी की तरह 
चटर-पटर बोलती जाती थी 
एक लेमनचूस के लिए 
पापा की जेब से निकालकर 
दुकानदार को सौ रूपये दे आई थी 
... दुकानदार वापस कर गया था 
पापा से सीख मिली थी 
बिना कहे कुछ नहीं निकालते !!!
इसे चोरी नहीं कहते 
सिर्फ लेमनचूस का स्वाद कहते हैं 
पर, उसने जाना 
- स्वाद के लिए ऐसा करना गलत है!

000 

मैं लिखना चाहती हूँ 
वह लड़की जब क्लास-मॉनिटर बनी 
तो उसके अंदर एक शिक्षक बैठ गए 
कक्षा से शिक्षक के बाहर निकलते 
छड़ी उसके हाथ में होती 
मेज पर उसे पटककर 
वह चाहती 
बाकी बच्चे थरथर काँप उठें 
दूसरी कक्षा में मॉनिटर होना 
बहुत बड़ी उपलब्धि थी  ... 
एक दिन अपने रुआब में 
उसने एक लड़के पर सख्ती दिखाई 
शांत नहीं होने के जुर्म में 
अपनी छड़ी घुमाई 
मुड़े सर पर गुलौरी उठ आई 
"अरे बाप रे बाप" की चीख पर 
वह सकते में आई !
फिर भी रही शान में 
जिसे देख शिक्षक के चेहरे पर भी हँसी आई 
पर गम्भीरता से उन्होंने समझाया 
"तुम्हारा काम है 
शोर मचानेवालों का नाम लिखना 
ना कि सज़ा देना" 
सर हिलाते हुए हामी में 
वह देखती रही ललचाई नज़रों से छड़ी को 
शिक्षक के पद से यूँ हटना 
उसे समझ नहीं आया 
समझ से अधिक मन को नहीं भाया  ...

000 

लिखना चाहती हूँ 
उस लड़की को 
जिसकी अबोध उम्र में 
एक आँधी आई 
मृत्यु की भाषा से अनजान 
वह खोने के मर्म के द्वार पर खड़ी हो गई 
"क्या है मृत्यु"
सोचते-समझते 
शमशान के घने वृक्ष 
उसकी दहशत बन गए !
ज़िन्दगी के कई राग बदल गए 
 ... और,
ख्यालों, ख़्वाबों की पराती गानेवाला मन 
अबूझ को 
बूझने का प्रयत्न करने लगा  !

००० 

लिखना चाहती हूँ उस लड़की को 
जो देखते ही देखते 
शिवानी की कृष्णकली हो गई 
प्यार की रेखाएँ खींचती 
वह खुद में बसंत हो गई 
शिव वही 
पार्वती वही 
ध्यानावस्थित वह अर्धनारीश्वर बन गई  !
००० 

लिखना तो चाहती हूँ उस लड़की को 
पर कभी स्याही कम पड़ जाती है 
कभी  - जाने कितने पन्ने फाड़ देती हूँ 
कैसे लिख सकती हूँ उस दर्द को 
जो सात वचनों के साथ उभरे 
.... 
उस दर्द को उकेरना हास्यास्पद होगा 
क्योंकि,
उस दर्द को वही जीता है 
जो एक एक साँस का 
दो रोटी का मोहताज होता है!!!
नहीं लिख सकती उस लड़की का दर्द 
हल्का हो जाएगा वह दर्द 
जो उसे बुत बना गया  
साथ में माँ,
जहाँ से उसकी कथा बदल गई  ... 

.... 
००० 
मैंने सोते-जागते देखा 
बाह्य से खौफ खाती हुई वह लड़की 
धड़कनों पर काबू रखते हुए 
घर की चारदीवारों से बाहर निकलने लगी 
वह - जिसकी चाह थी 
जायसी का महाकाव्य बनने की 
वह कुरुक्षेत्र में खड़ी हो गई 
कभी वाणों की शय्या पर 
भीष्म की पीड़ा को समझती 
कभी अभिमन्यु के सारे चक्रव्यूह तोड़ती 
कभी कर्ण से सवाल करती 
गीता के कुछेक श्लोकों को दुहराकर 
वह कृष्ण की ऊँगली में समाहित हो गई 
अपने मातृव के आगे 
सुदर्शन चक्र बन गई  ... 

००० 

लिखना चाहती हूँ उस लड़की को 
जो कल्पनाओं के गुब्बारों को थामकर 
आकाश छूने लगी 
प्यार' उसके लिए जादू था 
वह कुछ भी उपस्थित कर दिया करती थी 
सब दाँतों तले ऊँगली दबाते 
कभी ईर्ष्या में अनर्गल तोहमतें लगाते 
उसका सत्य 
उसके जायों में था 
उनके अतिरिक्त 
यह अधिकार किसी को न था 
कि उस लड़की की व्याख्या कर सके 
उसके बीहड़ जंगलों को उसके जायों ने देखा था 
उसकी निगरानी में बच्चे जंगली जानवरों से सुरक्षित थे 
बच्चों की निगरानी में वह सुरक्षित थी 
रात दिन 
वे बच्चे उसके साथ 
जंगल में रास्तों का निर्माण करते रहे 
पसीने की 
बहते आँसुओं की अमीरी 
 बराबर बराबर जीते गए  ... 
इस अमीरी की कथा 
टुकड़ों में कोई क्या जानेगा 
!!!
०००  
अचानक 
बिल्कुल अचानक 
संभवतः महाभिनिष्क्रमण की प्रबलता थी 
या मोहबन्ध की 
या  .... 
वह कई कैनवसों से निकल गई 
एक नहीं 
एक बार नहीं 
कई उँगलियाँ 
कई बार उठीं 
आलोचनाओं का गुबार उठा 
और वह कमल हो गई 
जिस सहनशीलता से वह परहेज रखती थी 
उसे आत्मसात किया 
और उसे उच्चरित करने लगी  ... 
००० 

लिखना चाहती हूँ 
अक्षरशः, शब्दश: 
शाब्दिक दृश्य को ज़ुबान देना चाहती हूँ 
पर 
मुमकिन नहीं 
सत्य के कुरुक्षेत्र में 
जो चेहरे होंगे 
उनसे कोई जीत नहीं मिलेगी 
ना ही आत्मकथा को कोई दिशा मिलेगी 
बस कलम को संयमित कर 
इतना लिख सकती हूँ 
कि उस लड़की ने रिश्तों की गरिमा के पीछे 
नंगे सत्य का नृत्य देखा 
फिर वह लड़की 
जो स्वयम में 
एक शांत झील देखना चाहती थी 
त्रिनेत्र खोलने पर मजबूर हुई 
जी भरकर तांडव किया 
नंगे सत्य को झेलने के लिए 
कई नंगे झूठ को 
जबरन सत्य का जामा पहनाया 
और निकल पड़ी 
मोह संहार के लिए 
ठेस लगी 
आँसू पोछे 
एक शरीर में कई जन्म लिए  ... 
००० 

लिखना चाहती हूँ 
उस अल्हड़ सोलहवें वर्ष की लड़की को 
जो प्रेम को जीना चाहती थी 
प्रेमिका बनकर 
जीया - भरपूर जीया भी 
लेकिन माँ बनकर !
माँ में ही उसकी सम्पूर्णता रही 
हाँ,
कल्पना के पंख उसने कभी नहीं उतारे 
हकीकत की उम्र 
बढ़ते ब्लड प्रेशर 
थकते क़दमों में 
वह आज भी 
एक तितली 
एक चिड़िया बाँध देती है 
हो जाती है युवा लाल परी 
अपनी अगली पारी के लिए 
बटोर लाती है सपनों भरी कहानी 
अपने अगले क़दमों के लिए 
ooo 

ठेस अभी भी लगती है 
पर  ... 
आत्मकथा सी वह व्यक्त नहीं होती 
हो ही नहीं सकती 
मरे हुए रिश्तों के लिए भी 
दहकते शब्दों को 
नदी में बहाना पड़ता है 
अगले कदम मजबूत रहें 
इसके लिए 
कलम की जिह्वा को कटु नहीं बना सकते न !
आधे-अधूरे 
कुछ स्पष्ट
कुछ अस्पष्ट 
बोलते, लिखते हुए 
आत्मकथा नहीं लिख पाती 
लिख ही नहीं सकती 
.... 
ना - भय नहीं 
बस संस्कारों की सुरक्षा के लिए 
चाहे-अनचाहे 
कई सत्य का अग्नि संस्कार करना होता है 
क्योंकि,
वही सत्य है 
वही सही है 
सही मायनों में - माँ है !

और सच पूछो तो 
माँ की आत्मकथा 
एक माँ लिख भी नहीं सकती 
और एक बच्चा 
उसे कभी कथा नहीं बना सकता !!!

इसीलिए  ... हाँ इसीलिए 
मैं आत्मकथा नहीं लिख पाती 
ज़िन्दगी को कितना भी निचोड़ो 
आखिरी बूँद नहीं निकलती 
और उन बूँदों में बहुत कुछ होता है 
बहुत बहुत कुछ 
- जिसे लिखा नहीं जा सकता 



19 टिप्‍पणियां:

  1. वाह...
    दीदी को सादर नमन
    रचना तो बहत पढ़ी
    पर लम्बी व उत्कृष्ठ रचना
    पहली बार पढ़ने को मिली
    सादर

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  2. शब्द चेहरे से लेकर मन तक जब हर्षित होते हैं तो ... हूबहू कहना मुश्किल है ! यह कमाल होता है बिहारी बहन के बिहारी भाई का ... बहुत बहुत स्नेह सलिल भाई।
    जब शब्दों की विरासत मुझे मिली तो निःसंदेह एक ख़ास पाण्डुलिपि आप रहे
    मैं ऐसी हूँ या नहीं, पता नहीं
    पर आपकी कलम से खुद को देखकर हैरान हूँ
    यह पत्थर ऐसा रूप भी ले सकता है क्या !!!

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  3. कभी कभी सूत्रधार को भी परिचय की आवश्यकता पड़ जाती है आज की बुलेटिन भी कुछ ऐसा ही रूप लिए है |

    जब सलिल दादा से ब्लॉग बुलेटिन की १५५० वीं बुलेटिन लगाने के बाबत चर्चा हुई तब उन्होने बताया कि वे अवलोकन २०१६ के अंतर्गत ही पोस्ट लगाएंगे और रश्मि दीदी का परिचय करवाएँगे|

    पिछले डेढ़ महीने से बिना नागा रश्मि दीदी ने अवलोकन २०१६ का सफल संचालन और आयोजन किया और हिन्दी ब्लॉग जगत के विभिन्न ब्लॉगरों के साथ साथ बाकी भाषाओं के ब्लॉगरों से हम सब का परिचय करवाया | पर इन सब के बीच वे खुद को भूल गई ... हिन्दी ब्लॉग जगत मे उनके योगदान को नज़रअंदाज़ करना उन के लिए तो शायद संभव है पर हम सब के लिए नहीं|

    रश्मि दीदी आपको सादर प्रणाम |

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  4. हिंदी ब्लॉगिंग में जो साहित्य बना या बचा रह गया है उसमें बहुत बड़ा योगदान रश्मि जी का है.....
    ब्लॉगिंग से जो अनमोल मिला है उसमें भी उनका बड़ा मकाम है....
    प्रणाम और आभार...

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  5. जिनकी सशक्त लेखनी के कायल है हम और सीखते रहते है अभिव्यक्ति की कला...उनका शानदार परिचय। बधाई आप दोनों को।

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  6. जब १५५०वीं पोस्ट लिखने की मेरी बारी आई, तो मैंने सोचा कि पहले तसल्ली कर लूँ कि आज के दिन का कोई विशेष महत्व तो नहीं. देखा कि चचा ग़ालिब की सालगिरह है. फिर सोचा उनसे माफी माँग लेंगे, अगर रश्मि दी की चर्चा नहीं हुई तो यह पोस्ट महत्वहीन हो जाएगी. और फिर जो मुझे कहना था मैंने उनके लिये कहा इस पोस्ट में. लेकिन लगता है कि न जाने कितनी बातें अनकही रह गई.
    कुछ छूट गया हो तो दीदी से बाद में हिसाब कर लेंगे! पूरी ब्लॉग बुलेटिन की टीम की ओर से दीदी का आभार इस वर्ष भर के अवलोकन के लिये!!

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  7. रश्मि प्रभा जी और सलिल भाई दोनों का लिखा मुझे बहुत पसंद आता है ..और आज यहाँ उन्हीं में से एक , दूसरे के बारे में लिख रहा है ..ज़ाहिर है कि सोने में सुहागा वाली बात है ..शब्दों की बुनावट बेहद खूबसूरत है ..वाह !

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  8. ब्लॉगबुलेटिन परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
    सादर—
    http://chahalkadami.blogspot.in/
    http://charichugli.blogspot.in/

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  9. सलिल सर ने 1550वीं बुलेटिन में रश्मि मैम का सूत्रधार के रूप में जो परिचय प्रस्तुति दी है वो काफी पठनीय और संग्रहणीय है। जिसके लिए सलिल सर बधाई के पात्र है।

    मैं अपने आपको काफी गौरवान्वित महसूस करता हूँ कि मुझे ब्लॉग बुलेटिन टीम में आदरणीय रश्मि मैम, सलिल सर, शिवम् भईया, कुमारेन्द्र सर, देव सर, अजय सर आदि के साथ काम करने का अवसर प्राप्त हुआ।

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  10. रश्मि दी वास्तव में परिचय की मोहताज नहीं हैं फिर भी आपके शब्दों ने उनके दों व्यक्तित्त्व को और भी गरिमा और विस्तार दिया है .रश्मि दी को नमन और आपकी लेखनी को भी .

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  11. भावाविष्ट हो उठी !सलिल की भूमिका फिर रश्मि की यात्रा-कथा समझने की कोशिश कर रही हूँ.अभी तो एक बार पढ़ी है .....

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  12. रश्मि दी के बारे में जिंतना लिखा जाय कम होगा। आपने बहुत ही सुन्दर भूमिका के साथ अपने अनूठे अंदाज में दी को समर्पित बुलेटिन प्रस्तुत किया है, इसके लिए आभार!
    बुलेटिन परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने क्षेत्र के महारथी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ब्लॉग बुलेटिन यूँ ही निरंतर अग्रसर रहे यही शुभकामनाएं हैं

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  13. आदरणीय प्रतिभा जी , आपकी बात सुनने के लिये प्रतीक्षित हूँ

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  14. एक पूरा चलचित्र... आत्मकथा के विराट समुद्र में से कुछ मोती वाली सीपें ! अयं पुरुषः लोक सम्मितः .....लोक तो ब्रह्माण्ड है । ब्रह्माण्ड की आत्मकथा लिख पाना सम्भव है क्या ! किंतु उसी ब्रह्माण्ड में... रात के गहन अंधियारे में दिख जाते हैं कुछ चमकते हुये सूर्य । रोशनी के लिए और क्या चाहिए !

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  15. बाबू मोशाय!! रश्मि दी की रचना क्या सचमुच आत्मकथा है...उन सबकी जो लिखना चाहते हैं लेकिन सिमटता ही नहीं सबकुछ कलम में...

    और आपके उस पत्थर के बचे खुचे हिस्से को ढूंढने की कोशिश कर रही हूँ...क्या पता वो भी तराश दिए गए हों आपके हाथों....शुभकामनाएँ आप दोनों को !!!

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  16. कुछ भी कहने के लिए मेरे पास शब्द नही है , निःशब्द हूँ , प्रणाम करती हूँ।

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बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!