जमाना बदला - हमेशा बदलता रहा है
जीने का ढंग बदला - बदलना पड़ता है
आदतें बदलीं - कुछ ज़रूरतों को मद्दे नज़र रखते हुए, कुछ दिखावे के लिए !
पहले लोग मिट्टी से बाल धोते थे, फिर धीरे धीरे एक दो साबुन बाजार में उतरा ... अब क्या नहीं है बाजार में ! इतनी सुविधाएँ कि रोबोट हुए हम, समय से पहले बीमार हुए हम ...
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मेरे अनुभव (Mere Anubhav): “~डर के आगे ही जीत है~”
आज फिर एक विज्ञापन देखा जिसमें हवा को स्वछ बनाने वाले यंत्र का उपयोग करने की सलाह दी जा रही थी अर्थात आसान शब्दों में कहूँ तो (एयर प्यूरीफायर) का विज्ञापन देखा। क्या वास्तव में हम इतने भयानक वातावरण में जी रहे हैं कि हमारे घर की हवा तक स्वच्छ नहीं है। यदि वास्तविकता यही है तो फिर हम किस आधार पर देश की प्रगति या विकास की बात करते हैं। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि चाँद से मंगल तक की यात्रा भी शायद लोगों को सभ्य बनाने से ज्यादा आसान काम रहा होगा। मगर भारत में लोगों को सभ्य बनाना “लोहे के चने चबाने जैसी बात है”। आपको वैल एजुकटेड(Well Educated) लोग मिलेंगे लेकिन सभ्य नहीं।
खैर हम बात कर रहे थे एक एयर प्यूरीफायर के विज्ञापन की, तो भई जिस देश की हवा ही स्वच्छ और सुरक्षित नहीं है वहाँ किसी और तरह के विकास के बारे में तो सोचना ही व्यर्थ है नहीं ! लेकिन मैं कहूँगी कि “डर के आगे ही जीत है” अब आप कहेंगे ऐसा नहीं है।
विज्ञापन कंपनियों का तो काम ही है लोगों में डर बेचकर अपनी जेबें भरने का, सही बात है लेकिन मुझे आश्चर्य इसलिए होता है कि यह बात सभी जानते हैं मगर फिर भी उस बेचे जा रहे डर को खरीद लेने में ही समझदारी समझते है और खरीद भी लेते है। क्यूँ ? क्यूंकि अपनों की सुरक्षा के आगे इंसान सब करने को तैयार रहता है। लेकिन इस तरह के यंत्रों का उपयोग करके हम अपने अपनों की सुरक्षा नहीं कर रहे बल्कि उन्हें और भी ज्यादा कमजोर बना रहे हैं। खासकर बच्चों को क्यूंकि घर में हम भले ही उन्हें कितना भी शुद्ध वातावरण क्यूँ न प्रदान करें लेकिन घर के बाहर का माहौल तो सदैव ही घर से पूर्णतः भिन्न ही मिलता है। फिर चाहे वह आबो हवा की बात हो, खाने पीने की बात हो या पानी की बात हो, घर की चार दीवारी के बाहर तो जैसे सभी कुछ प्रदूषित होता है।
ऐसे में हमें या तो अपने पर्यावरण को पहले की तरह स्वच्छ बनाना होगा जो इतना आसान नहीं है किन्तु यदि प्रयास किया भी तो उसमें समय भी अधिक लगेगा। तो फिर क्या किया जा सकता है ? तो जवाब है फिर हमें अपने शरीर को ही मजबूत बनाना होगा। जैसे एक मजदूर का शरीर होता है जिसे कैसा भी खाना और कहीं का भी पानी हानि नहीं पहुंचाता क्यूंकि उसका पालन पोषण डरे हुए माहौल में नहीं होता। वह आज भी हमसे ज्यादा प्रकृति के करीब होता है। ज़मीन पर सोता है। मिट्टी में काम करता है। और अन्य सारे कामों के लिए भी ज़मीन का ही सहारा लेता है फिर चाहे काम के दौरान मिले अंतराल में भोजन करना हो या फिर झपकी लेनी हो। उसके लगभग सभी काम जमीन पर बैठकर ही होते है और एक हम हैं ! जो अपनी ही ज़मीन से कोसौं दूर रहते है और अपने बच्चों को भी दूर रखते है।
मुझे तो ऐसा लगता है कि हम सभी जब मंदिर जाते हैं तभी शायद जमीन पर बैठते होंगे, वरना घर में तो ऐसी नौबत ही नहीं आती। आजकल की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में समय के अभाव के कारण तो हम अपने घर की पूजा भी खड़े-खड़े करके ही चलते बनते है। बच्चों को घर की साफ सुथरी ज़मीन पर गिरा खाना भी खाने से रोक देते है। दिन में पच्चीस बार हाथ धोने की हिदायत देते हैं। अर्थात साफ सफाई के पीछे जान दिये देते हैं। फिर भी आए दिन बड़ी बड़ी बीमारियों का शिकार हम ही लोग ज्यादा होते हैं। क्यूँ? मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि आप यह सब छोड़कर एक मजदूरों वाली जीवन शैली अपना लें और गंदे तरीके से जीना शुरू कर दें। सफाई से रहना तो अच्छी बात है। किन्तु वो कहते है न अति हर चीज़ की बुरी होती है। बस मैं भी वही कहना चाहती हूँ कि जो लोग इस एयर प्यूरीफायर के विज्ञापन को देखकर इसे लेने का विचार कर रहे हों वह कृपया एक बार फिर से अपने विचार पर विचार कर लें। क्यूंकि मेरा ऐसा मानना है कि जितना प्रकृति के निकट रहेंगे उतना स्वस्थ रहेंगे। क्यूंकि “डर के आगे ही जीत है”!!
सुन्दर अवलोकन प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंउम्दा लेख़।
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