समय - निश्चित समय जानने के लिए एक घड़ी की ज़रूरत होती है, थोड़ा आगे-पीछे भी बताये तो काम चल जाता है। लेकिन समय को किसी घड़ी की ज़रूरत नहीं होती, वह प्रतिबद्ध है चलते रहने को, उसकी रफ़्तार न बैटरी की मोहताज है, न बिजली की।
रात के साथ,चाँद के साथ,तारों के साथ, पंछियों के नीड़ में, सूर्य की रश्मियों के संग,अच्छी -बुरी घटना के संग, जीवन-मरण के संग, जीत-हार के संग वक़्त एक सा चलता है ... उसके रुकने का एहसास होता है, उसे रोकने का दिल करता है ... ना वो ,न पकड़ में आता है।
बेचैन आत्मा ही वक़्त के ठहाके सुनती हैं, और शब्दों में उसे पिरो देती है।
देवेंद्र पाण्डेय की यह रचना वार्षिक अवलोकन के मंच पर है, घड़ी हो ना हो, वक़्त निकालिये दिनों से
और पढ़िए-सुनिये वक़्त के ठहाकों को,
दुखी इन्सान ने कहा
मेरा वक्त ख़राब चल रहा है
वक्त हँसने लगा
उसने कहा
वो वाला समय कितना अच्छा था!
वक्त फिर हँसने लगा
उसने ईश्वर से प्रार्थना किया
हे प्रभु!
मेरा वक्त ख़राब चल रहा है, अच्छा कर दो!
मेरा प्रसाद स्वीकार करो
पुजारी ने प्रसाद चढ़ा कर आशीर्वाद दिया
पंडित जी ने
लम्बी पूजा कराई और दक्षिणा लेने के बाद बोले
तुम्हारा कल्याण हो
तुम्हारे अच्छे दिन आने ही वाले हैं
वह खुश हो गया
उसके साथ
पंडित जी भी खुश हुए
पुजारी भी खुश हुआ
और तो और
मंदिर के बाहर खड़े
सदा रोते रहने वाले
भिखारी ने भी
अपने गंदे हाथ पसारे
उसने
भिखारी को भी
खुशी-खुशी एक रूपया दिया
और आगे बढ़ गया
वक्त
पागलों की तरह
ठहाके लगाने लगा!!!
मैंने पूछा
कितनी देर से ठहाके लगा रहे हो
कुछ पता भी है ?
वक्त ने कहा-
मेरे पास घड़ी नहीं है!
और...
फिर ठहाके लगाने लगा.
.............
सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंयह रचना तो बड़ी भाग्यशाली निकली!
जवाब देंहटाएं....अवलोकन में शामिल करने के लिये आभारी हूँ।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
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