मैं ब्लॉग बुलेटिन
आज 6 वें साल में प्रवेश कर गया
...
नहीं याद था न आपको
कोई बात नहीं
लेकिन आप जन्म से मेरे साथ थे
मेरी रचनात्मक लीलाएँ आपकी ही देन है
शब्दप्राशन होते
भावनाओं के संजीवनी निवाले सबने दिए ...
मैं घुटनों चला
कभी कभी गिरा भी
किसी ने दशरथ की तरह उठाया
किसी ने कौशल्या की तरह धूल झाड़े
मेरे पृष्ठों पर
सिर्फ राम नहीं
भरत,लक्ष्मण,शत्रुघ्न भी उभरे
...
कई बार मेरी स्थिति
अभिमन्यु सी हुई
लेकिन मैंने अर्जुन की तरह लक्ष्य साधा
कर्ण की तरह अपनी एकाग्रता रखी
कृष्ण की भाँति
अवलोकन का विराट रूप दिखाया !
खैर,
ये सारी विशेषताएँ
आपसब ने दी
अपने शब्दों से मेरे हर वर्ष में
अपना रंग भरा
आज भी सात रंगों के साथ
मैं आपके आगे
मौर मुकुट पहने खड़ा हूँ
दीजिये आशीर्वाद
चिरंजीवी होने का
मीठा कीजिये अपना मुँह
और कहिये
"जियो लाल मेरे तुम लाखों बरस"
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गुस्ताख़: ज़रूरी है धुएं की लकीर पीटना
http://mithnigoth2.blogspot.in/2016/11/blog-post_13.html
प्रेम के प्रकटीकरण का शिथिल सा भाव
जो नवम्बर की ओस में भी
बिछ जाता है
जो नवम्बर की ओस में भी
बिछ जाता है
सड़क के ठंडे किनारे
मृत-अलसाये पत्तों की खाल में
और
अम्बर को चीरती रौशनी से बन जाता है मोती,
एक चमकता मोती,
जिसे देखकर
छोटे शहर की कवयित्रियाँ
खो बैठती है धैर्य, हिम्मत या साहस
मृत-अलसाये पत्तों की खाल में
और
अम्बर को चीरती रौशनी से बन जाता है मोती,
एक चमकता मोती,
जिसे देखकर
छोटे शहर की कवयित्रियाँ
खो बैठती है धैर्य, हिम्मत या साहस
तुम मगर संजोये रखना ये तमाम चमकती चीजें
ये चीजें भी
लालच में उलझती है कभी-कभी
आसमानों की
चुगली करते वक्त
सितारे; जैसे छोड़ देते हैं अपनी आकाशगंगायें,
ये चीजें भी
लालच में उलझती है कभी-कभी
आसमानों की
चुगली करते वक्त
सितारे; जैसे छोड़ देते हैं अपनी आकाशगंगायें,
गांधी बाग़ कैफेटेरिया की उदास गिलहरियां
जैसे हर रोज ललचाकर
आ बैठती है मेरी सख्त हथेली पर
जैसे हर रोज ललचाकर
आ बैठती है मेरी सख्त हथेली पर
कुछ मूंगफलियों का लालच भी
ठीक वैसा ही होता है
जैसे मैं सुनता हूँ तुम्हारी नजदीकियों के किस्से
उम्र के
गैर-कानूनन समझौते
'परकीय' शब्द
चाय-पार्टियों की उठापटक,
तारीफें और मीठा-मीठा सा तमाम आलम
ठीक वैसा ही होता है
जैसे मैं सुनता हूँ तुम्हारी नजदीकियों के किस्से
उम्र के
गैर-कानूनन समझौते
'परकीय' शब्द
चाय-पार्टियों की उठापटक,
तारीफें और मीठा-मीठा सा तमाम आलम
“बया के घोंसले जैसी !”
ओ मेरे देव,
नाराज़ नहीं मैं तुमसे
मेरी चुप्पी को
तुम नाराज़गी क्यों समझ लेते हो ?
चुप होकर
मैं ख़ुद में उतरती हूँ
फिर...
तुम्हारे और करीब आ जाती हूँ।
नाराज़ नहीं मैं तुमसे
मेरी चुप्पी को
तुम नाराज़गी क्यों समझ लेते हो ?
चुप होकर
मैं ख़ुद में उतरती हूँ
फिर...
तुम्हारे और करीब आ जाती हूँ।
मानती हूँ
मैंने ही कहा था
कि कहीं से भी
मेरे लिए बया का घोंसला लेकर आओ।
पर यदि तुम न ला सके
तो कोई अपराध तो नहीं किया !
अच्छा ही हुआ
जो नहीं लाये।
मैंने ही कहा था
कि कहीं से भी
मेरे लिए बया का घोंसला लेकर आओ।
पर यदि तुम न ला सके
तो कोई अपराध तो नहीं किया !
अच्छा ही हुआ
जो नहीं लाये।
देखो तो,
इस घोंसले की तलाश में
मैं कितनी दूर चली आई।
ज़िला सागर, तहसील देवरीकला
और वहाँ से भी सात किलोमीटर दूर मिला मुझे
सदियों पुराना नरसिंह मंदिर !
वही मंदिर...
जिसके प्रांगण में जब-तब दिख जाता है
नाग और नागिन का जोड़ा !
दूर एक कुआँ
जिसमें अनगिनत टूटी-फूटी मूर्तियाँ
और कुएं के मुहाने पर खड़ी
पहरा देती हुयी सी नाग-नागिन की साबुत प्रतिमा।
उफ़्फ़....
‘द कपलिंग स्नेक्स’ !
लहराता-इठलाता, सर्पिल-श्यामल, प्रेमी जोड़ा !!
मंदिर प्रांगण के ठीक बाहर
बाजू में ही है एक और कुआँ,
और उस कुएं में लटकते हज़ारों घोंसले
मेरी प्यारी टेलर-बर्ड यानी बया के !
इस घोंसले की तलाश में
मैं कितनी दूर चली आई।
ज़िला सागर, तहसील देवरीकला
और वहाँ से भी सात किलोमीटर दूर मिला मुझे
सदियों पुराना नरसिंह मंदिर !
वही मंदिर...
जिसके प्रांगण में जब-तब दिख जाता है
नाग और नागिन का जोड़ा !
दूर एक कुआँ
जिसमें अनगिनत टूटी-फूटी मूर्तियाँ
और कुएं के मुहाने पर खड़ी
पहरा देती हुयी सी नाग-नागिन की साबुत प्रतिमा।
उफ़्फ़....
‘द कपलिंग स्नेक्स’ !
लहराता-इठलाता, सर्पिल-श्यामल, प्रेमी जोड़ा !!
मंदिर प्रांगण के ठीक बाहर
बाजू में ही है एक और कुआँ,
और उस कुएं में लटकते हज़ारों घोंसले
मेरी प्यारी टेलर-बर्ड यानी बया के !
कभी तुम्हारा मन नहीं किया
इनसे चलकर पूछें
कि कैसे बनाती हैं ये
इतने सुंदर, इतने कलात्मक
.... इतने मज़बूत घोंसले !
इनसे चलकर पूछें
कि कैसे बनाती हैं ये
इतने सुंदर, इतने कलात्मक
.... इतने मज़बूत घोंसले !
मेरा बहुत मन करता है
कि इस छोटी सी चिड़िया को
अपनी हथेली पर बैठाकर
एक प्यारा सा चुंबन दूँ
और फिर पूछूँ
कि,
“ओ बया....
कहाँ से लाती हो तुम
ये जीजीविषा !
कहाँ से सीखा तुमने
ये अद्भुत कौशल !”
कि इस छोटी सी चिड़िया को
अपनी हथेली पर बैठाकर
एक प्यारा सा चुंबन दूँ
और फिर पूछूँ
कि,
“ओ बया....
कहाँ से लाती हो तुम
ये जीजीविषा !
कहाँ से सीखा तुमने
ये अद्भुत कौशल !”
और देखो तो देव
कुओं के भीतर
लटकती हुई शाखों पर ही अक्सर
बनाती है बया
अपना बसेरा !
अंडे से निकलकर
सीधे हवा में उड़ते हैं उनके बच्चे
धरातल नहीं मिलता उनको
पहले-पहल फुदकने को !
कुओं के भीतर
लटकती हुई शाखों पर ही अक्सर
बनाती है बया
अपना बसेरा !
अंडे से निकलकर
सीधे हवा में उड़ते हैं उनके बच्चे
धरातल नहीं मिलता उनको
पहले-पहल फुदकने को !
देव मेरे ....
सहेज लो ख़ुद को
बया बनकर।
क्यूँ खर्च होते रहते हो बात-बेबात पर।
वेदों ने भी तो कहा है
“अणो रणीयान, महतो महीयान” !
लघुतम से भी लघु
और महत्तम से भी बड़ा।
दोनों ही संसार
हमारे ही भीतर हैं।
मानव के देवत्व को पहचानो देव।
सहेज लो ख़ुद को
बया बनकर।
क्यूँ खर्च होते रहते हो बात-बेबात पर।
वेदों ने भी तो कहा है
“अणो रणीयान, महतो महीयान” !
लघुतम से भी लघु
और महत्तम से भी बड़ा।
दोनों ही संसार
हमारे ही भीतर हैं।
मानव के देवत्व को पहचानो देव।
उस लड़की को अपने हाल पर छोड़ दो अभी
क्यूँ दिन-रात उसीकी चिंता में घुले रहते हो
वो तय कर रही है अभी
ख़ुद से ख़ुद तक की दूरी।
जैसे ही यात्रा पूरी होगी
वो ख़ुद को पा लेगी
और जब ख़ुद को पाएगी
तो तुम तक भी लौट आएगी।
बहना चाहती है वो
तुम्हारे शब्द, तुम्हारी देखभाल
उसके प्रवाह में खलल डाल रहे हैं।
मैं ये नहीं पूछूँगी,
कि तुम इतने व्यथित क्यों हो।
हाँ,
ये ज़रूर कहूँगी
कि प्यार का मतलब
हर बार केअर करना नहीं होता।
कभी-कभी
किसी को उसके हाल पर छोड़ देना भी
प्यार ही होता है।
क्यूँ दिन-रात उसीकी चिंता में घुले रहते हो
वो तय कर रही है अभी
ख़ुद से ख़ुद तक की दूरी।
जैसे ही यात्रा पूरी होगी
वो ख़ुद को पा लेगी
और जब ख़ुद को पाएगी
तो तुम तक भी लौट आएगी।
बहना चाहती है वो
तुम्हारे शब्द, तुम्हारी देखभाल
उसके प्रवाह में खलल डाल रहे हैं।
मैं ये नहीं पूछूँगी,
कि तुम इतने व्यथित क्यों हो।
हाँ,
ये ज़रूर कहूँगी
कि प्यार का मतलब
हर बार केअर करना नहीं होता।
कभी-कभी
किसी को उसके हाल पर छोड़ देना भी
प्यार ही होता है।
और हाँ,
यदि इतने पर भी
तुम्हारी बेचैनी चैन न पाये
तो एक धागा लो
और बुनो,
या कूची पकड़ो
और बनाओ,
या फिर कलम थाम लो अपनी
और कविता लिखो
.... बया के घोंसले जैसी !
समझे हो !!
यदि इतने पर भी
तुम्हारी बेचैनी चैन न पाये
तो एक धागा लो
और बुनो,
या कूची पकड़ो
और बनाओ,
या फिर कलम थाम लो अपनी
और कविता लिखो
.... बया के घोंसले जैसी !
समझे हो !!
तुम्हारी
मैं !
मैं !
मुद्दत के बाद उसने जो आवाज़ दी मुझे,
कदमों की क्या बिसात थी, साँसे ठहर गयीं।
कदमों की क्या बिसात थी, साँसे ठहर गयीं।
छोटे नोट न होने से कल पूरे दिन भोजन नही हुआ, फिर भी सरकार के कदम की सराहना करता हू ! प्लीज बेईमान नेता हमारी फिक्र बिलकुल न करे ! हम बड़े नॉट बंद करने के साथ !
बहुत बधाई। ... पांच के पचास हों। ... आपका प्रयास सराहनीय है अभिनन्दन टीम का
जवाब देंहटाएंमेरे हिसाब से छटे वर्ष में प्रवेश कर गया है पाँच पूरे कर के :)
जवाब देंहटाएंबधाई ।
ब्लॉग बुलेटिन पाँच साल पूरे कर अब छटे साल मे प्रवेश कर गया है ... इन वर्षों के पाठकों का भरपूर स्नेह मिला ... आगे भी ऐसे ही स्नेह मिलता रहेगा ... यही आशा है |
जवाब देंहटाएंहॅप्पी बर्थड़े ब्लॉग बुलेटिन !!
जोशी सर ... आप जैसे पाठकों के बल पर ही ब्लॉग बुलेटिन गतिमान है |
जवाब देंहटाएंपाँचवें जन्मदिन की बधाई! सचमुच सुशील जोशी जी जैसे पाठक विरले ही मिलते हैं!
जवाब देंहटाएं