प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |
मक़बूल फ़िदा हुसैन (जन्म सितम्बर १७, १९१५, पंढरपुर), (मृत्यु जून 09, 2011, लंदन),एम एफ़ हुसैन के नाम से जाने जाने वाले भारतीय चित्रकार थे।
एक कलाकार के तौर पर उन्हे सबसे पहले १९४० के दशक में ख्याति मिली। १९५२ में उनकी पहली एकल प्रदर्शनी ज़्युरिक में हुई। इसके बाद उनकी कलाकृतियों की अनेक प्रदर्शनियां यूरोप और अमेरिका में हुईं।
१९६६ में भारत सरकार ने उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया। उसके एक साल बाद उन्होने अपनी पहली फ़िल्म बनायी: थ्रू द आइज़ आफ अ पेन्टर (चित्रकार की दृष्टि से)। यह फ़िल्म बर्लिन उत्सव में दिखायी गयी और उसे 'गोल्डेन बियर' से पुरस्कृत किया गया।
हुसैन बहुत छोटे थे जब उनकी मां का देहांत हो गया। इसके बाद उनके पिता इंदौर चले गए जहाँ हुसैन की प्रारंभिक शिक्षा हुई। बीस साल की उम्र में हुसैन बम्बई गये और उन्हे जे जे स्कूल ओफ़ आर्ट्स
में दाखला मिल गया। शुरुआत में वे बहुत कम पैसो में सिनेमा के होर्डिन्ग
बनाते थे। कम पैसे मिलने की वजह से वे दूसरे काम भी करते थे जैसे खिलोने की
फ़ैक्टरी में जहाँ उन्हे अच्छे पैसे मिलते थे। पहली बार उनकी पैन्टिन्ग
दिखाये जाने के बाद उन्हे बहुत प्रसिद्धी मिली। अपनी प्रारंभिक
प्रदर्शनियों के बाद वे प्रसिद्धि के सोपान चढ़ते चले गए और विश्व के
अत्यंत प्रतिभावान कलाकारों में उनकी गिनती होती थी।
एमएफ़ हुसैन को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर पहचान 1940 के दशक के आख़िर
में मिली। वर्ष 1947 में वे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में शामिल हुए।
युवा पेंटर के रूप में एमएफ़ हुसैन बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट्स की राष्ट्रवादी
परंपरा को तोड़कर कुछ नया करना चाहते थे। वर्ष 1952 में उनकी पेंटिग्स की
प्रदर्शनी ज़्यूरिख में लगी। उसके बाद तो यूरोप और अमरीका में उनकी
पेंटिग्स की ज़ोर-शोर से चर्चा शुरू हो गई। वर्ष 1955 में भारत सरकार ने
उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। वर्ष 1967 में उन्होंने अपनी
पहली फ़िल्म थ्रू द आइज़ ऑफ़ अ पेंटर बनाई। ये फ़िल्म बर्लिन फ़िल्म समारोह
में दिखाई गई और फ़िल्म ने गोल्डन बेयर पुरस्कार जीता।
वर्ष 1971 में साओ पावलो समारोह में उन्हें पाबलो पिकासो के साथ विशेष
निमंत्रण देकर बुलाया गया था। 1973 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया
गया तो वर्ष 1986 में उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया गया। भारत सरकार ने
वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 92 वर्ष की उम्र में
उन्हें केरल सरकार ने राजा रवि वर्मा पुरस्कार दिया। क्रिस्टीज़ ऑक्शन में
उनकी एक पेंटिंग 20 लाख अमरीकी डॉलर में बिकी। इसके साथ ही वे भारत के सबसे
महंगे पेंटर बन गए थे|
भारतीय देवी-देवताओं पर बनाई, इनकी विवादित पेंटिंग को लेकर भारत के कई
हिस्सों में प्रदर्शन भी हुए। भारत माता की विवादित पेंटिंग बनाने पर
पत्रकार तेजपाल सिंह धामा एम एफ हुसैन से एक पत्रकार वार्ता के दौरान उलझ
बैठे थे, बाद में 2006 में हुसैन ने हिन्दुस्तान छोड़ दिया था और तभी से
लंदन में रह रहे थे। 2010 में कतर ने उनके सामने नागरिकता का प्रस्ताव रखा,
जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 2008 में भारत माता पर बनाई पेंटिंग्स के
खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमे पर न्यायाधीश की एक टिप्पणी से
उन्हें गहरा सदमा लगा कि, एक पेंटर को इस उम्र में घर में ही रहना चाहिए और
उन्होंने इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय तक में अपील भी की। हालांकि इसे
अस्वीकार कर दिया गया था।
(जानकारी विकिपीडिया से साभार)
आज उनकी जयंती के अवसर पर ब्लॉग बुलेटिन टीम और हिन्दी ब्लॉग जगत की ओर से उनको सादर नमन|
सादर आपका
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अब आज्ञा दीजिये ...
जय हिन्द !!!
सच कहा आपने इनकी प्रतिभा को लेकर कहीं शक और शुबहे की कोइ गुंजाईश नहीं है अलबत्ता विवादों में रहना भी इनके नियति बन कर रह गयी थी | बढ़िया सम्पादकीय लिखे हैं जी | लिंक सबके साथ बुलेटिन शानदार बना है ..लौट रहे हैं हम जल्दी ही घर में वापस ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया शनिवारीय बुलेटिन प्रस्तुति शिवम जी ।
जवाब देंहटाएंसाहित्यिक ग्रंथों के अग्रणी प्रकाशक "वाणी प्रकाशन" का लोगो इन्हीं का बनाया हुआ है और दिल्ली हवाई अड्डे पर इनकी कला का फैलाव, इनके विस्तार का नमूना है. देवी देवताओं की पेंटिंग के विषय में कुछ नहीं कहूँगा, मेरा विषय नहीं है, लेकिन इनके बनाए घोड़े उनकी कला की उड़ान का प्रतिनिधित्व करते हैं..
जवाब देंहटाएंवे हमेशा नंगे पैर सफर करते थे, अब इसे क्या कहा जाए!! आपने इस बुलेटिन के माध्यम से उन्हें याद किया, अच्छा लगा.
एम. ऍफ़ हुसैन की छोटी सी यद् है मेरे पास भी. शायद वो १९८१-८२ का साल होगा. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बड़े भाई एम्. ऍफ़ ए. के छात्र थे और मैं कामर्स का. किसी समारोह के सिलसिले में वे बी.एच यू. आये थे. उन्होंने भाई साहब की पेंटिंग से खुश होकर उनको अपनी कई पेंटिंग्स यूं ही गिफ्ट में दे दी थी. भाई साहब कई दिनों तक उन पेंटिंग्स को लेकर नाचते-कूदते रहते थे. बहुत खुश थे. वे वास्तव में एक कलाकार थे. दूसरे का उत्साह बढ़ाना जानते थे. कलाकारों से बहुत बहुत प्रेम से मिलते थे. एक पहुंचा हुआ कलाकार दूसरी दुनियाँ का प्राणी होता है. जिसे मजहब और देश की सीमाओं में बंधकर नहीं रख सकते. वह वही उकेरता है जो उस वक्त अस्तित्व उसे प्रेरित करता है. इसे हम सीमाओं में बंधे लोग नहीं समझ सकते.
जवाब देंहटाएंआभार ,शिवम जी।
जवाब देंहटाएंआभार ,शिवम जी।
जवाब देंहटाएंबेशक़ वे अच्छे चित्रकार थे लेकिन विवाद उनकी छवि के साथ यह हमेशा जुड़ा रहेगा. बहुत अच्छी बुलेटिंग। पठनीय लिंक्स। आभार मेरी रचना शामिल करने के लिए।
जवाब देंहटाएंबेशक़ वे अच्छे चित्रकार थे लेकिन विवाद उनकी छवि के साथ यह हमेशा जुड़ा रहेगा. बहुत अच्छी बुलेटिंग। पठनीय लिंक्स। आभार मेरी रचना शामिल करने के लिए।
जवाब देंहटाएंआप सब का बहुत बहुत आभार |
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