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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

माँ जो कुछ भी कर सकती है



माँ लोरी होती है सपनों की 
जो बनाती है हकीकत 
करती है आच्छादित दुआओं से 
मन्नतों के एक एक धागे में 
रक्षा मंत्र का चन्दन लगाती है 
सपनों को भी लगाती है काला टीका
ताकि भय से बच्चे उठ न जाएँ
एक एक करवटों पर देती है थपकियाँ
और फेर देती है बालों में उंगलियाँ
एक चमत्कार होती है माँ
जो चमत्कार करती है
बच्चे के आधे दुःख वह लेकर ही दम लेती है
और आधे के साथ आशीर्वादों का यज्ञ निभाती है
ईश्वर का अद्भुत वरदान है माँ
जो कुछ भी .... कुछ भी कर सकती है
एक मीठी नींद और साकार सपने के लिए ...



आरसी: कबीर और मैं : आरसी चौहान


बचपन
जैसे जिदंगी की
बरसात में अदरक और मसाले की चाय
अच्छी लगती है पर तलब हमेशा
अधूरी रहती है
युवावस्था
जैसे जिदंगी की
चिलचिलाती गर्मी में ठंडे कोल्ड ड्रिंक की बोतल
फिज कब खत्म हो जाए पता नहीं
पर पीनी पूरी है
बुढ़ापा
जैसे जिदंगी की
ठंडी में गर्मा गर्म काली कॉफ़ी
सिर्फ फ़्लेवर ही फ़्लेवर
और कुछ चारा नहीं
कभी कभी बच जाती है
कप की तली में.....

।। अपनी खोज में ।।
आसान नहीं था इतनी भीड़ में
अपने आप को खोजना
पर मैं निकल ही पड़ा
पहचान के लिए
कितनी कम चीज़ें थी मेरे पास
बचपन की कुछ स्मृतियाँ थीं
तुलसी के बड़े से झाड़ के नीचे से
नानी के गोपाल जी को चुराकर
जेब में ठूँसता एक बच्चा
चिड़िया के घौंसले से
उसके बच्चों को निकाल कर
आटे का घोल पिलाता एक शैतान
जिस पर माँ चिल्लाती थी –
अब चिड़िया नहीं सहेजेगी इन बच्चों को
मर गए तो पाप चढ़ेगा तेरे सिर पर
मैथमैटिक्स की क्लास में
अक्सर मिले सिफर को
हैरानी से देखता एक विद्यार्थी
जिसे बहुत बाद में पता चला कि वह तो
आर्यभट्ट का वंशज है
एक पगला नौजवान
जिसे देखते ही
हर लड़की से प्यार हो जाता था
जिसकी डायरी में लिखी थीं वे सब कविताएं
जो वह उन्हें कभी सुना ही नहीं पाया
एक ज़िद्दी अधैर्यवान पुरुष
जिसके लिए पत्नी और बच्चे
किसी फिल्म के किरदार थे
जिन्हें करनी थी एक्टिंग
उसे डायरेक्टर मान कर
एक बेहद कमज़ोर पिता
जो हार कर रोने बैठ जाता था
स्मृतियों का पिटारा खोले
किसी अँधेरे कोने में
जिस में सिर्फ और सिर्फ
होती थीं उसकी बेटियाँ
साँझ तक भटकने के बाद
इस महानगर में
मुझे मिला एक आदमी
कुछ वैसा ही संदिग्ध
चमड़े का थैला और कैमरा लटकाए
खुद से बतियाता हुआ आत्म-मुग्ध
गंगा में पाँव लटकाए हुए
वह देख रहा था आसमान में उड़ते
चिड़ियों के झुंड को
हावड़ा ब्रिज पर उतरती साँझ को
और डूबते हुए सूरज को
उसे पहचानते हुए मुझे लगा
आज ज़िंदगी का एक साल और कम हो गया
आसान नहीं था
यूँ अपने आप को खोजना।


“मैं एक नया विज्ञान गढ़ना चाहता हूँ”
छुट्टी की उस सुबह
जब मैं, तुमको वॉइस मैसेज कर रहा था
तब बीच में एक आवाज़ गूंजी थी। 
“पेप्पर,रद्दी, अटालै वाला !!!”
संवाद के बीच उभरती
उस अनजान, अजनबी आवाज़ के जैसी ही तो है
हमारी ये ज़िंदगी भी।
एक बहुत शांत और निर्दोष पल
जो अचानक
हम में से होकर गुज़र जाता है
फिर एक दिन....
हम उस पल को रिवाइंड करते हैं, मन ही मन।
और वो पल
हमारी ज़िंदगी की
एक हसीन याद बनकर उभर आता है।
सच-सच कहूँ...
मुझे नहीं पता,
कि मोह क्या है !
बस इतना जानता हूँ
कि तुमने मुझसे एक वादा लिया है;
“मोह से दूर रहने का वादा !”
किसी अलसाई सुबह
उनींदेपन को ओढ़े हुये
नाक और आँख तकिये में धँसाये
जब औंधे-मुँह लेटा रहता हूँ।
जब झुटपुटे प्रकाश को देखकर,
एक तसल्ली मिलती है
कि कुछ देर और सो सकता हूँ।
ऐसे में
ख़यालों ही ख़यालों में
जाने कहाँ से आकर
तुम मुझ पर तारी हो जाती हो।
उस पल को क्या कह कर पुकारूँ
क्या ये भी मोह है !
....बोलो ?
समझ नहीं पाता कभी-कभी
तुम तो फ़िज़िक्स की दीवानी हो ना
ज़रा ये तो बताओ
कि न्यूटन के गति के नियमों से पहले भी तो
जीवन चल रहा था !!!
माना कि उसके बाद,
नए-नए आविष्कार होने लगे
मगर प्रेम तो वही रहा !!
कैसे मान लूँ
कि प्रेम का भाव हार्मोन्स की देन है ?
हाँ,
प्रेम में होकर
कुछ अच्छे हार्मोन्स ज़रूर निकलते होंगे।
पगलिया मेरी
कब समझोगी
कि मेरा E = mc2 तो बस तुम ही हो !!
तुम्हारी तस्वीर को एकटक देखते रहना
देखते-देखते रुलाई फूट पड़ना
और ठीक उसी समय
तुम्हारा मैसेज आ जाना
क्या ये संयोग है ?
और जो ऐसा है
तो मैं एक नया विज्ञान गढ़ना चाहता हूँ
संयोग का विज्ञान !
कल किसी ने पूछा मुझसे
“देव,
कविता लिखने के अलावा
और क्या करते हो तुम !”
मैं कुछ नहीं बोला
मगर सोच में पड़ गया
कि मैं...
कविता कहाँ लिखता हूँ ?
मैं तो बस प्रेम करता हूँ !
मैंने तो बस प्रेम किया है !
इश्क़ जो कुछ करवाता है,
सिर्फ़ वही तो करता हूँ मैं !!
“चाहत के विरूद्ध जाओ
बड़ा सुख मिलेगा”
यही बोली थीं ना तुम....
लो,
तुम्हारी सारी तस्वीरें डिलीट कर दीं
सारे सहेजे हुये मैसेजेस मिटा डाले
आँसू ढलके
तो चेहरे पर पानी डाल कर छिपा लिये।
सुनो...
मैं फिर से कोरा हो गया हूँ
किसी स्लेट, किसी कागज़ की मानिंद !
अब एक नयी इबारत लिख दो ना
मेरे मन पर
अपने हाथों से
हाँ,
इतना करना,
कहीं से अमिट स्याही ले आना
नहीं चाहता
कि तुम्हारा लिखा
कभी कोई मिटा सके
मुझ पर से !!
तुम्हारा
देव

आज कुछ यूँ ही  ... 

पागल सी मैं
कहती हूँ कुछ भी
कहती हर पल 
कभी तुमसे
कभी खुद से
कहना मेरा
ब्रह्माण्ड में विचरते 
शब्दों सा 
भावो की बारिश सा 
कही अनकही 
अपनी ही बाते 
कभी रीते घड़े सा 
मन के किसी कोने में 
पाता पनाह 
और जो रह जाता 
अनकहा शेष 
वो दीखता है
मुस्कराता हुआ 
तुम्हारी आँखों में 
खोकर पाने की चाह
झलकती है 
उन सच्ची बातो में 
उन झील सी आँखों में
शेष फिर शेष नही रहता 
समर्पण 
शेष कहाँ स्वीकार करता है........है न ?.....

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