प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |
प्रणाम |
एक जाट ने सार्वजनिक स्थान पर भैंस बांधने के लिए खूटा गाड़ रखा था। अन्य चौधरियो ने खूटा उखाड़ने का अनुरोध किया किन्तु जाट ने बात नहीं मानी। अंत में पंचायत बुलायी गयी।
पंचों ने जाट से कहा, "तूने खूटा गलत जगह गाड़ रखा है।"
जाट: मानता हूँ भाई।
पंच: खूटा यहाँ नहीं गाड़ना चाहिए था।
जाट: माना भाई।
पंच: खूंटे से टकरा कर बच्चों को चोट लग सकती है।
जाट: मानता हूं।
पंच: भैंस सार्वजनिक स्थान पर गोबर करती है, गंदगी फैलती है।
जाट: मानता हूं।
पंच: भैंस बच्चों को सींग पूँछ भी मार देती है।
जाट: मानता हूं, मैंने तुम्हारी सभी बातें मानी। अब पंच लोगो मेरी एक ही बात मान लो।
पंच: बताओ अपनी बात।
जाट: खूंटा तो यहीं गडेगा।
पंचों ने जाट से कहा, "तूने खूटा गलत जगह गाड़ रखा है।"
जाट: मानता हूँ भाई।
पंच: खूटा यहाँ नहीं गाड़ना चाहिए था।
जाट: माना भाई।
पंच: खूंटे से टकरा कर बच्चों को चोट लग सकती है।
जाट: मानता हूं।
पंच: भैंस सार्वजनिक स्थान पर गोबर करती है, गंदगी फैलती है।
जाट: मानता हूं।
पंच: भैंस बच्चों को सींग पूँछ भी मार देती है।
जाट: मानता हूं, मैंने तुम्हारी सभी बातें मानी। अब पंच लोगो मेरी एक ही बात मान लो।
पंच: बताओ अपनी बात।
जाट: खूंटा तो यहीं गडेगा।
इस जाट भाई की ही तरह अपना भी यही कहना है कि ... इस ब्लॉग जगत मे अपना "खूंटा तो यहीं गडेगा !!"
सादर आपका
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कुछ तस्वीरें रूला देती हैं
फेसबुक कभी-कभी रुला देता है। नीचे जो तस्वीर साझा कर रहा हूं, वह संजय तिवारी
जी ने ली है। उसके आगे जो घटना है वह कुमुद सिंह ने साझा की है। यह तस्वीर
देखकर आंखें नम हुईं, नोर आ गए, लेकिन कुमुद जी ने जो कहानी साझा की है, उसे
पढ़कर खूब रोया हूं। जीभर कर।
मोटे चश्मे को उतारने की भी फुरसत नहीं दी आंसुओ ने, अभी भी धुंधला सा दिख रहा
है। खुद पढ़ लीजिए।
फोटोः संजय तिवारी
बकौल कुमुद सिंहः इस तसवीर को देखकर सचमुच आंखें नोरा गयी..। उन आंखों का
हंसना भी क्या जिन आखों में पानी ना हो....।
कल की ही बात है भैरव लाल दास जी के घर गयी थी तो उन्होंने ऐसा ही एक प्रसंग
सुनाया। सोच रही थी आपसे उसपर बात... more »
अज्ञेय के सौ बरस
यह वर्ष बहुआयामी रचनाकार अज्ञेय का जन्म शताब्दी वर्ष है.अपने समय से आगे
चलने वाले, अबूझ,अद्वितीय और सर्वाधिक विवादित लेखक सच्चिदानन्द हीरानंद
वात्स्यायन अज्ञेय हिन्दी साहित्य में अपने सजग, अन्वेषी सृजनधर्मिता के कारण
आधुनिक भावबोध के अग्रदूत के रूप में स्थापित हैं. अज्ञेय ने अपनी तात्विक
दृष्टि से विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सृजन और अन्वेषण को नए आयाम दिया.
वास्तव में अज्ञेय को समझे बिना बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य के बुनियादी
मर्म,उसके आत्मसंघर्ष, उसकी जातीय जीवनदृष्टि और उसके आधुनिक पुनराविष्कार को
समझ पाना कठिन है.
हिंदी के वैचारिक,सृजनात्मक आधुनिक साहित्य पर अज्ञेय की गहरी... more »
लाइब्रेरी बंद थी !(भाग-2)
वह जब पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ रही थी। उसी दौरान एक गिलहरी उसके पैरों को
कुचलते हुए निकल गई। गिलहरी के नाखून की खरोंच उसके पैरों पर आ गई थी। लेकिन
वह कुछ इस तरह खुश हो रही थी जैसे मां लक्ष्मी उसके घर में अपने पदचिह्न छोड़
गई हों।
पेड़ के ऊपर दो गिलहरियां टहनियों पर दौड़ते हुए एक-दूसरे से आगे निकलने का
खेल खेल रही थी। मच्छर के तीन छोटे बच्चे उसकी आंखों के सामने इस तरह भिनभिना
रहे थे मानों उसकी आखों के आशिक हों। कोलाहल के बावजूद दो कुत्ते लाइब्रेरी के
पास इतनी गहरी नींद में सो रहे थे जैसे किसी शराबी की पत्नी ने घर में रखी
शराब चोरी से इन कुत्तों को पिला दी हो। दो अन्य कुत्ते मैदान में... more »
158. 'खेत देके'
अपने बचपन में हम "खेत देके" स्कूल जाना पसन्द करते थे। "खेत देके"
मतलब- खेत से होकर।
पूरी बात इस तरह है कि हमारा घर जिस सड़क पर है, उसका नाम "बिन्दुधाम
पथ" है और यह बरहरवा के "मेन रोड" यानि मुख्य सड़क के लगभग समानान्तर है। हमारा
स्कूल यानि "श्री अरविन्द पाठशाला" मुख्य सड़क पर था। था मतलब अब भी है, अब भवन
बदल गया है। इन दोनों समानान्तर सड़कों के बीच खेतों का एक बहुत बड़ा रकबा है,
जहाँ धान की खेती होती थी- अब भी होती है। गेहूँ-जौ या दलहन-तेलहन की फसल कम
ही लोग लगाते थे- अब तो खैर, कोई भी नहीं लगाता। यूँ तो हम सालभर ही खेत देके
स्कूल जाना पसन्द करते थे, मगर बरसात में हमें मना... more »
हार गया अपने ही रण
आज वेदना मुखर हो गयी,
अनुपस्थित फिर भी कारण ।
जगत जीतने को आतुर पर,
हार गया अपने ही रण ।।
ध्येय दृष्ट्य, उत्साहित तन मन, लगन लगी थी,
पग आतुर थे, राह नापने, अनचीन्ही सी,
पथिक थके सब, गर्वित मैं कुछ और बढ़ा जाता था,
अहंकार में तृप्त, मुझे बस अपना जीवन ही भाता था ।
सीमित था मैं अपने मन में, छोड़ रहा था अपनापन ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण ।। १।।
आदर्शों और सिद्धान्तों के वाक्य बड़े रुचिकर थे,
औरों के सब तर्क विसंगत कार्य खटकते शर से,
किन्तु श्रेष्ठता के शब्दों को, जब जब अपनाता था,
जीवन से मैं अपने को, हर बार अलग पाता था ।
संवेदित, एकांत, त्यक्त जीवन का करना भार वहन ।
जगत जीतने क... more »
खो गए हैं अब वो स्वप्निल से पल !
सभी कुछ तो है अपनी - अपनी जगह , सूरज चाँद सितारे बादल ! फिर ! क्या खोया है ! हाँ ! कुछ तो खोया है। या सच में ही खो गया है ! कुछ पल थे ख़ुशी के , पाये भी नहीं थे कि खो गए ! सपने से दिखने वाले अब दीखते हैं सपने में ! चमकते सितारों से नज़र आते हैं बुझी राख से .... खो गए हैं अब वो स्वप्निल से पल !बस तेरी वफ़ा का रंग नहीं.....
इस फागुन सारे रंग हैं मेरे पास
बस इक तेरी वफ़ा का रंग नहीं !
आम की बौर भरी शाखें भी हैं
सरसों की मद भरी पांखें भी हैं
बस इक तेरी याद की भंग नहीं !!
कल सेमल के दहकते फूल झड़े
बेवक्त बारिशों में जब ओले पड़े
मौसम को ठिठोली के ढंग नहीं ,
बस इक तेरी वफ़ा का रंग नहीं !!
मन भंवरे सा उड़ उड़ जाता था
तू अँगना में धमाल मचाता था
अब वो गीली चुनर भी तंग नहीं ,
बस इक तेरी वफ़ा का रंग नहीं !!
बाहर सफ़ेद बरफ की चादर है
अंतर्मन ये निर्झर है झराझर है
स्मृति कहती तू अब संग नहीं ,
बस इक तेरी वफ़ा का रंग नहीं !!
फूलों की बातों से मन भरे कौन
हाथों के चटख रंंग से डरे कौन
सतरंगी फाग का वो अनंग नहीं
बस इक तेरी वफ़ा क... more »
डार्क हॉर्स पर मेरी नज़र
चार दिन पहले सोचा अब कुछ पढ़ा नहीं जा सकेगा यदि पढ़ा भी तो लिखा नहीं जा
सकेगा लेकिन मेरी सोच फेल हो गयी जब #डार्कहॉर्स शुरू की . सहज प्रवाहमयी शैली
ने ऐसा समां बाँधा कि आधा पहले दिन पढ़ा तो रात को सोते समय एक बेचैनी घेरे रही
और अगले दिन उसे पूरा पढने के बाद भी ख़त्म नहीं हुई जब तक कि जो मन में घटित
हो रहा था उसे लिख नहीं लिया . क्या कहा जाए इसे ? क्या ये लेखन की सफलता नहीं
? आज का युवा जो लिख रहा है वो पढ़ा जाना भी उतना ही जरूरी है जितना वरिष्ठों
को . एक साल में उपन्यास के चार संस्करण आ गए . कुछ तो बात होगी ही और फिर जिस
तरह उपन्यास की समीक्षा आ रही थीं या पाठकीय टीप उससे लग रहा था , एक ... more »
काश, ऐसी खबरे बार-बार पढने मिले---!!! भाग-3
*[image: काश, ऐसी खबरे बार-बार पढने मिले---!!! भाग-3]*
*हाल* ही में हुए जाट आंदोलन के बाद दो बहुत अच्छी खबरें पढ़ी। इतनी अच्छी की
मन कह रहा है सबको सुनाऊं। आप सोच रहे होंगे करोडों रुपए की संपती का नुकसान
होने के बाद, इतने लोगों की जान जाने के बाद भी मैं कह रहीं हूं कि अच्छी
खबरें! हां, अच्छी खबरें! क्योंकी जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई तो किसी भी हालात
में नही हो सकती! लेकिन यदि ऐसी घटनाओं से हमने कुछ सबक लिए, आगे भविष्य में
ऐसी घटनाएं न हो इसके इंतजाम किए तो क्या यह अच्छी खबरें नहीं है? आपको भी
उत्सुकता हो रही है न सुननेकी। तो पेश है हमारे भारतवासियों के लिए दो ऐस... more »
तुम जमी को आसमाँ कहते रहो
*अहले चमन की दास्ताँ लिखते रहो ।*
*कुछ तो उसका राज़दाँ बनते रहो ।।*
*हो रही डुग्गी मुनादी इश्क की ।*
*तूम भी थोड़े मेहरबाँ लगते रहो ।।*
*मत लगा तू तोहमतें नाजुक है वो ।*
*राह पर बन बेजुबाँ चलते रहो ।।*
*अक्स कागज पर सितमगर का लिए ।*
*शब् में बन करके शमाँ जलते रहो ।।*
*इल्तजा भी क्या है तुझसे ऐ सनम ।*
*फिर फरेबी का गुमाँ पढ़ते रहों ।।*
*जिंदगी का है तकाजा बस यहां ।*
*इश्क पर साँसे फनां करते रहो ।।*
*यह शहर भी जेब को पहचानता है ।*
*गर्दिशों में बन धुँआ उड़ते रहो ।।*
*सच से वाकिफ हो चुकी है आशिकी ।*
*तुम जम... more »
J.N.U. में “गांधी का देश”
भाषण का विषय – “गांधी का देश” ; वक्ता – दिल्ली वि.वि. में हिंदी के प्रोफ़ेसर
अपूर्व आनन्द ; मंच संचालन – जानकी नायक । संचालिका के संबोधन की भाषा –
अंग्रेज़ी ; हिंदी प्रोफ़ेसर की भाषा – नेहरूइक हिन्दुस्तानी
स्थान – जे.एन.यू. परिसर ; दिनांक – 4 मार्च 2016 ; भाषण की कुल अवधि 1 घण्टा
15 मिनट ; जानकी नायक ने अपूर्वानन्द का परिचय देते हुये बड़े गर्व से बताया कि
उन्होंने उमर ख़ालिद का “हार्ट टचिंग इण्टरव्यू” लिया था ।
हिंदी के प्रोफ़ेसर अपूर्वानन्द ने उर्दू ज़ुबान में अपनी तक़रीर पेश करने से
पहले बताया कि उन्होंने कुछ लोगों की चिंता में 11 दिन 11 रातें कुछ लोगों के
साथ गुज़ारी हैं तब उन्हें अचानक प... more »
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अब आज्ञा दीजिये ...
जय हिन्द !!!
बहुत सुन्दर खूँटा । सुन्दर बुलेटिन ।
जवाब देंहटाएंशिवम् जी, मेरी ब्लॉग पोस्ट को भी इसी बुलेटिन में गाडने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चयन....मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका आभार और धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबधाई..इस सजावट पर..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंसबको महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं!
आप सब का बहुत बहुत आभार |
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंक से सजा बुलेटिन ........आभार
जवाब देंहटाएं