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सोमवार, 28 मार्च 2016

मंथन से अलग चलना ही है




ज़िन्दगी तुम्हारी भी तय थी 
ज़िन्दगी हमारी भी तय थी 
कभी तुमने शकुनि को नहीं पहचाना 
कभी मैंने 
पर दाव तो जीने के हमदोनों ने खेले थे !!!
भूमिका, कहानी, उपसंहार  ... 
कोई क्या कर लेगा ये जानकर 
कि तुम्हारे पास प्रेम के पासे थे 
सामनेवाले ने छल के पासे फेंके 
कुरुक्षेत्र तो बन ही गया न 
और अभिमन्यु  ... !!!
अब जयद्रथ को मारो 
या चिता सजाओ 
घटनायें तो घट चुकीं 
... 
और सुकून ???
कहाँ है ?
कब तक है ?
इस मंथन से अलग चलना ही है  
जब तक निर्धारित है 
जिस तरह निर्धारित है 
!

5 टिप्‍पणियां:

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