एक नन्हीं सी लड़की
शांत लहरों सी
क्षितिज के पार
रहस्यों की खोज में
अड़ी सी खड़ी है
लगती है मौन तपस्विनी सी
...
मैंने सोचा लिखूं कुछ उसपे
रहस्यों के परदे खोलूं
पाँव बढ़ाये जो मैंने
वह तप के सिन्धु में डूबता ही गया
शांत लहर सी वो लड़की
रही खडी मौन तपस्विनी सी
...
मैंने उसके भावों को लिखना चाहा
पर मिले न कोई मुझको शब्द ऐसे
मैंने चाहा उसको रेखांकित करूँ
पर ना बनी कोई भी रेखा वैसी
शब्द शब्द में मैंने उसे पिरोना चाहा
पर चाह के भी उसको पिरो ना सका
शांत गहरी झील सी आँखों में उसके
प्यार की ख्वाहिश थी बड़ी ही गहरी
और प्यार को शब्दों में भला कैसे लिखता !
....
पर हार अपनी मानता कैसे भला
कानों में धीरे से उसके कहके आया
क्षितिज के उस पार मेरा प्यार है तेरे लिए
दो कदम चलना है बस उसके लिए
...
देखते ही देखते वह शांत सी लड़की
इन्द्रधनुष सी मुखर हो उठी
जो लहर भीतर कहीं रुक सी गई थी
पुरवाई सी बनकर बहने लगी
....
अब नहीं लिखना है उसको
देखना है
सूक्ष्म कण कण में वो अंकित हो उठी है
प्यार के हर रूप में वह जी उठी है
और खुद में लेखनी सी हो गई है .........
हीर .....
इश्क़ इक खूबसूरत अहसास ....
तुमने ही तो कहा था
मुहब्बत ज़िन्दगी होती है
और मैंने ज़िन्दगी की तलाश में
मुहब्बत के सारे फूल तेरे दरवाजे पर टाँक दिए थे
तुमने भी खुली बाहों से उन फूलों की महक को
अपने भीतर समेट लिया था
उन दिनों पेड़ों की छाती से
फूल झरते थे
हवाएं नदी में नहाने जातीं
अक्षर कानों में गुनगुनाते
छुईमुई सी ख़ामोशी
आसमां की छाती से लिपट जाती
लगता कायनात का कोना -कोना
मुहब्बत के रंग में रंगा
चनाब को घूंट घूंट पीये जा रहा हो
छत पर चिड़ियाँ मुहब्बत के गीत लिखतीं
रस्सी पर टंगे कपड़े
ख़ुशी से झुम -झूम मुस्कुराने लगते
सीढियों की हवा शर्माकर हथेलियों में
चेहरा छिपा लेती .......
तुमने ही तो कहा था
मुहब्बत ज़िन्दगी होती है
और मैं मुहब्बत की तलाश में
कई छतें कई मुंडेरें लांघ जाती
न आँधियों की परवाह की
न तूफ़ानों की ...
सूरज की तपती आँखों की
न मुझे परवाह थी न तुझे
हम इश्क़ की दरगाह से
सारे फूल चुन लाते
और सारी-सारी रात उन फूलों से
मुहब्बत की नज़्में लिखते ....
उन्हीं नज़्मों में मैंने
ज़िन्दगी को पोर पोर जीया था
ख़ामोश जुबां दीवारों पे तेरा नाम लिखती
मदहोश से हर्फ़ इश्क़ की आग में तपकर
सीने से दुपट्टा गिरा देते ...
न तुम कुछ कहते न मैं कुछ कहती
हवाएं बदन पर उग आये
मुहब्बत के अक्षरों को
सफ़हा-दर सफ़हा पढने लगतीं ...
तुमने ही तो कहा था
मुहब्बत ज़िन्दगी होती है
और मैंने कई -कई जन्म जी लिए थे
तुम्हारी उस ज़रा सी मुहब्बत के बदले
आज भी छत की वो मुंडेर मुस्कुराने लगती है
जहां से होकर मैं तेरी खिड़की में उतर जाया करती थी
और वो सीढियों की ओट से लगा खम्बा
जहां पहली बार तुमने मुझे छुआ था
साँसों का वो उठना वो गिरना
सच्च ! कितना हसीं था वो
इश्क़ के दरिया में
मुहब्बत की नाव का उतरना
और रफ़्ता -रफ़्ता डूबते जाना ....डूबते जाना .....!!
हरकीरत हकीर बहुत अच्छा लिखती हैं उनकी रचनाओं में से एक सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंमोहब्बत का फलसफा
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंहरकिरत हीर जी बेहद उम्दा लिखती हैं | काफी अरसे से पढ़ते रहे है उनको |
जवाब देंहटाएंऐसा लगता है जैसे भाव स्वतः बहते चले आ रहे हों. कविता के छंद, तुक, व्याकरण आदि से दूर होकर भी कविता के प्रवाह के एकदम समीप...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना पाठ हेतु आपका आभार