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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२५)


कई बार लगा फ़ेंक दूँ शब्दों का सामर्थ्य 
कुछ कहने-सुनने से कुछ नहीं होता 
सबकी अपनी डफली 
अपना राग है  ... 
सच / झूठ के आवरण हटाकर होगा क्या 
सब अपनी सोच से चलते हैं 


कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
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आह !
झटक कर फेंक देती हूँ सुबह का अखबार 
ये हत्या ये लूटपाट
आगजनी ,बलात्कार
नर हो गया है पशु
कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
अगले ही पल एक आस लिए
ढूँढने को निकल पड़ती हूँ संवेदनाएं
कहीं तो होंगी ,कुछ तो होंगी
बची हुई
राख के ढेर बची हुई
मिल गया एक अध्यापक
जो विद्यालय में न पढ़ा
दवाब डालता है मासूमों पर ट्यूशन के लिए
ये जानते हुए की
इस मोटी रकम के लिए
ननकू की अम्मा
तडके निकलेगी एक और घर बर्तन धोने को
नहीं करेगी ईलाज जानलेवा खाँसी का
...........कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
मिल गया एक डॉक्टर
जो आई सी यू में भर्ती मरीज के
रिश्तेदारों को नहीं दे रहा मिलने की ईजाज़त
क्योकि उसे वसूलना है
अनेको अनावश्यक स्वास्थ्य परीक्षणों का बिल
फिर धीरे से घोषित कर देना है
घंटों पहले मरे हुए को मृत
...........कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
मिल गया एक पत्रकार
जो किसी बड़ी दुर्घटना के बाद
उत्सुकता से पल -पल
प्रार्थना रत था मरने वालों की संख्या में ईजाफे में
ताकि बिक सके उसकी ये
बड़ी खबर
.........कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
मिल गया एक व्यापारी
जो बेचता है
जल्द मौत
नकली दवाइयों में
या धीमी -धीमी मौत
खाने के सामानों में मिलावट करके
............ कितनी संवेदनाएं मर गयी हैं संसार में
निराश सी लौटने लगती हूँ घर
तभी दिख जाती है एक पागल बुढिया
जिसका जवान बेटा सीमा पर लड़ते हुए
हो गया था शहीद
मिला था उसे मात्र तिरंगे में लिपटा पुत्र शव
और बस आश्वासन
द्रवित ह्रदय से खोलते हुए पर्स
अचानक ठिठक जाते हैं
मेरे हाथ
और मुझे दिखाई देने लगता है
अपनी नयी कहानी का पात्र
अब तो आना पड़ेगा रोज यहाँ
देखने ये दर्द ये बेबसी ये चीखे
सजीव हो सके मेरी कहानी
मिल जाए कोई पुरूस्कार
बंद करके पर्स बढ़ जाती हूँ आगे
कल फिर आने के लिए
.................कितनी संवेदनाएं .............???

4 टिप्‍पणियां:

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