उन लोगों को जो कॉर्प्रॉट सोशल रिस्पोंसबिलिटी या सीएसआर के बारे में अधिक नहीं जानते उनके लिए आज एक कहानी सुनाता हूँ...
एक कम्पनी ने समाज सेवा के बारे में सोचा, सारे टीम को मेल किया गया कि अगले महीने जाएँगे पेड़ लगाने... एक दिन का कार्यक्रम तय हुआ, सबने उसने जाने के लिए नामांकन किया। एक महीने की तैयारी हुई, टी-शर्ट बने, झंडे और बैनर बने और बस बुक हुई, कुल मिलाकर काफ़ी मज़ेदार प्लान बनाया गया। तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार सभी लोग बस में सवार हुए, उन सभी ने बस ख़ूब मज़े किए, खाना पीना मौज मस्ती और अंताक्षरी के बीच सभी निर्धारित जगह पहुँच गए। उसके बाद सेल्फ़ी का दौर शुरू हुआ, फ़ोटो शेशन हुआ उसके बाद फिर पौधा लगा दिया गया उसकी भी फ़ोटो ले ली गयी और फ़ेसबुक पर चिपका कर अपनी समाज सेवा दिखा दी गयी। सभी मौज मस्ती करके आराम से घूम घाम कर लौटे दिन भर की थकान के बाद एक पेग लगा कर नींद पूरी कर ली गयी।
क्या आपको कॉर्प्रॉट सोशल रिस्पोंसबिलिटी के नाम पर ठीक लगता है? मुझे ऐसे विद्वानों की सोच पर हँसी आती है जो ऐसे प्लान बनाते हैं, पैसे की ऐसी बर्बादी उस देश में जहाँ उन्नीस करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं? अरे अगर सच में यह सोचते हो तो यह तामझाम के बिना सिर्फ़ सेवा पर ध्यान दो, पाँच रुपए का पेड़ लगाने के लिए (जिसे एक दिन बाद कोई पूछने भी नहीं वाला) पाँच लाख रुपए ख़र्च करना बंद करो। इस नौटंकी के ख़िलाफ़ कम्पनी मामले के मंत्रालय को मैंने पिछले वर्ष लिखा था और उसका उत्तर मिल गया है। अगले सत्र में इस पर कोई विचार हो सकता है। फ़िलहाल एक आचार संहिता की ज़रूरत है और पिकनिक को सीएसआर से अलग करना होगा। एक दिन पढ़ाने के नाम पर, पेड़ लगाने की नौटंकी की जगह कॉर्प्रॉट घरानो को किसी सरकारी स्कूल को गोद ले लेना चाहिए, पार्क को गोद लेना चाहिए, इनका रखरखाव कम्पनी के कर्मचारी ही करें और सीएसआर का ऑडिट किसी बाहरी कम्पनी द्वारा हो और सरकार इस पर कड़ी निगरानी रखे...
फ़िलहाल तो इसमें भ्रष्टाचार की चरम सीमा तक की लूट है यह सो इसका इलाज ज़रूरी है। पैसा सही जगह लगाओ और नाटक बन्द करो।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अब चलते है आज के बुलेटिन की ओर ...
सुंदर प्रस्तुति देव जी । आभारी है उलूक भी 'उलूक टाइम्स' की 1100 वीं पोस्ट को जगह देने के लिये ।
जवाब देंहटाएंसही विचार साझा किया बुलेटिन में .... फिजूलखर्ची रोकनी चाहिए
जवाब देंहटाएंऔर लिंक के लिए आभार
बिलकुल सही कहा आपने। दिखावा करने की मानसिकता बंद होनी चाहिए एवम् वास्तव में विकास के काम होना चाहिए। मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
सार्थक मुद्दा उठाया है देव बाबू ... आभार आपका |
जवाब देंहटाएंसुन्दर सार्थक बुलेटिन ! छोटे से छोटे काम के लिये ढोल नगाड़े पीटने की प्रवृत्ति हमारे यहाँ बहुत पुरानी है ! अपने छोटे से कार्य को बड़ा कैसे बना कर दिखाया जाए यह सारी कवायद इसीके लिये होती है ! 'यह कैसी शिक्षा' को आज के बुलेटिन में सम्मिलित करने के लिये आपका बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार देव कुमार झा जी !
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख। काश हमारा कारपोरेट वर्ल्ड इससे कुछ सीखे! इन सुंदर कड़ियों के साथ मेरे चिट्ठे को स्थान देने का आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बुलेटिन.दिखावे की संस्कृति सार्थक कार्यों पर हावी होती दिख रही है.सवाल बहुत मौजूं है.
जवाब देंहटाएंइस बुलेटिन में मुझे भी स्थान देने के लिए आभार देव जी.
बढ़िया जानकारी के साथ सार्थक बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार
जवाब देंहटाएं