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गुरुवार, 16 जुलाई 2015

धार्मिक मानसिकता के स्थान पर तुष्टिकरण की नीति


नमस्कार मित्रो,
आज की बुलेटिन के साथ हम एक बार फिर आपके सामने उपस्थित हैं.  माहे रमज़ान अलविदा कहने को तैयार है और बहुत से चर्चा-प्रेमी नागरिक किसी का इफ्तार पार्टी की दावत देना, किसी का इफ्तार की दावत न देना, किसी का इफ्तार पार्टी में शामिल होना, किसी का शामिल न होना आदि-आदि की चर्चाएँ करने में लगे हैं. देखा जाये तो नितांत धार्मिक कृत्य कतिपय तुष्टिकरण की नीति के चलते राजनैतिक बना दिया गया है. इसकी मानसिकता में मजहबी सोच, धार्मिक पावनता के स्थान पर विशुद्ध राजनीति दिखाई पड़ती है. कौन किस नजरिये से शामिल हुआ, कौन किसके बगल में बैठा, किसने किसकी प्लेट से खाद्य सामग्री उठाई, किसने टोपी पहनी, किसने टोपी पहनने से मना किया, किसने किसको गले लगाया आदि ऐसी दावतों के केंद्र में छिपा होता है. 

भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में, सर्वधर्म सदभाव की भावना वाले इस देश में ये अच्छी बात है कि आपसी सदभाव बढ़ाने हेतु ऐसे आयोजन होते रहें किन्तु इस अच्छाई के साथ एक बुराई भी दिखती है. धार्मिक सद्भावना दिखाने के लिए किसी भी राजनैतिक दल को, किसी भी राजनेता को मात्र मुस्लिम समुदाय ही क्यों दिखाई देता है? किसी भी तरह के धार्मिक आयोजन के लिए मुस्लिम त्योहारों पर ही सबकी निगाह क्यों होती है? आखिर क्यों सभी दलों के लोग, समाज के प्रबुद्ध माने जाने वाले लोग मस्जिद के पास बधाइयाँ देने को अलस्सुबह से एकत्र होने लगते हैं? क्यों इन सबमें मुस्लिम समुदाय के लोगों से पहले-पहल गले मिलने की बेताबी दिखाई देने लगती है? क्यों ऐसे लोगों के लिए एक रोजेदार पावनता का सूचक होता है? कहीं न कहीं भेदभावपूर्ण ये कदम इन्हीं के द्वारा घोषित गंगा-जमुनी विरासत को खोखला करने का काम करता है. आखिर हिन्दुओं के तथा अन्य धर्मों के त्योहारों पर ऐसी तत्परता किसी भी दल में, किसी भी व्यक्ति में नहीं दिखाई देती है. विजयादशमी, नवदुर्गा, होली आदि हिन्दू पर्वों पर भी लोगों द्वारा व्रत-उपवास रहा जाता है; मेलों, पर्वों का आयोजन किया जाता है किन्तु किसी भी दल द्वारा, किसी भी राजनैतिक व्यक्ति द्वारा उनसे गले लगने की, व्रत के पारण करवाए जाने की तत्परता नहीं दिखाई जाती है.

अब जबकि देश के राष्ट्रपति द्वारा भी इस तरह के कदम उठाये जा रहे हों तब इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि एक आतंकवादी की फांसी को भी धार्मिक आधार पर, दलगत आधार पर विवादित किया जा रहा है. कहा तो जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म, कोई मजहब नहीं होता, यदि ये ही अंतिम और पूर्ण सत्य है तो फिर एक आतंकवादी का कोई धर्म या मजहब कैसे हो जाता है? इस सवाल के साथ एक आशा यह कि माह रमजान मुस्लिम समुदाय के लोगों को सद्बुद्धि दे और उन्हें इन राजनैतिक दलों के हाथों की कठपुतली बनने से रोके. काश! ये बात समझ सकें तो....

आइये हम और आप भी इसी मंगलकामना के साथ आज की बुलेटिन के मधुवन से गुजरते हुए आगे बढ़ें.... मिलते हैं फिर अगले गुरुवार, एक और नई बुलेटिन के साथ... तब तक नमस्कार....

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और अंत में आपके लिए कुछ....


5 टिप्‍पणियां:

  1. very educatiove post exposing superstions prevelant in our homes, very educative bulletin

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  2. एक ज्वलंत और बेहद जरूरी मुद्दा उठाया है आज आपने इस बुलेटिन के माध्यम से ... दशकों से मुस्लिम समुदाय को यह राजनैतिक दल केवल वोट बैंक बना इन का शोषण कर रहे है ... अल्पसंख्यक होने के अलग अलग प्रलोभन दिखा कर ... आशा है हमारे मुस्लिम भाई अब इन चालों को समझेंगे|

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  3. @जोशी जी

    ज़रा गौर करें ... आज की बुलेटिन मैंने नहीं कुमारेन्द्र साहब ने लगाई हैं ... आभार आपका |

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  4. हा हा इसीलिये टिप्प्णी हटा रहा हूँ मुझे आभास हो गया था आप की टिप्पणी चल चुकी है शिवम जी । आज केसुंदर बुलेटिन के लिये कुमारेंद्रसाहब साधुवाद के पात्र हैं और 'उलूक' के सूत्र 'चलो ऊपर वाले से पेट के बाहर चिपकी कुछ खाली जेबें भी अलग से माँगते हैं' को स्थान देने के लिये दिल से आभार भी।

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