अच्छी बातें सीखने में बड़ी परेशानी होती है
सीधे खड़े रहो,
मुँह मत टेढ़ा करो,
स्थिर बैठो …
ऐसी जाने कितनी सीख !
सिखानेवाला उस वक़्त बहुत बुरा लगता है
पर एक वक़्त आता है
जब इस सीख से
एक तराशा हुआ चेहरा निकलता है
मेट्रो चिंतन..
शिखा वार्ष्णेय http://shikhakriti. blogspot.in/
मेट्रो के डिब्बे में मिलती है
तरह तरह की जिन्दगी ।
किनारे की सीट पर बैठी आन्ना
और उसके घुटनों से सटा खड़ा वान्या
आन्ना के पास वाली सीट के
खाली होने का इंतज़ार करता
बेताब रखने को अपने कंधो पर
उसका सिर
और बनाने को घेरा बाहों का।
सबसे बीच वाली सीट पर
वसीली वसीलोविच,
जान छुडाने को भागते
कमीज के दो बटनों के बीच
घड़े सी तोंद पे दुबकते सन से बाल
रात की वोदका का खुमार.
खर्राटों के साथ लुढका देते है सिर
पास बैठे मरगिल्ले चार्ली के कंधे पे
तो उचक पड़ता है चार्ली
कान में बजते रॉक में व्यवधान से।
और वो, दरवाजे पर किसी तरह
टिक कर खड़ी नव्या
कानों में लगे कनखजूरे के तार से जुड़ा
स्मार्ट फ़ोन हाथ में दबाये
कैंडी क्रश की कैंडी मीनार बनाने में मस्त
नीचे उतरती एनी के कोट से हिलक गया
उसके कनखजूरे का तार
खिचकर आ गई डोरी के साथ
तब आया होश जब कैंडी हो गई क्रश।
सबके साथ भीड़ में फंसे सब
गुम अपने आप में
व्यस्त अपने ख्याल में
कुछ अखबार की खबर में उलझे
दुनिया से बेखबर।
और उनके सबके बीच "मैं "
बेकार, बिन ख्याल, बिन किताब
घूरती हर एक को
उन्हें पढने की ताक़ में.
शीशे पर निशान उभरे हैं या मेरे हृदय पर
उपासना सियाग http://usiag.blogspot. in/
हर रोज़
एक नन्हीं सी चिड़िया
मेरी खिड़की के शीशे से
अपनी चोंच टकराती है ,
खट-खट की
खटखटाहट से चौंक जाती हूँ मैं ,
मानो कमरे के भीतर
आने का रास्ता ढूंढ रही हो ,
उसकी रोज़ -रोज़ की
खट -खट से सोच में पड़ जाती हूँ मैं ,
वह क्यों चाहती है
भीतर आना
अपने आज़ाद परों से परवाज़
क्यों नहीं भरती
क्या उसे आज़ादी पसंद नहीं !
कोई भी तो नहीं उसका यहाँ
बेगाने लोग , बेगाने चेहरे
क्या मालूम
कहीं कोई बहेलिया ही हो भीतर !
जाल में फ़ांस ले ,
पर कतर दे !
वह हर रोज़ आकर
शीशे को खटखटाती है या
मोह-माया के द्वार को खटखटाती है
उसे नहीं मालूम !
मालूम तो मुझे भी नहीं कि
चोंच की खट -खट से
शीशे पर निशान उभरे हैं
या मेरे हृदय पर
मैं नहीं चाहती उसका भीतर आना
पर चिड़िया की खटखटाहट और
मेरे हृदय की छटपटाहट अभी भी जारी है !
तोते के बारे में तोता कुछ बताता है जो तोते को ही समझ में आता है
सुशील कुमार जोशी
तोते कई तरह
के पाये जाते है
कई रंगों में
कई प्रकार के
कुछ छोटे कुछ
बहुत ही बड़े
तोतों का कहा हुआ
तोते ही समझ पाते हैं
हरे तोते पीले तोते
की बात समझते हैं
या पीले पीले की
बातों पर अपना
ध्यान लगाते हैं
तोतों को समझने
वाले ही इस सब पर
अपनी राय बनाते हैं
किसी किसी को
शौक होता है
तोते पालने का
और किसी को
खाली पालने का
शौक दिखाने का
कोई मेहनत कर के
तोतों को बोलना
सिखा ले जाता है
उसकी अपनी सोच
के साथ तोता भी
अपनी सोच को
मिला ले जाता है
किसी घर से
सुबह सवेरे
राम राम
सुनाई दे जाता है
किसी घर का तोता
चोर चोर चिल्लाता है
कोई सालों साल
उल्टा सीधा करने
के बाद भी अपने
तोते के मुँह से
कोई आवाज नहीं
निकलवा पाता है
‘उलूक’ को क्या
करना इस सबसे
वो जब उल्लुओं
के बारे में ही कुछ
नहीं कह पाता है
तो हरों के हरे और
पीलों के पीले
तोतों के बारे में
कुछ पूछने पर
अपनी पूँछ को
अपनी चोंच पर
चिपका कर चुप
रहने का संकेत
जरूर दे जाता है
पर तोते तो
तोते होते हैं
और तोतों को
तोतों का कुछ भी
कर लेना बहुत
अच्छी तरह से
समझ में
आ जाता है ।
अवलोकन के छटे अंक में 'उलूक' के 'तोते' को जगह दी और वो भी शिखा जी और उपासना जी की उत्तम प्रस्तुतियों के साथ आभारी हूँ ।
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