सभी चिठ्ठाकार मित्रों को सादर नमस्कार।।
1850 की दिल्ली में धूल और धुएं का गुब्बार नहीं था। यहां था तो बहादुरशाह जफ़र के
रूप में मुगलिया सल्तनत का एक ऐसा वारिस, जिसकी नज़र में पस्तहाल मुगलिया
सल्तनत को समझने की संवेदना और संस्कृति से जुड़ी रहने वाली दृष्टि थी। यूं
तो हिन्दुस्तान की वास्तविक शासक ईस्ट इंडिया कंपनी
थी, लेकिन कई बार इस शासन के लिए वह भी मुगलिया सल्तनत के नाम का सहारा
लेती थी। बहरहाल यह अंतिम बादशाह लालकिले की चारदीवारी के भीतर अपने
दरबार-ए-खास सजाता था। उसके दरबार में 'जौक' नामक
मशहूर उर्दू मसनवीकार भी रहते थे। उनसे मिलने इसी वर्ष आगरे से एक व्यक्ति
पहुंचा। लालकिले में पहुंचते ही उस व्यक्ति ने जो शेर पढ़ा, उसे सुनकर
उस्ताद 'जौक' परेशान हो गये और बहादुरशाह जफ़र हैरान रह गए। वह शेर था -
चित्र साभार : bhavtarangini.blogspot.com |
'हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे, कहते हैं ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और।'
आज मिर्ज़ा गालिब की २१६ वीं जयंती पर पूरा हिंदी ब्लॉगजगत और हमारी ब्लॉग बुलेटिन टीम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करती है। सादर।।
अब चलते हैं आज कि बुलेटिन की ओर ....
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
जवाब देंहटाएंकहते हैं कि ग़ालिब काम्है अन्दाज़-ए-बयाँ और!!
एक शायर जिसकी ज़ुबान की मिठास शायरी और ग़ज़लों का पर्याय बन गई.. सो सिम्पल-सो ग्रेट!!!
सुंदर चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सूत्रों के साथ मिर्जा गालिब को कर रहा है याद आज का बुलेटिन !
जवाब देंहटाएंआभार .... मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सूत्रों के साथ मेरी रचना को भी शामिल करने के लिए आभार..मिर्ज़ा गालिब की २१६ वीं जयंती पर उन्हें श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंबढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंगालिब जयंती पर श्रद्धा सुमन!
जय हो हर्ष बाबू ... चचा गालिब को खूब याद किया आपने ... साबित कर दिया कि चचा के असली भतीजों मे से एक हो |
जवाब देंहटाएं