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शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

प्रतिभाओं की कमी नहीं (21)

ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -


अवलोकन २०१३ ...

कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का २१ वाँ भाग ...



अगर तुमने कभी , नदी को गाते नही
प्रलाप करते हुए देखा हैं
और वहाँ कुछ देर ठहर कर
उस पर गौर किया हैं
तो मैं चाहूंगी तुमसे कभी मिलूं!

अगर तुमने पहाडों के
टूट - टूट कर बिखरने का दृश्य देखा हैं
और उनके आंखों की नमी महसूस की हैं
तो मैं चाहूंगी तुम्हारे पास थोडी देर बैठूं !

अगर तुमने कभी पतझड़ की आवाज़ सुनी हैं
रूदन के दर्द को पहचाना हैं
तो मैं तुम्हे अपना हमदर्द मानते हुए
तुमसे कुछ कहना चाहूंगी!  …… स्व. सरस्वती प्रसाद 

कहते-सुनते हैं कुछ आज की प्रतिभाओं से =


(सुमन)

बारिश  भी ,
बड़ी अजीब होती  है 
    कहीं बूंद-बूंद को 
       मानव तरसे 
           कहीं 
     बाढ़  ले आयी    ...
                   
        कही  बारिश  
साथ ले आयी किसी की 
      यादों  की  सौंधी 
            गंध 
  भावना में बह गये 
       कविता के 
         छंद ...!


(अनु सिंह चौधरी)

मैं अलवर में थी, दो दिनों के एक फील्ड विज़िट के लिए। मैं फील्ड विज़िट के दौरान गांवों में किसी महिला के घर में, किसी महिला छात्रावास में या किसी महिला सहयोगी के घर पर रहना ज़्यादा पसंद करती हूं। वजहें कई हैं। शहर से आने-जाने में वक़्त बचता है और आप अपने काम और प्रोजेक्ट को बेहतर तरीके से समझ पाते हैं - ये एक बात है। दूसरी बड़ी बात है कि आप किसी महिला के घर में और जगहों की अपेक्षा ख़ुद को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। मेरी उम्र चौतीस साल है और मैं दो बच्चों की मां हूं। बाहर से निडर हूं और कहीं जाने में नहीं डरती। डरती हूं, लेकिन फिर भी निकलती हूं। रात में कई बार अकेले स्टूडियो लौटी हूं। देर रात की ट्रेनें, बसें या फ्लाइट्स ली हैं। कई बार मेरे पास कोई विकल्प नहीं होता, कई बार ख़ुद को याद दिलाना पड़ा है कि डर कर कैसे जीएंगे।

लेकिन यकीन मानिए, अंदर का डर वही है जो छह साल की एक बच्ची के भीतर होता होगा।

ख़ैर, इस बार अलवर में मेरे लिए एक होटल में रुकने का इंतज़ाम किया गया। मैं दिल्ली से अकेली गई थी, एक टैक्सी में। (यूं तो मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट लेने में यकीन करती हूं, लेकिन यहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट में भी 'safety' है?) दिन का काम खत्म करने के बाद बेमन से होटल में चेक-इन किया। मुझे अकेले होटलों में रहने से सख़्त नफ़रत है। फैंसी होटल था - सुना कि अलवर के सबसे बड़े होटलों में से एक। कार्ड लेकर कमरे में गई। पीछे से एक हेल्पर ने आकर मेरा सामान रखा। मैंने दरवाज़ा खोला और दरवाज़े पर ही खड़ी रही, तब तक जब तक वो हेल्पर मेरा सामान और टिप लेकर बाहर नहीं चला गया (मैं कमरे में अंदर किसी अनजान इंसान के साथ खड़ी होने का ख़तरा भी नहीं मोल लेती)। तब तक सहायक कार्ड लेकर उसे जैक में डालकर कमरे की बत्तियां जला चुका था।

अंदर आई। सबसे पहले दरवाज़ा देखा। दरवाज़े में भीतर कोई कुंडी, कोई चिटकनी नहीं थी। लोहे की एक ज़ंजीर थी बस, जिसके ज़रिए आप दरवाज़े को हल्का-सा खोलकर बाहर देख सकते थे। सेफ्टी के नाम पर बस इतना ही। वो ज़ंजीर भी बाहर से खोली जा सकती थी। वैसा दरवाज़ा बाहर से किसी भी डुप्लीकेट कार्ड से खोला जा सकता था।

मैंने रिसेप्शन पर फोन किया। पूछा, "भीतर से दरवाज़ा बंद कैसे होता है?" एक आदमी आया और कमरे में घुसते ही उसने सबसे पहले कार्ड निकाल लिया, "इसी कार्ड से बंद होगा कमरा", उसने कहा और कार्ड निकालकर मोबाइल की रौशनी में दरवाज़ा बंद करने का तरीका बताने लगा। कमरे में घुप्प अंधेरा, मोबाइल की हल्की रौशनी के अलावा। मैं इतनी ज़ोर से डर गई थी कि मुझे पक्का यकीन है, उस आदमी को मेरे मुंह में आ गई जान और मेरी धड़कनें साफ़ सुनाई दे गई होंगी। (विडंबना ये कि मैं अभी-अभी गांव में लड़कियों के स्कूल में सेल्फ-डिफेंस की ज़रूरत पर बक-बक करके आई थी)

मैंने ज़ोर से चिल्लाकर कहा, "लाइट जलाइए आप पहले।"

उसने मुझे घूमकर देखा और कहा, "मैडम मैं तो..."

"मैं समझ गई हूं कि दरवाज़ा कैसे बंद होता है। पुट द डैम थिंग बैक एंड स्विच ऑन द लाईट्स", मैंने चिल्लाकर कहा, उस आदमी को कमरे के बाहर भेजा, रिसेप्शन पर फोन करके उन्हें कमरे में चिटकनियों की ज़रूरत पर भाषण दिया (जो महिला रिसेप्शनिस्ट को समझ में आया हो, इसपर मुझे शक़ है) और फिर दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया। उसके बाद मैंने जो किया वो हर उस कमरे और नई जगह पर करती हूं जहां सोने में मुझे घबड़ाहट होती है। मैंने कमरे के स्टडी टेबल को खींचकर दरवाज़े के पीछे लगाया। फिर उसके ऊपर भारी-भरकम बेडसाईड टेबल रखा। फिर उसके ऊपर अपना सूटकेस रखा।

नहीं, उस रात मुझे नींद नहीं आई थी और वो रात कई उन रातों में से थी जिस रात मुझे अकेले (या अपने बच्चों के साथ अकेले) सफ़र करते हुए नींद नहीं आती। क्यों? मैंने ट्रेन में अपनी बर्थ पर सो रही एक अकेली लड़की के साथ रात में बदतमीज़ी होते देखा है। वो लड़की डर के मारे नहीं चिल्लाई थी। मैं चिल्लाई थी। हर हिंदुस्तानी लड़की की तरह मैंने अपने बचपन में एक भरे-पूरे घर में छोटी बच्चियों तो क्या, बड़ी लड़कियों और छोटे लड़कों के साथ होती गंदी हरकतें देखी हैं जिसे सेक्सुअल अस़ल्ट कहा जाता है। देखा है कि उन्हें कहां-कहां और कैसे छुआ जाता है। ये भी बताती हूं आपको कि इनमें से कई बातें मुझे आजतक किसी को भी बताने की हिम्मत नहीं हुई, मां को भी नहीं और मुझे पक्का यकीन है कि उन लड़कियों ने भी किसी से कहा नहीं होगा। चुप रह गई होंगी। क्यों, वो एक अलग बहस और विमर्श का मुद्दा है। उस दिन भी मैंने गांव के स्कूल की बच्चियों की ज़ुबान में उनके अनुभव सुने थे। आप सुनेंगे तो आपको शर्म आ जाएगी। 

उस दिन मेरा हौसला पूरी तरह पस्त हो गया जिस दिन मेरी साढ़े छह साल की बेटी ने स्कूल ड्रेस पहनते हुए कहा, "मम्मा, स्कर्ट के नीचे साइकलिंग शॉर्ट्स पहना दो।" "क्यों", मैंने उसे तैयार करते हुए एक किस्म की बेफ़िक्री के साथ पूछा, "आज हॉर्स-राइडिंग है?" "नहीं मम्मा। कुछ भी नहीं है। स्कूल में लड़के नीचे से देखते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए, चेयर पर बैठते हुए। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।"

मैं शब्दों में अपना शॉक बयां नहीं कर सकती। मैंने उसे मैम और मम्मा को बताने की दो-चार बेतुकी हिदायतों के बाद साइकलिंग शॉर्ट्स पहना दिया और पूरे दिन परेशान होकर सोचती रही। छह साल की बच्ची को अच्छी और बुरी नज़र का अंदाज़ा लग गया। हम अपनी बेटियों की कैसे समाज में परवरिश कर रहे  हैं! उसे विरासत में क्या सौंप रहे हैं? डर?

आद्या अभी भी पार्क में साइकलिंग शॉर्ट्स में जाती है, या फिर वैसे कपड़ों में जिससे उसकी टांगें ढंकी रहें। यकीन मानिए, मैंने उसे कभी नहीं बताया कि उसे क्या पहनना चाहिए। इस एक घटना ने मुझपर एक बेटे की मां होने के नाते भी ज़िम्मेदारी कई गुणा बढ़ा दी है। मैं रिवर्स जेंडर डिस्क्रिमिनेशन करने लगती हूं कभी-कभी, न चाहते हुए भी। बेटे को संवेदनशील बनाने की ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी है। बेटा पालना ज़्यादा मुश्किल है, ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी है।

फिर भी 'रेप' या यौन हिंसा को रोकने के लिए ये काफ़ी नहीं है। जब तक छोटे से छोटे यौन अपराधों (ईवटीज़िंग, छेड़छाड़) को लेकर कानून को अमल करने के स्तर पर ज़ीरो टॉलेरेन्स यानी पूर्ण असहिष्णुता का रास्ता अख़्तियार नहीं किया जाएगा, महिलाओं, लड़कियों, बच्चियों के ख़िलाफ़ हिंसा को लेकर बड़े बदलाव की उम्मीद बेकार है। दरअसल, इतना भी काफ़ी नहीं। जब तक ज़्यादा से ज़्यादा लड़कियां और औरतें पब्लिक स्पेस में नहीं आएंगी, डिस्क्रिमिनेशन कम नहीं होगा। समस्या ये है कि एक समाज के तौर पर हम अभी भी लड़कियों और औरतों से घरों में रहने की अपेक्षा करते हैं। सार्वजनिक जगहों पर उनकी संख्या को लेकर हम कितने पूर्वाग्रह लिए चलते हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेट्रो में, लोकल ट्रेनों में महिलाओं के नाम के एक ही कोच होते हैं। बाकी जनरल कोचों में गिनी-चुनी महिलाएं। अपने दफ्तरों, बाज़ारों, दुकानों, सड़कों, गलियों में देख लीजिए। क्या अनुपात होता है पुरुष और महिला का? को-एड स्कूलों में? कॉलेजों में? डीटीसी की बसों में महिलाओं के लिए कितनी सीटें आरक्षित होती हैं? शहर की सड़कों पर कितनी महिलाओं को गाड़ी चलाते देखा है आपने? ६६ सालों में सोलह राष्ट्रीय आम चुनाव, लेकिन देश की ४८ फ़ीसदी आबादी के प्रतिनिधित्व के लिए ३३ फ़ीसदी सीटों के आरक्षण को लेकर बहस ख़त्म ही नहीं होती। जो पुरुष औरतों को बराबरी का हक़दार मानते ही नहीं, वे उसे अपमानित, शोषित और पीड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। फिर हमारे यहां तो यूं भी पुरुषों के इस बर्ताव को मर्दानगी समझा जाता है। जब तक मर्दानगी की परिभाषा बदलेगी नहीं, मर्द नहीं बदलेंगे, बराबरी की बात फ़िज़ूल है। हम हर बलात्कार का मातम ही मना सकते हैं बस।    

रह गईं औरतें और लड़कियां तो सदमे में होते हुए भी, अपने डर से लड़ते हुए भी बाहर जाने और काम करने का हौसला रखेंगी ये। हमारे पास चारा क्या है? फिर भी मैं अकेले अनजान जगहों पर सफ़र करने की हिम्मत रखूंगी, चाहे इसके एवज़ में मुझे कमरे को भीतर से कई सारे फर्नीचर लगाकर ही क्यों न बंद करना पड़े। फिर भी मैं मर्दों पर, लड़कों पर भरोसा करती रहूंगी। पूरी ईमानदारी से इस भरोसे को बचाए रखने की कोशिश करूंगी और इसके ख़िलाफ़ उठने वाले हर शक़ का इलाज ढूंढने की कोशिश करूंगी।  मैं फिर भी अपने बच्चों को एहतियात बरतने के साथ-साथ भरोसा करना ही सिखाऊंगी। बेटी नज़र और 'टच' पहचानने ही लगी है। बेटा भी शायद धीरे-धीरे अपनी बहन की ख़ातिर और उसके जैसी कई लड़कियों की ख़ातिर ख़ुद को बदलना सीख जाए, मर्दानगी की परिभाषा बदलना सीख जाए। आमीन! 

(शेखर सुमन)
एक मुसाफिर हूँ, जो तारों को देखता है, चाँद को सहलाता है, आसमान को बांधता है, सुबह की सूरज की किरणों में सुकून महसूस करता है... जिसने तितलियों की आखें पढने की कोशिश की है, जो जागती आखों से सपने देखता है... यहाँ बांटता है अपनी ज़िंदगी के कई अधखुले पन्ने, अनखुले एहसास...

पिछले एक घंटे से न जाने कितनी पोस्ट लिखने की कोशिश करते हुए कई ड्राफ्ट बना चुका हूँ... सारे खयालात स्कैलर बनकर एक दुसरे से भिडंत कर रहे हैं... कई शब्द मुझे छोड़कर हमेशा के लिए कहीं दूर जा चुके हैं, मेरे पास चंद उल-झूलुल लफंगे अक्षरों के सिवा कुछ भी नहीं बचा है ... कई चेहरों की किताबें मुझसे मूंह फेर चुकी हैं... वो अक्सर मेरे बिहैवियर को लेकर शिकायत करते रहते हैं, ऐसे शिकायती लोग मुझे बिलकुल पसंद नहीं है, ऐसा लगता है उनकी शर्तों पर अपनी ज़िन्दगी जीने का कोई एग्रीमेंट किया हो मैंने... बार-बार अपनी कील लेकर मेरी पर्सनल लाईफ पर ठोकते रहते हैं... खैर, ऐसी वाहियात चेहरों की किताबें मैंने भी छत पर रख छोड़ी हैं, धुप-पानी लगते-लगते खुद सड़ कर ख़त्म हो जायेंगी...

लेकिन इस बेवजह के बवंडर में मेरी कलम बेबस होकर आह भरने लगी है.... आज कितने दिनों के बाद खुद के लिखे शब्दों को देखा तो खुद को जैसे कोई सजा देने का मन किया... ना जाने मैं आज कल क्या कर रहा हूँ, कुछ लिखते रहने की आदत छोड़ देना भी मेरे लिए किसी सज़ा से कम नहीं है... मैं आँख बंद कर थोड़ी देर के लिए बैठ जाता हूँ, आस-पास कुछ भी नहीं, कोई भी नहीं जो प्यार से इस सर पर एक हाथ भर फिरा दे ... कभी-कभी किसी का नहीं होना बहुत मिस करता हूँ, हालांकि यूँ अकेले रहने का निर्णय सिर्फ और सिर्फ मेरा है, क्यूंकि मुझे अपने आस-पास मुखौटे लगाए सर्कस के जोकर बिलकुल पसंद नहीं है... लेकिन उनसे बचने की जुगत करते करते ऐसे लोग भी बहुत दूर हो गए हैं जिनसे जुदा रहना मेरे ख्याल में शामिल नहीं था... 

अपने आस-पास सूखी लकड़ियों का ढेर इकठ्ठा करके आग लगा लेना चाहता हूँ, लेकिन वो भी मुमकिन नहीं, उस आग के साथ कई नाजुक डोर भी जल जायेंगी.. अगर मुमकिन हुआ तो इन्हीं रिश्तों की नाजुक डोर पकडे-पकडे ही इस दौर से निकल जाऊँगा...

आज समंदर बहुत याद आ रहा है, उसकी वो उचकती लहरें मुझे ज़िन्दगी से लड़ना सिखा जाती हैं... मैं यहाँ से कहीं दूर चला जाना चाहता हूँ, उसी समंदर के आगोश में... उसकी लहरों से लिपट जाना चाहता हूँ ... मुझे माफ़ करना ए ज़िन्दगी कि मुझे जीने का सुरूर ही नहीं आया...

मुझे पता है तुम ये पढ़ोगी तो ज़रूर सोचोगी ये क्या लिखा है, लेकिन क्या करूँ ...तुम्हारे लिए ही कुछ प्यारा सा लिखने बैठा था लेकिन पिछले दो महीने का मौन लिख बैठा हूँ...

14 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया बुलेटिन है दी......सुमन दी ,अनु और शेखर मेरे भी पसंदीदा है.....

    आभार
    अनु

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  2. अगर तुमने कभी पतझड़ की आवाज़ सुनी हैं
    रूदन के दर्द को पहचाना हैं
    तो मैं तुम्हे अपना हमदर्द मानते हुए
    तुमसे कुछ कहना चाहूंगी! ……
    नि:शब्‍द कर दिया इन पंक्‍ितयों ने
    सभी रचनाकारों का चयन एवं प्रस्‍तुति अति-उत्तम

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  3. - बारिश और भावों का तो पुराना सम्बन्ध है
    - अनु सिंह चौधरी जी की लेखनी के परवाह में बहते हुये कभी सुकून कभी डर तो कभी दर्द का अनुभव किया हर उस इंसान की संवेदनाएं हैं जिसे स्त्री कहा जाता है .....
    - 'मौन लिख बैठा'........यूँ तो कुछ ख़ास नहीं कहा गया और समझें तो मन के कितने ही कोने झाड़ दिये . बेहद कोमल
    रश्मि दी ...............इन नगीनों के लिए धन्यवाद जी :)

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  4. सभी बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचनाएँ!

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  5. लाजवाब बुलेटिन - दिल छु लिया रचनाओं और लेखों ने | बेहद शानदार प्रस्तुति - जय हो मंगलमय हो | हर हर महादेव |

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  6. waah bahut hi sundar sabhi links jo ek se badhkar ek hai,aapki prastutikaran bahut shandar hai, bahut badhai aapko,meri hardik shubhakamanaye aapko w aapki puri team ko.....

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  7. सभी रचनाकारों का चयन एवं प्रस्‍तुति अति-उत्तम ... हमेशा की तरह ... जय हो |

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