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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (13)

ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -



अवलोकन २०१३ ...

कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का १३ वाँ भाग ...



एक कहानी 
एक कविता 
एक नज़्म 
एक ग़ज़ल सी होती है ज़िन्दगी  … सुनते रहो,पढ़ते रहो,लिखते रहो  … अचानक खत्म हो जाती है ज़िन्दगी !
ज़िन्दगी का दीया जब तक रौशन है 
अपनी प्रतिभा के पदचिन्ह बनाते जाएँ 
………। 


(युगदीप शर्मा)

याद है? जब पहले पहल मिली थी तुम,
बगल से एक मुस्कान के साथ गुजर गयी थी.
एक परफ्यूम की गंध के साथ
साँस में बस गयी थी तुम
तब ना कोई हवा चली थी,
ना कोई वोइलिन बजी थी.

देखा था मैंने तुझे, पलट कर जरूर,
जैसा कि मैं हर बंदी को देखता था.
क्या पता था कि वही तुम,
एक दिन आ मिलोगी मुझे,
सपने के जैसे, पलकों पे बैठ जाओगी.

दोबारा कब मिले थे, अब ये तो याद नहीं,

पर हाँ, वो एहसास
अभी भी गुदगुदा जाता है अक्सर,
शायद तुमने कुछ कहा था और मैं,
आँखें फाड़ फाड़ के देख रहा था तेरे चहरे को.

फिर जब तुमने फिर से कहा था तो,
हडबडाकर कुछ तो बोला था मैं भी..
और तुम फिर से मुस्कुरा के,
चली गयी थी...फिर से मिलने को..
वो दिन-
उसे तारीख कहूँ तो तौहीन होगी उन लम्हों की ..
-गुजरा नहीं है आज तक...
अटक गया है कहीं...कलेंडरों से परे.

फिर
ना जाने कब.. सब कुछ बदल गया...
आहिस्ते आहिस्ते...
बिना कुछ बोले भी..
जो आज तक कायम है..

बहुत सी बातें...जो तुमने कभी बोलीं ही नहीं..
बरबस ही सुन लिया करता हूँ मैं.
और तुम भी तो समझ लेती हो हर बात को..
अनकहे ही..

भाषा के मायने बदल गए हैं.. शायद...
पंख फैला लिए हैं उसने...
एहसासों को सुनने लगी है वो अब...
आँखों से बतियाती है...
शब्दों/ ध्वनियों की मोहताज नहीं है वो..

तुम्हारे साथ...हर एक पल...
एक जमीनी एहसास है...
बादलों के पार नहीं पहुँचता कभी भी ..
बहुत मजबूत हैं पांव उसके...या कि शायद जड़ें हैं.
जो कहीं गहरे तक, समेटे हुए हैं मुझे..

तेरे साथ होने पर...हर गम, हर ख़ुशी...
अपने मायने बदल देती है...
सब कुछ नया नया सा लगता है..
सारी सृष्टी झूमने लगती है इर्द-गिर्द...
इच्छा/आशा/अभिलाषा/महत्वाकांक्षाओं से परे...
शायद...बुद्ध बन जाता हूँ मैं!!

एक आलसी का चिठ्ठा: पाँच उदासियाँ


( गिरिजेश राव )

(1)
हाथों में झुर्री भरे हाथ लेते 
झुरझुरी होती है 
और माँ कहती है – 
छोड़ो, जाने दो 
कितनी देर से रखी है आँच पर तरकारी 
जल जायेगी। 
मेरी आँखों में भरता है 
मणिकर्णिका का धुँआ - 
एक दिन 
जल जायेगी।
(2)
बहुत शांति रहती है घर में
बेटे के वितान तले 
पिता घुटता है 
माँ सहमती है 
बच्चे बढ़ कर ऊँचे तो होते हैं, 
पसरते नहीं!
(3)
बच्चे की ज़िद पर 
मोल ले आई है गृहिणी
पिजरे में चिड़ियों का जोड़ा। 
गृही उन्हें उड़ा नहीं पाता 
उसे रह रह कोंचता है 
पिता का उसके घर को 
‘गोल्डेन केज’ कहना।  
छाँव की चाह स्वार्थी 
समय का क्या 
रीत जायेगा 
पिजरा रह जायेगा
सुगना उड़ जायेगा।

(4)
नहीं जाना चाहते वे 
घूमने पोते के साथ, 
बूढ़े पाँव 
छोटे पाँवों के साथ चल नहीं पाते। 
 जो साथ दे सकता है 
वह तो कुर्सी तोड़ता है।

(5) 
कमरे के तेज प्रकाश से अलग 
बिरवे का संझा दिया
टिमटिमाता है। 
गमले की तुलसी तले 
माँ सावन सजायी है
मन्नतें गायी है। 
हाड़ हाड़ समाये हैं 
गठिया के कजरी बोल 
जब चलती है 
चटकते हैं।


(अशोक सलूजा)

अपने ज़माने का .....वो बचपन !!!

आज भी भूले-भुलाये न भूले  
वो बचपन
माँ का दुलारा था 
वो बचपन 
आँखों का तारा था
वो बचपन
नानी की गोदी में  गुज़ारा 
वो बचपन
शरारतों से भरपूर था 
वो बचपन
कितना मासूम था 
वो बचपन
कितना निर्दोष था 
वो बचपन
अपनों का प्यारा था 
वो बचपन 
बूढों का सहारा था 
वो बचपन 
कितना सुहाना था 
वो बचपन 
सब से न्यारा था 
वो बचपन ......
काश! कि लौटा लाऊं 
वो बचपन 
अपनी यादों का सहारा  
वो बचपन
मासूम सी मुस्कानों का 
वो बचपन
रोने से पहले की शक्ले बनाना का  
वो बचपन 
किस्से-कहानियाँ सुनाता 
वो बचपन   
सब कुछ भुला के याद आये
वो बचपन 
मेरे ज़माने का था अपना 
वो बचपन 
इस लिए इतना सुनहरा था
वो बचपन..... 

आज का ....आपका ये बचपन !!!

कैसा न्यारा है आज का
ये बचपन 
कहाँ से प्यारा है आज का 
ये बचपन 
कितनी सी देर का बेचारा है आज का 
ये बचपन
सिर्फ दो साल का है आज का 
ये बचपन 
इन्टरनेट का मारा आज का
ये बचपन 
रियाल्टी-शो का सहारा आज का
ये बचपन 
मोबाइल पर गेम का प्यारा आज का
ये बचपन 
फेसबुक पर चैट का मारा आज का 
ये बचपन 
अंधे सपनों को ढोता आज का
ये बचपन  
माँ-बाप की ईगो का सहारा आज का 

ये बचपन........

खो गया है मासूम बचपन,खो गई हैं दादा-दादी,नाना-नानी की मासूम कहानियाँ  .... पाने के क्रम में हमने बचपन का टिमटिमाता घर खो दिया  . उसे वापस लाना है, है न ?:)

10 टिप्‍पणियां:

  1. पदचिन्ह शब्दों के बने
    कुछ ऐसे गूंजते रहे
    तैरते रहें शब्दो के
    ऊपर सवार होकर
    इस पार से उस पार
    मिलें जब भी कहें
    शब्द मरते नहीं
    शब्द जिंदा करते हैं
    मरे हुऐ शब्दों को भी
    कोई कोशिश तो करे
    कभी के लिये सही
    बोने की कुछ शब्द !

    वाह बहुत उम्दा चयन !

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  2. मन को छूती तीनों रचनायें बहुत ही सुंदर ! यह आयोजन निश्चित रूप से अनन्य है !

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  3. जब तक हमारे पास अपनी अनमोल यादों का खजाना है ... हम सब दुनिया के किसी भी अमीर से ज्यादा अमीर है ... :)

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  4. भाषा के मायने बदल गए हैं.. शायद...
    पंख फैला लिए हैं उसने...
    एहसासों को सुनने लगी है वो अब...
    आँखों से बतियाती है...
    शब्दों/ ध्वनियों की मोहताज नहीं है वो..
    बहुत सही ... सभी रचनायें एक से बढ़कर एक ... बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  5. बहुत बढ़िया रश्मि जी ..प्रतिभाओं की कमी नहीं बस नज़र चाहिए अवलोकन की । आपका कार्य और योगदान सराहनीय है ।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बढ़िया रश्मि जी ..प्रतिभाओं की कमी नहीं बस नज़र चाहिए अवलोकन की । आपका कार्य और योगदान सराहनीय है ।

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  7. लाजवाब संकलन - जय हो मंगलमय हो |

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