Pages

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

कौन करेगा नमक का हक़ अदा - ब्लॉग बुलेटिन

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम !

एक पुरानी कहावत है कि जो हमेशा दूसरों के लिए कुआं खोदता है, वो कभी न कभी खुद उसमें गिर जाता है। हालांकि यही बात हमेशा दूसरों के लिए अपनी जान जोखिम में डालने वालों के मामले में सही नहीं भी हो सकती है। ऐसा मुमकिन है कि जो दूसरों के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा दें, उनके बारे में सोचने वाले मुश्किल से मिलते हैं।

यही बात गुजरात में आगरिया समुदाय के सदस्यों के लिए भी सही है। हिंदुस्तान की 75 फीसदी से ज्यादा आबादी के लिए नमक उत्पादन करने वाले इस समुदाय के सदस्य नमकीन पानी के साये में पैदा होते हैं, जवान होते हैं और मर जाते हैं।
इसके बावजूद उनकी जिंदगी फाकाकशी के साए में गुजरने के लिए अभिशप्त है। आगरिया समुदाय के सदस्य कच्छ के रन में अपनी पूरी जिंदगी नमक उत्पादन में गुजारते हैं।वे हिंदुस्तान की कुल नमक खपत के 75 फीसदी हिस्से की आपूर्ति करते हैं। हालांकि इसके लिए उन्हें अकसर अपनी टांगें गंवानी पड़ती है।
यहां के कामगार कहते हैं कि नमक उत्पादन के दौरान कामगारों की टांगें इस कदर असामान्य और पतली हो जाती हैं कि कई बार दाह-संस्कार के दौरान भी नहीं जलतीं।
दाह संस्कार के बाद परिजन उनकी टांगे इकट्ठा करते हैं और किसी अन्य जगह पर नमक के साथ ही उन्हें दफना देते हैं, ताकि वे प्राकृतिक रूप से गल जाएं। सूरजबाड़ी का यह अगरिया समुदाय अहमदाबाद से करीब 235 किमी और कच्छ के जिला मुख्यालय से करीब 150 किमी की दूरी पर बसता है।
यह इलाका कच्छ के रन से कुछ ही दूरी पर और अरब सागर से बमुश्किल 10 किमी की दूरी पर स्थित है।
गुजरात के टूरिज्म ऑफिसर मुहम्मद फारुख पठान कहते हैं कि सदियों से समुदाय के सदस्य जीवन-यापन का बस एक तरीका जानते हैं।वह है- नमक उत्पादन।
हम सब जानते हैं कि समुद्र का पानी बेहद खारा होता है।लेकिन कच्छ के इस रन वाले इलाके का भूजल भी समुद्र के पानी के मुकाबले 10 गुना ज्यादा नमकीन है। ऐसे में बोरिंग के जरिए यह पानी निकाल कर 25 गुना 25 मीटर आकार के खेत में भरा जाता है। धूप में यह पानी वाष्पीकृत होता जाता है और अंत में चांदी के रंग की नमक की चट्टान बच जाती है।
पठान कहते हैं कि इस तरह अगरिया समुदाय के लोग हर 15 दिनों में 10-15 टन नमक का उत्पादन कर लेते हैं।उसके बाद इसे ट्रेन व ट्रकों के जरिए देशभर में नमक कंपनियों और केमिकल कंपनियों को भेजा जाता है।यहां हर परिवार के पास इस तरह के 30-60 खेत हैं।
हालांकि वे बताते हैं कि यह काम इतना आसान नहीं है।इसकी वजह यह है कि यहां दिन का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो रात का तापमान पांच डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। ऐसे जटिल मौसम में भी दिन-रात काम करने के बावजूद अगरिया समुदाय के लोगों को प्रति टन महज 60 रुपये तक मिल पाता है।
अगरिया समुदाय भारत के सबसे गरीब समुदायों में शामिल है। उनके बच्चों को स्कूल का मुंह देखना नसीब नहीं है। बेहद कठोर वातावरण में अति संतृप्त नमक के आसपास काम करने की वजह से उनकी त्वचा झुलस जाती है।
वहीं, मानसून के दौरान चार महीनों तक उनके खेतों में पानी भरा रहता है, जिससे उनके पास कोई रोजगार नहीं बच जाता।इसके बावजूद वे तंगहाली का जीवन जीने के लिए विवश हैं। ऐसे में मशहूर गीतकार व कवि संतोष आनंद की चार पंक्तियां याद आती हैं :
'खुद को भूले हुए हर बसर के लिए नाम क्या दूं ;
तुम्हारे शहर के लिए जिनके हाथों ने आबाद की बस्तियां,
वे तरसते रहे एक घर के लिए'
 इस आलेख को आप यहाँ भी पढ़ सकते है !

सादर आपका 


=================================

अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....

उम्र का सोलहवां साल उसने उठाकर आँगन वाले ऊंचे आले में रख दिया था. गले में बस माँ की स्मर्तियों में दर्ज बचपन और स्कूल के रजिस्टर में चढ़ी उम्र पहनी कभी कोई नहीं जान पाया उम्र उस लम्बे इंतजार की जो आँखों में पहनकर ना जाने कितनी सदियों से धरती की परिक्रमा कर रही है एक स्त्री और संचित कर रही है कभी गंगा, कभी वोल्गा, कभी टेम्स नदी का पानी अपने इंतजार की मशक के भीतर उसने कभी जिक्र ही नहीं किया अपनी देह पर पड़े नीले निशानों की उम्र का दुनिया के किसी भी देश की आज़ादी ने किसी भी हुकूमत ने नहीं गिने साल उन नीले निशानों के उन नीले निशानों पर अपनी विजयी पताकाएं ही फहरायी सबने  more »

किसी शोरगर की तरह

कोई आवाज़ न थी। कारीगर और मजदूर बारदानों में शोर और औज़ार एक साथ रख कर अपने घर चले गए थे। वीरानी थी। ज़िंदगी के हाल पर उदास ज़िंदगी थी। दीवारें पूछती थीं कि फिर करोगे मुहब्बत किसी वक़्त के छोटे से टुकड़े के साथ? मैंने कहा कुछ भी कर लूँगा बस रोने की इजाज़त दे दो। फिर बेवजह की बातें कि और कोई सूरत नहीं... उसके कंधे को छूकर आती हवा में मैंने घोल दिये लरज़िश से भरे कुछ टूटे शब्द। एक दिन श्याम रंग के भँवरे के टूट जाएंगे पंख एक दिन गुलाबी फूल से झड़ जाएगी पत्तियाँ। उस दिन से पहले, तुम एक बार फिर मिलना। * * * हसरतों की पगडंडियाँ कितनी सूनी होती है कि एक आदमी को चलना होता है more »

मेरी पहली किताब : : उजले चांद की बेचैनी :

*आदरणीय गुरुजनो और मित्रो . * *नमस्कार ;* * * *आप सभी से अपनी एक खुशखबरी शेयर करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है .* * * *मेरी पहली किताब : जो की एक कविता संग्रह है ; अब छप चुकी है . * *इसका नाम है : उजले चांद की बेचैनी : * * * *इसे बोधि प्रकाशन ने छापा है . ये किताब आपको विश्‍व पुस्‍तक मेला, प्रगति मैदान, नई दिल्‍ली* *दिनांक 4 फरवरी से 10 फरवरी के दौरान ; बोधि प्रकाशन, हॉल नं: 12 बी, स्‍टॉल नं 115 में उपलब्ध रहेंगी * * * *इसके अलावा आप इसे बोधि प्रकाशन से भी मंगवा सकते है . उनका पता है : * *बोधि प्रकाशन, एफ 77, करतारपुरा इंडस्‍ट्रीयल एरिया, बाइस गोदाम, जयपुर 302006  more »

ये आंखें......

रश्मि शर्मा at रूप-अरूप
तेरी याद में जब जी भरकर रो लेती हैं .....ये आंखें कसम से तेरे प्‍यार की तरह खूबसूरत हो जाती हैं......ये आंखे क्‍या तुम्‍हें मालूम है, इन तरसती आंखों का ठि‍काना बावस्‍ता तुमसे ही है मुकर जाओ ये और बात है..... more »

डालियों पे फुदकने से जो मिल गयी

नीरज गोस्वामी at नीरज
मुश्किलों की यही हैं बड़ी मुश्किलें आप जब चाहें कम हों, तभी ये बढ़ें अब कोई दूसरा रास्ता ही नहीं याद तुझको करें और जिंदा रहें बस इसी सोच से, झूठ कायम रहा बोल कर सच भला हम बुरे क्यूँ बनें डालियों पे फुदकने से जो मिल गयी उस ख़ुशी के लिए क्यूँ फलक पर उड़ें हम दरिन्दे नहीं गर हैं इंसान तो आइना देखने से बता क्यूँ डरें ? ज़िन्दगी खूबसूरत बने इस तरह हम कहें तुम सुनो तुम कहो हम सुनें आके हौले से छूलें वो होंठों से गर तो सुरीली मुरलिया से ‘नीरज’ बजें *( गुरुदेव पंकज सुबीर जी की पारखी नज़रों से गुजरी ग़ज़ल ) *

फेसबूक ने पूरे किए 9 साल

शिवम् मिश्रा at बुरा भला
*आज फेसबुक अपना 9वां जन्मदिन माना रहा है| आइये जाने फेसबुक के बारे मे :-* *फेसबुक* *फेसबुक* (अंग्रेज़ी:*Facebook*) इंटरनेट पर स्थित एक निःशुल्क सामाजिक नेटवर्किंग सेवा है, जिसके माध्यम से इसके सदस्य अपने मित्रों, परिवार और परिचितों के साथ संपर्क रख सकते हैं। यह फेसबुक इंकॉ. नामक निजी कंपनी द्वारा संचालित है। इसके प्रयोक्ता नगर, विद्यालय, कार्यस्थल या क्षेत्र के अनुसार गठित किये हुए नेटवर्कों में शामिल हो सकते हैं और आपस में विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। इसका आरंभ २००४ में हार्वर्ड के एक छात्र मार्क ज़ुकरबर्ग ने की थी। तब इसका नाम *द फेसबुक* था। कॉलेज नेटवर्किग जालस्थल के more »

खबरें वही पुरानी

राकेश खंडेलवाल at गीत कलश
*खबरें वही पुरानी लेकर आया है अखबार* *सभी जानते किन्तु न करता कोई भी स्वीकार* * * *वोही किस्सा भारत में सब करें चापलूसी* *झूठी करें प्रशंसा बरतें तनिक न कंजूसी* *लेकर एक कटोरा माँगें द्वारे द्वारे"वाह"* *देख दूसरों की करते हैं अपने मेन में डाह* * * *खुद ही अपनी पीठ ठोकते आये हैं हर बार* * वही पुरानी लेकर आया है अखबार * * * *चार बटोरे अक्षर कहते हैं खुद को ज्ञानी* *कहते वेद रचयिता हैं वो इतने अभिमानी* *खुद का लिखा खुदा न समझे,पथ के अनुयायी* *बिखराते हर एक क्षेत्र में ये केवल स्याही* * * *देख दुराग्रह इनका सारे तर्क गये हैं हार* *खबरें वही पुरानी लेकर आया है अखबार* * * *अपना खेमा अपना भौंपू य... more »

अनदेखी मंजिल

सुमन कपूर 'मीत' at बावरा मन
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *बढ़ते क़दमों को * *रोकने के प्रयास में* *गिरती उठती वो* *कब तक संभाल पायेगी* *हाथों से गिरते * *पलों को * *आस में बंधे * *खाबों को * *कैसे सहेज पाएगी* *आँखों से गिरती* *उम्मीदों को * *धूल में उड़ती * *यादों को * *ये रास्ता ‘अनदेखी मंजिल’ का * *उसे न जाने* *कहाँ ले जायेगा * *क़दमों के निशां रह जायेगें* *कारवां बढ़ता जायेगा !!* *सु-मन *

यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने

हरकीरत ' हीर' at हरकीरत ' हीर'
***पेश है इक ग़ज़ल जिसे सजाने संवारने का काम किया है चरनजीत मान जी ने ...... * *यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने .....* * मेरे दिल के अरमां रहे रात जलते रहे सब करवट पे करवट बदलते * *यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने बहुत रोया है दिल दहलते- दहलते * *लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये **बहल जाएगा दिल बहलते- बहलते* * ** * *तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर **चलें चल कहीं और टहलते -टहलते * * * *अभी इश्क का ये तो पहला कदम है ** अभी जख्म खाने कई चलते-चलते है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते -संभलते** **ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है हुई शाम क्यूँ दिन  more » 
 

'एक सलाम..'

... "रूह मर गयी, आज फिर..चिल्ला-चिल्ला थक गयी आवाज़ की गलियाँ भी.. लफ्ज़ जम गये..दो पल के लिये साँसें थम गयीं.. इक शख्स की खातिर कितना कुछ जी गयी, कितना कुछ मर गया.. पी आई लाखों समंदर, फिर भी दरिया प्यासा रह गया..!! क्या किया तूने, लज्ज़त टूट-टूट रोने लगी..दहाड़ रहीं हैं खामोशियाँ, बेज़ुबां निगाहें.. बेरहम..बेवफ़ा तन्हाई..इक तू ही मेरी अपनी..तेरे पहलू में बेशुमार आँसू दफ़्न हुए होंगे.. तपने दे आँच पे उसकी, मेरी आहें.. सुलगने दे लकीरों के रेले, मिट जाने दे रूमानी फेरे..!!!" ... ---कभी-कभी अजनबी बन जाते हैं खुद से मिलने के सबब.. एक सलाम उनके नाम..
 
अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!!

8 टिप्‍पणियां:

  1. सच है हमें नमक खिलाने वालों को उनके नमक का हक़ भी अदा नहीं करते हम. बेहद सार्थक बुलेटिन.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति ..

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सार्थक बुलेटि‍न..मेरी रचना शामि‍ल करने के लिए आभार..

    जवाब देंहटाएं
  4. लिंक अभी नहीं देख पाया लेकिन नमक की खेती के बारे में अच्छी जानकारी मिली। ..आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. धन्यवाद शिवम मिश्रा जी..!!

    सादर आभार..

    जवाब देंहटाएं

बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!