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मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

प्रतिभाओं की कमी नहीं अवलोकन 2012 (9)



एक एक कदम पर अनगिनत अद्भुत प्रतिभाएं .... मन ने कहा है सबसे 

कठिनाइयों को कागज़ बना .... चलो नाव बनाते हैं 
आंसुओं से बनाये अपने अपने समंदर में चलाते हैं ...
यूँ समंदर तो हमने बखूबी बना लिया है 
मोती बनाये या नहीं 
डुबकी लगा देख लेते हैं 
ख्वाहिशों की मछलियाँ भी हमने बहुत पाली हैं 
सौन्दर्य आत्मसात किया या नहीं 
चलो देख लेते हैं 
लहरों की जिजीविषा में संजीवनी है या नहीं 
जान लेते हैं 
खारे आंसूओं से नमक बना 
स्वस्थ मासूम दोस्ती की शुरुआत करते हैं 
आओ एक दूजे को रौशनी थमाते हैं ....

तो इस रौशनी में देखिये मिलिए = पढ़िए,पर आखिरी मुलाकात मत कहिये 

ये जो है ज़िंदगी...: आखिरी मुलाक़ात(अंकिता चौहान)

देखा था उसे आखिरी बार 
एक नदी के किनारे पर खड़े हुए
एक महानगर में बहती हुयी नदी
अपने अस्तित्व को बचाती
जूझती नदी
जो पहुची थी यहाँ
न जाने कितने पहाड़ों को पार करती 
एक गूंज थी उसमे
जब वो पहुची थी यहाँ कलकल करती हुयी
पर शहर की सडको से गुजरकर
उसकी हवा में साँसे लेकर 
उसका दम घुटने लगा
जो कारवां सागर तक जाना था
वो बीच सफ़र में दम तोड़ने लगा
उसी नदी के किनारे पर
खड़े हुए देखा था उसे आखिरी बार

मैंने जब आगे बढकर
उसके कंधे पर हाथ रखा
चोंक कर देखा था उसने पलटकर
उसकी आँखों में उस मरती हुयी नदी की
छाया बसी थी
जिसे देख कर दहशत सी होने लगी
मेरे कुछ कहने से पहले ही 
वो बोल पड़ी 
तुम्हे यहाँ नहीं आना था
और ये कहते हुए उसकी आँखे 
सुदूर आसमान में
बिखरे बादलों के एक टुकड़े पर जाकर रुक गयी
फिर उसने कुछ कहा
और कहते कहते वो मुझसे दूर चलती गयी
हम दोनों कितने एक जैसे लगते है न
ये नदी और मैं
अपने अंदर सब कुछ समेटते हुए 
बस हम आगे बढते रहे
हम दोनों
पर अब लगता है जैसे
साहस नहीं रहा
ये हवाएं दम क्यूँ घोटने लगी हैं 
हम अब अतीत की छाया बन कर रह गए है
अपने अवसान की ओर अग्रसर हम दोनों 
एक ही अंत की ओर बढ रहे हैं
उसकी आँखों में एक वहशत सी थी
मैंने उसे पुकारा फिर से 
पर वो नहीं रुकी
बस वही सुने थे 
उसके आखिरी शब्द
और आखिरी बार उसे वही देखा था....


द्वापर में यक्ष ने प्रश्न किया
युद्धिष्ठिर से 
और जी उठे कालक्रम में पाण्डव
श्राप मुक्त हो गया यक्ष,



आज समय ने यक्ष से
प्रश्न किया
वत्स!
एक लबालब दूध से भरे पात्र से
एक लबालब भरे दूध के पात्र को
एक लबालब भरे दूध के पात्र में
रिक्त करें,

किन्तु स्मरण रखें
दूध छलके नहीं
दूध ढलके नहीं,
न आप पीयें
न आप गिरायें
न किसी को दें
न ही ढलकायें,
अन्यथा 
परीक्षा का परिणाम
हर युग में एक ही होता है

आज प्रश्न पर
न जाने क्यों?
मौन हो गया यक्ष,

पेड़ की ओट से 
एक बालक 
प्रश्न को सुन रहा था
मन ही मन 
कुछ ताने बुन रहा था

बालक ने झट
यक्ष और समय से 
प्रश्न किया
तात!
एक रिक्त पात्र को
एक दूसरे रिक्त पात्र में डुबाकर
एक अन्य रिक्त पात्र को 
दूध से भरें

स्मरण रखें नियम
द्वापर की भांति 
आज भी जस का तस है 
न कहीं कुछ छलके
न कहीं कुछ ढलके
न किसी से लें
न कोई दे
समय और यक्ष
प्रश्न पर बालक के
आज क्यों मौन हैं?
प्रश्न क्यों अनुत्तरित रह गया?

ज़िन्दगीनामाजंगल(निधि टंडन)

जंगल....

बिलकुल तुम्हारी आँखों जैसे हैं..

मुझे बुलाते हैं बड़ी शिद्दत से.....

ये अपने करीब.


इनमें जाने का भी मन करता है 

डर भी लगता है 

कि,

कहीं....

रास्ता ही न भूल जाऊं मैं 

ताउम्र ,भटकती ही न रह जाऊं मैं .



हमसफ़र शब्द: और अब कैद में है(संध्या आर्य)

वर्षों तक एक ही शब्द के जिस्म में पनाह ले रखी थी 
और बाहर महंगाई काट रही थी अक्षरों को 
पन्नों पर स्याही बिखरने लगा था और हम थे कि 
शुतुर्मुग की तरह  
तुफान न होने की सम्भावाना को बनाये रखने के लिये 
सिर छुपाये बैठे थे 

कहर कुछ इसतरह बरपा था कि 
सम्वेदनायें शाखो से कट कटकर गिर गई थी और 
हम ठूंठ पेड़ को 
समझ बैठे थे अपना घर
पन्नों के हिस्से में थी प्यास जो खाली था  
उसे पढने के लिये ज्ञान की नही 
बल्कि दिल की जरुरत थी  

वह घर जो सफ़र में छूट गया था अकेला 
अब वह किताबों से भरा पड़ा है 
और हम भटक रहें शब्दों के भीड़ में 
उसका मिलना 
किताबो के बीच सूखें फूल की खुशबूओ की तरह है  
जिसे ना कोई किताब 
ना वक्त ही कैद कर पाया 
वह उड़ता रहा हम भटकते रहे 
और अब कैद में हैं
सजे-सँवरे किताबों के बीच !!

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर लिंक्स सहेजे हैं हर कविता बहुत सुन्दर रमाकांत जी की कविता तो बेजोड है………आभार

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  2. प्रत्‍येक रचना अपने आप में बेहद सशक्‍त एवं सार्थक ... सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई
    आभार आपका इस प्रस्‍तुति के लिए
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. शुक्रिया......मेरी कविता को शामिल करने के लिए .बाक़ी कवितायें भी अच्छी लगीं

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया रचनाएँ ....
    रमाकांत जी की रचना वास्तव में लाजवाब है...
    निधि के रूमानी ख़याल सदा ही लुभावने होते हैं..
    अंकिता जी को पहली बार पढ़ा..

    आभार रश्मि दी..
    अनु

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  5. एहसास और विस्वाश यही तो पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा करता है. एहसास का सुन्दर प्रस्तुति
    My latest post me apka swagat

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  6. ..सभी रचनाएँ बेहद सुन्दर है!

    जवाब देंहटाएं
  7. "कठिनाइयों को कागज़ बना .... चलो नाव बनाते हैं
    आंसुओं से बनाये अपने अपने समंदर में चलाते हैं ..."

    वाह ... जय हो दीदी !

    जवाब देंहटाएं
  8. सारे के सारे लिंक्स बहुत ही उम्दा हैं
    :)

    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है  बेतुकी खुशियाँ

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  9. आपकी मिहनत को सलाम!! कैसे कैसे नगीने चुनकर लाती हैं आप!!

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