(पिछले वर्ष के अवलोकन को एक अंतराल के बाद हमने पुस्तक की रूपरेखा दी ..... इस बार भी यही कोशिश होगी . जिनकी रचनाओं का मैं अवलोकन कर रही हूँ , वे यदि अपनी रचना को प्रकाशित नहीं करवाना चाहें तो स्पष्टतः लिख देंगे . एक भी प्रति आपको बिना पुस्तक का मूल्य दिए नहीं दी जाएगी - अतः इस बात को भी ध्यान में रखा जाये ताकि कोई व्यवधान बाद में ना हो )
पर और और और की चाह में
हम असहज हो गए !
छोटे से घर में
कोई समस्या नहीं थी
जितने कमरे बढे जितनी सुविधाएँ बढीं
उतनी ही समस्याओं की बुलंद दीवारें खड़ी हो गयीं ...
समस्या की एक बानगी डॉ मोनिका शर्मा ने प्रस्तुत किया वर्ष के फड़फड़ाते पन्नों पर -
तकनीक ने जीवन को जितना सरल किया है उतना ही उलझाया भी है। यंत्रवत हो चले जीवन से संवेदनाएं कुछ यूं गुम हुई हैं कि हम अपने मन की कहने और अपनों के मन की सुनने के बजाय मात्र एक आभासी उपस्थिति दर्ज करवाने के आदी हो रहे हैं। आपाधपी भरे आज के जीवन में यूँ तो सभी की दिनचर्या व्यस्त है ही । अपने रोजमर्रा के क्रियाकलापों के अलावा मिलने वाले समय में भी अगर घर-परिवार के लोगों में संवादहीनता की स्थिति आ जाये तो संबंधों में साथ रहते हुए भी दूरियाँ अपनी जगह बना ही लेती हैं।
परस्पर संवाद की कमी और एकाकीपन की इस जीवनशैली को बढावा देने में अपनों को छोड़ सारे संसार के साथ बना आभासी संबंध काफी हद तक जिम्मेदार है। जिसके चलते हम सबने अपने वास्तविक परिवेश को छोड़ एक अलग ही दुनिया बसा ली है । जिसके कुछ परिणाम तो हम सबके समक्ष हैं और कई सारे आने वाले समय में हम सबके सामने होंगें । समय के साथ बदलते हुए तकनीक को अपनाना, उसे जीवन में स्थान देना अनुचित नहीं है । लेकिन उपकरणों के मायावी संसार में हमारा अपना मन-मष्तिष्क ही एक उपकरण बन कर रह जाये, यह तो निश्चित रूप विचारणीय है । हमारी इस तकनीकी जीवनशैली ने सबसे ज्यादा पारिवारिक संवाद पर प्रहार किया है । हम मानें या ना मानें आपसी रिश्तों में एक अघोषित अलगाव की स्थिति बन गई है।
जिस तरह ईंट पत्थर से बना मकान तब तक घर नहीं बनता जब तक उसमें बसने वालों की भावनाएं और संवेदनाएं वहां अपना डेरा नहीं जमातीं । ठीक उसी तरह आपसी संवाद के बिना रिश्ते भी नाम भर को रह जाते है । जिनमें ऊपर से सब ठीक ही दिखता है पर भीतर बहुत कुछ अनमना सा, बेठीक सा होता है । आज की तथाकथित आभासी जीवनशैली इसी असमंजस और अलगाव को दिनोंदिन और पोषित कर रही है । तकनीकी संवाद ने परिवार और समाज की सामूहिकता को विखंडित कर हमें संवेदनहीन सा बना दिया है ।
आभासी संसार का बढ़ता समुदाय हमें लोगों से जोड़ रहा है या अपनों से तोड़ रहा है यह समझने का समय किसी के पास नहीं। आस-पड़ौस और रिश्तेदारी का दायरा तो अब पूरी तरह सिमट गया है । जिस तरह हम इस आभासी संसार में खो रहे हैं लगता है कि जल्दी ही विकसित देशों की तरह हमारे यहाँ भी घर के लोगों का आपसी संवाद स्क्रीन की दीवार पर लिखे शब्दों के माध्यम से हुआ करेगा। आगामी पीढियां सामाजिक -पारिवारिक संबंधों के प्रत्यक्ष संवाद से तो अपरिचित ही रहेंगीं । यूँ भी अब हमें प्रत्यक्ष संवाद सुहाता ही कहाँ है ? आभासी संसार वाले कुनबे के सदस्यों की तरह बात हो तो सिर्फ खूबियों की हो । अपनी खामियों के विषय में सुनने और समझने का धैर्य तो हम कब का खो चुके हैं ।
आज के दौर में हमारे पास एक दूसरे को जानने -समझने के जितने साधन बढे हैं उतने ही हम अजनबी हो गए हैं। यकीन मानिये अब तो हम सब स्वयं को भी पहले से कम ही पहचानते हैं ।
पहचानते भी हैं या नहीं
कौन जाने
सन्नाटा इतना बिखरा है
कि खामोशी भी कुछ नहीं कहती ................. हो गई है एक गुल्लक सी ज़िन्दगी मधुरेन्द्र मोहन पाण्डेय की कलम से
आज फिर एक दिन का खर्चा है
आज फिर एक नोट कम होगा।
ज़िंदगी की सुनहरी गुल्लक से
खाली से दिन का बोझ कम होगा।
ऐसे खर्चे है रोज दिन का नोट
हाथों से बस फिसल गया जैसे।
आदतन खूब संभाला उसको,
वक्त का नोट उड़ गया जैसे।
फिर से गुल्लक को लेके हाथों
उम्र का वजन तौलना होगा।
नोट तो रोज़ खर्च होता है
बदले में मिल गए मुझे चिल्लर
शाम को घर पे अपनी गुल्लक में
डाल देता हूं यादों के चिल्लर
और मैं देखता हूं गुल्लक को
आज तो कुछ वजन बढ़ा होगा।
ऐसा ही एक वक्त आएगा
नोट सारे ही खर्च होंगे जब,
सिर्फ यादों के ढेर से सिक्के
मेरी गुल्लक में ही रहेंगे तब
खूब खनकाउंगा मैं वो गुल्लक
उससे सांसों का बोझ कम होगा।
सारे नोटों के खर्च होने पर
सिक्को से भर चुकी हुई गुल्लक।
वक्त की बेरहम सी ठोकर पर
फूट जाएगी सुनहरी गुल्लक।
सारे चिल्लर बिखर से जाएंगे
दोस्तों को भी तजुर्बा होगा।
फूटते ही सुनहरी गुल्लक के
लोग लूटेगें उसकी कुछ बातें,
कुछ की आंखों से अश्क छलकेंगे
कुछ के दिल को मिलेगी सौगातें।
एक गुल्लक मिलेगी मिट्टी में
सबके हाथों में कुछ ना कुछ होगा।
क्या होगा वह कुछ ? रेत सी ज़िन्दगी फिसलने को आतुर और हम तठस्थ हैं आकाश के पार के सत्य से मिलने को ! कुछ ख्वाब,कुछ प्रश्न,कुछ अटकलें आकाश मिश्रा के साथ -
“आकाश” के उस पार ,
कुछ छिपा हुआ सा है शायद ,
चलो घूमकर आते हैं ,
खिलती मुस्कानों के पीछे ,
कुछ दबा हुआ सा है शायद ,
चलो देखकर आते हैं ,
गहरा घुप्प अँधेरा है ,
पर एक किरण झिलमिल सी है ,
उसे उठाकर लाते हैं ,
नफरत तो काफी देख चुके ,
कुछ प्यार बचा है थैली में ,
आओ उसको फैलाते हैं ,
बादलों की ओट में ,
कोई रूठकर बैठा है शायद ,
जाकर उसे मनाते हैं ,
“आकाश” के उस पार ,
चलो घूमकर आते हैं ||............................ ...... इसी काल्पनिक खोज में होती है जिजीविषा, जिसके साथ नया सूरज निकलता है नई संभावनाओं के अनगिनत आयाम लिए ....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचनाएं। एक और अनुपम संग्रह की तयारी की ओर ले जाती पोस्ट पोस्ट .....
जवाब देंहटाएंआपस में तालमेल न होई त चली का!
जवाब देंहटाएंआभासी दुनियाँ न होई त भले चली
आपन दुनियाँ न होई त चली का!
बेहतरीन !!
जवाब देंहटाएंMaza aa raha h ye blog padhne me.. ek hi jegeh kai tereh ki rachnayein mil jati hain,... thank u :)
जवाब देंहटाएंउत्तम चयन ... अनुपम प्रस्तुति ... सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंआभार सहित
सादर
बहुत सुन्दर रचनाएँ दी...
जवाब देंहटाएंआपकी पारखी नज़र का क्या कहना...
मधुरेंद्र जी को पहले कभी पढ़ा नहीं था...
आभार
अनु
बढिया बुलेटिन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाओं का चयन,,,
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति!! इन प्रतिभाओं को पढाना अच्छा लग रहा है!!
जवाब देंहटाएंसच दीदी आप की यह पोस्टें साबित कर देती है कि प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं अपने ब्लॉग जगत मे ... बस उनको परखने वाले लोगो की जरूरत है !
जवाब देंहटाएंस्टेटस अपडेट का दौर , मुझे तो लगता है कि दिन पे दिन इस शेर का मतलब और गहराता जा रहा है -
जवाब देंहटाएं"तुम्हे गैरों से कब फुर्सत , हम अपने गम से कब खाली ,
चलो बस हो चुका मिलना , न हम खाली न तुम खाली |"
डा. मोनिका जी का लेख बहुत सुंदर और वाजिब है साथ ही साथ मधुरेंद्र जी का जिंदगी को देखने का गुल्लक वाला नजरिया अनोखा भी है और खूबसूरत भी |
सादर
सुन्दर रचनाएं
जवाब देंहटाएंगहन अनुभति और विचारनीय विषय पर सुन्दर अभिव्यक्ति --सुन्दर चयन ,बधाई .
जवाब देंहटाएंमेरी नई पोस्ट "पर्यावरण-एक वसीयत " हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों में.