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गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

आज बुलेटिन में पढिए ..नहीं नहीं ..देखिए पोस्टों का ..चित्रहार

 

 

अबे बंद करो ई चैनल सौ ठो , फ़ोड के फ़ेंकों इस रिमोट को यार ,
दिन रात करें हैं ओवर टाईम , मगर दिखा नहीं सकते "चित्रहार "

चित्रहार याद है कि याद दिलाएं हो ....रुकावट के लिए खेद वालों

 

 

तो चलि आज लिए चलते हैं आपको आज की , नहीं नहीं बिल्कुल नहीं , सिर्फ़ आज की तो नहीं हैं , तो कुछ उन पोस्टों की झलकियों का चित्रहार दिखाते हैं जिन पर खाकसार विचरते रहे


 

पूजा के बारे में रश्मि प्रभा जी बहुत खूबसूरत बातें पहले ही कह चुकी हैं और आप जितनी बार भी इनकी पोस्टों को पढेंगे तो यकीनन वो सारी खूबसूरत बातें आपको याद आएंगी । पूजा जब मूड में हों , और लिखने के मूड में हों ..तो फ़िर ..देखिए आप खुद देखिए


लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

मैं ऐसी ही किसी शाम मर जाना चाहती हूँ...मैं दर्द में छटपटाते हुए जाना नहीं चाहती...कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जाना चाहती.
उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.

ये शहर बहुत तनहा कर देने वाला है...यहाँ आसमान से भी तन्हाई ही बरसती है. आज दोपहर बरसातें हुयीं...किताब पढ़ रही थी और अचानक देखा कि बादल घिर आये हैं...थोड़ी देर में बारिश होने लगी...अब एक तरफ मिस्टर सिन्हा और उनके सिगार से निकलता धुआं था...दुनिया को नकार देने के किस्से थे...बेजान किताबें थीं और एक तरफ जिंदगी आसमान से बरस रही थी जैसे किसी ने कहा हो...मेरी जान तुम्हें बांहों में भर कर चूम लेने को जी चाहता है. मैंने हमेशा जिंदगी को किताबों से ऊपर चुना हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता...तो बहुत देर तक बालकनी से बारिशें देखती रही...फिर बर्दाश्त नहीं हुआ...शैम्पू करके गीले बालों में ही घूमने निकल गयी...एक मनपसंद चेक शर्ट खरीदी है अभी परसों...फिरोजी और सफ़ेद के चेक हैं...थोड़ी ओवरसाइज जैसे कोलेज के टाइम पापा की टीशर्ट होती थी.

 

 

अगला खूबसूरत कतरा है कंचन जी का , कंचन सिंह चौहान ..ब्लॉग हृदय गवाक्ष पर वो देखिए क्या कहती हैं

क्यों ना बैसाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी

पिछले वर्ष  लगभग इन्ही दिनों गुरू जी के ब्लॉग पर ग्रीष्म का तरही मुशायरा  हुआ था। वैशाख आया भी और जाने को भी है, तो सोचा लाइये ये मौसमी बयार यहाँ भी चले.....

दोस्त सी आवाज़ देती, गर्मियों की वो दुपहरी,
और रक़ीबों सी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी।
ओढ़ बैजंती के पत्ते, छूने थे जिसको शिखर उस,
ज़िद से करती होड़ सी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।

 

अभिषेक की एक खूबसूरत पोस्ट ..अभिषेक मेरे छोटे बाई जैसा है , और मैं अक्सर उसकी पोस्टों को पढते रहने के बावजूद बुलेटिन में बांचना भूल जाता हूं , अब बडे भाई का कुछ जुलुम तो झेलना ही पडता है , लेकिन बच्चा अखबारीलाल हो गया यानि अभिषेक की पोस्टों की चर्चा अखबारों में है जानकर अच्छा लगा , देखिए आज की पोस्ट

 

वो गर्मियों के दिन..मेरा बचपन और गुलज़ार

दिल्ली में हूँ और गर्मियां शुरू हो गयी है...कई सालों बाद मैं उत्तर भारत की गर्मी को अनुभव कर रहा हूँ..पिछले आठ-नौ सालों से कर्नाटक में रहने के कारण उत्तर भारत की गर्मियों से पाला ही नहीं पड़ा.वैसे कर्नाटक में भी गर्मी अच्छी खासी पड़ती है, लेकिन इधर से बिलकुल अलग.वैसे मुझे गर्मियों से कोई खास प्यार नहीं है, और ना तो कोई खास नफरत लेकिन गर्मियों के मौसम में अपने बचपन के बिताए दिनों की याद आती है.थोड़ा नॉस्टैल्जिक सा मौसम होता है ये मेरे लिए.गर्मियों की याद सिर्फ और सिर्फ मेरे बचपन की ही है, क्यूंकि पटना से बाहर जाने के बाद शायद ही ऐसी कोई गर्मियों के दिन हों जिसका जिक्र यहाँ किया जा सके.

बचपन के गर्मियों की बात ही कुछ और थी, वो बात अब कहाँ..गर्मियों की सुनसान दोपहर में स्कूल से आने के बाद हम लोग कान लगाये रहते थे की कब आईस-क्रीम वाले की आवाज़ सुनाई दे..और फिर जैसे ही दोपहर या शाम को गली से आईस-क्रीम वाले की 'ढप-ढप' या आवाज़ सुनाई देती तो बस हमारे अंदर आईस-क्रीम खाने की इच्छा कुलबुलाने लगती और घरवालों से कितना रिक्वेस्ट वैगरह करने के बाद हमारी आइसक्रीम खाने की ईच्छा पूरी होती थी..उन्ही दिनों एक नयी तरह की आईसक्रीम(कुल्फी)पटना में बिकनी शुरू हुई(या शायद पहले से बिकती हो),मटका-कुल्फी.ये हम बच्चों के लिए एकदम नये तरह का आईसक्रीम था(हमने कभी इसे कुल्फी कहा ही नहीं बल्कि हमेशा पीला वाला आइसक्रीम ही कहा).कुल्फी वाले भैया अपने ठेला से कुल्फी निकालते जो की एक ग्लास जैसे बर्तन में रहता और फिर चाक़ू से उसे चार भाग में काट कर एक स्टिक लगा कर चार अलग कुलफियां निकालते.हम ये सब उन दिनों बड़े हैरत से देखते और बड़ा अच्छा लगता था इस तरह से कुल्फी को काट कर निकलते देखना. मटका-कुल्फी के आने से हमारी आईसक्रीम खाने की रिक्वेस्ट जल्दी पूरी हो जाती थी, क्यूंकि घरवाले भी जो खाते थे मटका-कुल्फी.वैसे हमारी रिक्वेस्ट को घरवाले कभी कभी ये समझा कर टाल भी देते थे की ज्यादा आईस-क्रीम खाना सेहत के लिए अच्छा नहीं.हम तो बच्चे थे, बड़ों की चिकनी चुपड़ी बातों में आसानी से आ जाते थे.उस समय ये सोचते थे की जब बड़े होंगे तो आईस-क्रीम खाने के लिए कम से कम इतना रिक्वेस्ट तो किसी से नहीं करना पड़ेगा..और अब देखिये की जब कभी भी, कहीं भी आईस-क्रीम खा सकते हैं, तो वो बचपन याद आता है जब आईसक्रीम खाने के लिए कितनी मिन्नतें और नाटक करनी पड़ती थी.

 

 

नहीं मंजिलों में है दिलकशी, मुझे फिर सफर की तलाश है...

नहीं मंजिलों में है दिलकशी...न, बिलकुल नहीं ! मोबाइल के उस पार  दूर गाँव से माँ की हिचकियों में लिपटे आँसू भी कहाँ इस दिलकशी को कोई मोड दे पाते हैं| क्यों जा रहे हो फिर से? अभी तो आए हो?? सबको ढाई-तीन साल के बाद वापस जाना होता है, तुम्हें ही क्यों ये चार महीने बाद ही??? रोज उठते इन सवालों का जवाब दे पाना कश्मीर के उन सीधे-खड़े पहाड़ों पे दिन-दिन रात-रात ठिठुरते हुये गुजारने से कहीं ज्यादा मुश्किल जान पड़ता है|
...  छुटकी तनया के जैसा ही जो सबको समझाना आसान होता कि पीटर तो अभी अपना दूर वाला ऑफिस जा रहा है| बस जल्दी आपस आ जायेगा| देर से आने वालों के लिये,  तनया चार साल की हुई है और पीटर पार्कर उसका पापा है और वो अपने पापा की मे डे पार्कर :-)
....बाहर पोर्टिको में झाँकती बालकोनी के ऊपर अपनी मम्मी की गोद में बैठी आज समय से पहले जग कर वो अहले-सुबह अपने पीटर को बाय करती है और दिन ढ़ले फोन पर उसकी मम्मी सूचना देती है कि शाम को पार्क में झूला झूलने जाने से पहले वो दरियाफ़्त कर रही थी कि पीटर आज ऑफिस से अभी तक क्यों नहीं आया| समय कैसे बदल जाता हैं ना...मोबाइल के उस पार वाली माँ की हिचकियाँ पीटर को उतना तंग नहीं करतीं, जितना मे डे का ये मासूम सा सवाल और हर बार की तरह पीटर इस बार भी सचमुच का स्पाइडर मैन बन जाना चाहता है कि अपनी ऊंगालियों से निकलते स्पाइडर-वेब पे झूलता वो त्वरित गति से कभी मम्मी की हिचकियों को दिलासा दे सके तो कभी वक़्त पे ऑफिस से वापस आना दिखा सके मे डे को ...कि उसे प्रकाश सहित व्याख्या न देना पड़े खुल कर उसके अपने ही उसूल का:- विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी

 

 

1988 की एक कविता

1988 मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण वर्ष है , इस साल मेरा विवाह हुआ था और मुझे घर की पकी - पकाई रोटी मिलने लगी थी । कुछ प्रेम कवितायें भी लिखीं इस साल और शिल्प और कथ्य में भी कुछ परिवर्तन हुआ । प्रस्तुत है उस समय की यह एक कविता ।

रोटी की गन्ध

ओसारे में बैठकर

मैं जब लिख रहा होता हूँ कोई कविता

झाँककर देखता हूँ

यादों की खपच्चियों से बना

अनुभूतियों का पिटारा

संवेदनाएँ बचाना चाहती हैं

मस्तिष्क को अनचाही फांस से

लेकिन उंगलियों से टटोलकर

बिम्ब ढूँढना तो सम्भव नहीं

 

 

गई नहीं महंगाई

महंगाई के आगे घुटने टेक चुकी है यू.पी.ए सरकार मुद्रास्फीति के आंकड़ों में अपनी विफलता छुपाने की कोशिश कर रही है

महंगाई और मुद्रास्फीति के आंकड़ों की लीला अद्दभुत है. इस लीला के कारण यह संभव है कि मुद्रास्फीति की दर कम हो लेकिन आप महंगाई की मार से त्रस्त हों. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार दावे कर रही है कि महंगाई काबू में आ गई है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर धीरे-धीरे नीचे आ रही है.
सरकार के मुताबिक, थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च महीने में सात फीसदी से भी नीचे ६.४३ प्रतिशत पर पहुँच गई है. लेकिन इन दावों के विपरीत आम आदमी को आसमान छूती महंगाई से कोई राहत नहीं मिली है. उल्टे पिछले कुछ सप्ताहों में खाद्य वस्तुओं खासकर फलों-सब्जियों से लेकर दूध तक की कीमत में जबरदस्त उछाल के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया है.

 

 

तेरी आहट की धूप आती नहीं है
मेरे घर में न होगी रौशनी क्या
नहीं आओगे इस जानिब कभी क्या?
उदासी एक तो तुहफ़ा है उसका
मसल देगा समय ये पंखुड़ी क्या?
चहकती बोलती आँखों में चुप्पी
इन्हें चुभने लगी मेरी कमी क्या ?

 

 

वर्तमान आरक्षण व्यवस्था: एक विखंडनकारी अवधारणा

भारतीय संविधान के निर्माण के पश्चात अगले दस वर्षो तक आरक्षण की व्यवस्था इसलिये की गयी थी कि जो हजारो वर्षो दबे कुचले थे उन्हे उनकी जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व दिया जा सके. आरक्षण की इस मूल भावना से कोई भी इंकार नही करता. किंतु यदि ध्यान से देखा जाय तो सबसे बडी समस्या जो उभर कर सामने आती है वह इन दबे कुचले और शोषित वर्गो को पहचानने मे आती है.हजारो वर्षो से शोषित और दमित कौन है?जब हमारे संविधान निर्माता इस प्रश्न से दो चार हुये तो उन्होने इसके उत्तर मे भारतीय जाति व्यवस्था को ही आधार मान लिया और इस प्रकार आरक्षण को जाति व्यव्स्था के सहारे लागू करने का प्रयास किया गया. इस क्रम मे हमारे नीति निर्माता यह भूल गये कि इस तरह जाति व्यवस्था और भी मजबूत होकर सामने आयेगी. और ऐसा हुआ भी. जातिवाद का जो घृणित रूप आज हम 21 वी शताब्दी मे देख रहे है शायद गत 30 से 40 वर्ष पूर्व न था. आरक्षण व्यवस्था सकारात्मक भेदभाव की प्रक्रिया को गति देने के लिये एवम सामाजिक पिछडापन दूर करने के लिये लागू की गयी थी किंतु मूल प्रश्न कि दमित कौन है की अनदेखी बार बार हमारे नीतिकार जानबूझकर लोभ लालच के चलते करते रहे. अगर जाति को पिछडेपन का आधार माना जाय तो स्वयम शाहूजी जिनको आरक्षण की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है, सत्ता मे क्यो आते? ये सभी महापुरुष अपने पराक्रम और शौर्यता की वजह से उच्चतम शिखर तक पहुचे. ऐसे ही सैकडो उदाहरणो से इतिहास भरा पडा है. चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर शिवाजी तक हमे सत्ता मे तथाकथित पिछडो की भागीदारी देखने को मिलती है.

 

 

कातिल न समझो

जिनके लिए हमने छोड़ी थी दुनिया
दुनिया से ही हमको  आज मिटा बैठे

लुट तो चुके थे हम, कुछ भी न बचा था

पर ढूंढ़ कर बचा वो फिर भी चुरा बैठे  

उनका तो वादा था, जन्मो जन्म तक का

अगला न देखा पर, वो आज का मिटा बैठे

हम मिट गये तो क्या, हाथों से उन्ही के

आखिरी सांस जो निकली गोदी में जा बैठे

 

"ये हैं बॉम्बे मेरी जान "

चलिए आज आपको घुमाती हूँ मुंबई के नजदीक 'विरार ' लोकल स्टेशन पर बना नया वंडरफुल पार्क  :---

यजु पार्क

यजु पार्क में मैं

 

 

Wednesday 25 April 2012

सैक्स-सीडी और जनता-इश्क

सेक्स (करना) सभी एकलिंगी जीवधारियों का स्वाभाविक कृत्य है और बच्चों की पैदाइश सेक्स का स्वाभाविक परिणाम। जब भी स्वाभाविक परिणाम को रोकने की कोशिश की जाती है तो अस्वाभाविक परिणाम सामने आने लगते हैं। बच्चों की पैदाइश रोकी जाती है तो सीडी पैदा हो जाती हैं। बच्चों को पैदा होते ही माँ की गोद मिलती है। लेकिन जब सीडी पैदा होती है तो उसे सीधे किसी अखबार या वेब पोर्टल का दफ्तर मिलता है। अदालत की शरण जा कर उसे रुकवाओ तो वह यू-ट्यूब पर नजर आने लगती है, वहाँ रोको तो फेसबुक पर और वहाँ भी रोको तो उस की टोरेंट फाइल बन जाती है। आराम से डाउनलोड हो कर सीधे कंप्यूटरों में उतर जाती है। रिसर्च का नतीजा ये निकला कि सेक्स के परिणाम को रोकने का कोई तरीका नहीं, वह अवश्यंभावी है।

 

 

सफ़र ...

हे 'खुदा', जो आलम, तूने

कदम कदम पे

दिखाया है मुझको !

किसी और को, मत दिखाना

 

तुम न होगी तो....

आज सुबह अचानक किताबों के पन्ने पलटते हुए  मेरी निगाह अपने एक ऐसे मित्र की रचनाओं पर पडी, जिसे पढ़ते हुए मैं खो गया पुरानी स्मृतियों में । मेरे ये बुजुर्ग मित्र नवगीत के स्थापित हस्ताक्षर हैं । नाम है हृदयेश्वर । सीतामढ़ी में साथ-साथ रहते हुए 1991 से 1994 तक मुझे इनके सान्निध्य का सुख प्राप्त हुआ। फिर एक दिन अचानक इनका स्थानान्तरण हाजीपुर हो गया और उसके कुछ महीनों बाद मैं भी वाराणसी आ गया । फिर उनसे मुलाक़ात नहीं हुयी । ‘आँगन के ईच-बीच’, ‘बस्ते में भूगोल’ व ‘धाह देती धूप’ (गीत संग्रह) तथा ‘मुंडेर पर सूरज’ (काव्य संग्रह) इनकी प्रकाशित कृतियाँ है । बिहार सरकार के प्रतिष्ठित राजभाषा सम्मान से ये सम्मानित भी हो चुके हैं । आज मैं उनका एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मुझे बहुत पसंद है : रवीन्द्र प्रभात

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तुम न होगी तो....
मैं सुबह के चाँद का एहसास लेकर क्या करूंगा
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा


हो तरल कुछ तो
जिसे मन-प्राण-कंठों में उतारें
धुप की संवेदना
जल की मछलियों को दुलारे

 

 

आज के लिए इतना ही ….





.रुकावट के लिए खेद है

11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह एकदम झा जी स्टाइल की बुलेटिन ( चित्रहार ).मजा आ गया.

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  2. नाम के अनुरूप बुलेटिन --- और लिंक्स चयन

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  3. चित्रहार का पूरा आनन्द आया इसमें तो..

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  4. वाह! वाह! वाह! क्या बात? क्या बात? क्या बात?

    ज़बरदस्त जी... ज़बरदस्त!

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  5. बुधवार और शुक्रवार को चित्रहार देखने को मिलता था .... आप वृहस्पतिवार को चित्रहार दिखला , छा गए ..... !!!

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  6. जय हो महाराज ... खूब बढ़िया चित्रहार दिखाये जी ... बिलकुल रंगीन टीवी वाला ... मान गए भई आपको ... जय हो !

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