जैसा कि आप सब से हमारा वादा है ... हम आप के लिए कुछ न कुछ नया लाते रहेंगे ... उसी वादे को निभाते हुए हम एक नयी श्रृंखला शुरू कर रहे है जिस के अंतर्गत हर बार किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको बताया जायेगा ... जिसे हम कहते है ... एकल ब्लॉग चर्चा ... उस ब्लॉग की शुरुआत से ले कर अब तक की पोस्टो के आधार पर आपसे उस ब्लॉग और उस ब्लॉगर का परिचय हम अपने ही अंदाज़ में करवाएँगे !
आशा है आपको यह प्रयास पसंद आएगा !
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आज मिलिए गिरिजेश राव जी से ...
http://girijeshrao.blogspot. com/ यानि एक आलसी का चिट्ठा ! अब आलसी के तेवर देखिये 2008 से ...http://girijeshrao. blogspot.com/2008/11/blog- post.html कोई कहेगा क्या आलसी का चिट्ठा ? इस चिट्ठे के मालिक हैं गिरिजेश राव जी .
आप सब इन्हें जानते होंगे , मैंने अभी अभी जाना और जाना क्या , लगा जैसे एक और मोती मिला ... ऐसे वक़्त बरबस कबीर की ये पंक्तियाँ याद आ जाती हैं - " जिन ढूँढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ
जो बौरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ "
और मैं बिना डरे अपनी यात्रा करती हूँ . नहीं जानती मैं गिरिजेश जी को , पर ... जब वे लिखते हैं ,
" पुरानी डायरी से - 9: शीर्षकहीन
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आज डायरी खँगालते यह कविता दिखी - विरोधाभास उलटबाँसी सी लिए। तेवर और लिखावट से लगा कि अपेक्षाकृत नई है।
कब रचा याद नहीं आ रहा। सन्दर्भ /प्रसंग भी नहीं याद आ रहे। चूँ कि पुरानी डायरी का सम कविताएँ और कवि भी . . पर
पूरा हो चुका था इसलिए यहाँ विषम प्रस्तुति करनी ही थी, सो कर रहा हूँ। एक संशोधन भी किया है।
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अधिकार ही नहीं यह कर्तव्य भी है
कि ऊँचाइयों में रहने वाले
दूसरों नीचों के आँगन में झाँकें।
ऊँचाइयाँ तभी बढ़ेंगी
और झाँकने की जरूरत समाप्त होगी।
पर कोई झाँकता नहीं।
ऊँचाई पर रहने वाला
एयरकण्डीसंड फ्लैट में बन्द है।
पुरुवा के झोंके भी तो
मशीन से आते हैं।
ऊँचाई कैसे खत्म होगी ? " तो कैसे कहूँ कि भावों के इस महारथी को मैं नहीं जानती ...
http://girijeshrao.blogspot.in/2010/12/he-is-dead.html जब इस वार्ता के द्वारा लेखक जीवन का सत्य खुद उजागर करते हैं , बातों के दरम्यान राष्ट्र कवि की गरिमा को भी एक उंचाई पर बताते हैं , धिक्कारते हैं अनभिज्ञता को ... तो मैं शब्दों के भवसागर में घिरी कैसे कहूँ , नहीं जानती मैं गिरिजेश राव जी को !
अक्षर अक्षर में इस शिलालेख को पढ़िए -
" शिलालेखों में अक्षर नहीं होते।
राजोद्यान में घूमते घूमते एक दिन राजकुमारी को बाहरी संसार देखने का मन हुआ और उसने रथ को गाँवों की ओर चला दिया। चलते चलते उसके कानों में वेणु के स्वर पड़े। वह मोहित सी उसे बजाते चरवाहे के पास बैठ कर सुनती रही। आसपास का समूचा संसार भी चुप हो उन दोनों को देखता सुनता रहा। प्रेम का प्रस्फुटन कभी कभी ही तो दिख पाता है! चरवाहे ने जब वादन समाप्त किया तो गायें घर की ओर दौड़ पड़ीं और उड़ती हुई धूल के पीछे लाज से लाल हुआ कोई छिप गया।
राजकुमारी ने चरवाहे को राजोद्यान में निमंत्रित किया। चरवाहा बोला – ना बाबा ना! वहाँ तो प्रहरी होंगे। मेरे स्वर भयग्रस्त हो जायेंगे। वेणु ठीक से नहीं बजेगी।
राजकुमारी ने कहा – वहाँ प्रहरी नहीं होते। महल के प्रहरियों से मुझे भय लगता है इसलिये पिता से कह कर उद्यान को प्रहरियों से मुक्त रखा है।
चरवाहा हँसा – विचित्र बात है! वहाँ राजकुमारी के भय से प्रजाजन नहीं जाते और राजकुमारी वहाँ इसलिये जाती है कि उसे महल के प्रहरियों से भय लगता है। विचित्र बात है!
अगले दिन चरवाहा उद्यान में पहुँचा। वहाँ सचमुच प्रहरी नहीं थे। चरवाहा वहाँ की शोभा देख मुग्ध हुआ और फिर कुछ कमी को जानकर उदास भी। वहाँ कुछ अतिरिक्त भी था जिसके कारण स्वाभाविकता दूर भागती थी। दोनों एक पत्थर पर खिले हुये फूलों के बीच बैठ गये। चरवाहा वेणु बजाने ही वाला था कि उसे फूल तोड़ती मालिन दिखाई दी। यह सोच कर कि अदृश्य ईश्वर के बजाय फूल को राज्य की सबसे दर्शनीय बाला को अर्पित होना चाहिये, चरवाहे ने सबसे सुन्दर फूल लोढ़ लिया और उसे राजकुमारी को दे कर वेणु बजाना प्रारम्भ किया।
उसके स्वरों में रँभाती गायें थीं, इठलाते कूदते बछड़े थे, मित्रों की आपसी छेड़छाड़ थी, लड़ाइयाँ थीं, पास के खेतों में की गई चोरियाँ थीं और कँटीले पेड़ों को दी गई गालियाँ भी थीं। बरसता भादो था, तपता जेठ था और फागुनी हवायें भी थीं। राजकन्या और मुग्ध हो गई। स्वाभाविकता आने लगी और वह कुछ अतिरिक्त जाने को हुआ कि मालिन को सुध आई। वह भागते हुये महल में गई और राजा को सब कुछ कह सुनाया। महल से भय चल पड़ा। अनजान राजकुमारी मुग्ध सी वेणु सुनती रही और चरवाहा नये सुरों से हवा को भरता रहा। उदासी दूर होती रही कि भय आ पहुँचा।
प्रहरियों ने चरवाहे को राजा के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने सब कुछ सुन कर उसे दण्डाधिकारी को सौंप दिया। दण्डाधिकारी ने पूरा विधिशास्त्र ढूँढ़ डाला लेकिन न अपराध की पहचान हुई और न दण्ड की। अचानक ही उसकी दृष्टि विधिशास्त्र के अंतिम अनुच्छेद पर पड़ी और वह मुस्कुरा उठा।
“तुमने फूल तोड़ कर सुन्दरता को भंग किया है, राजकुमारी के दिव्य सौन्दर्य को भ्रमित किया है, भयग्रस्त किया है और राज्य के अनुशासन को तोड़ा है। यह राजद्रोह है, जिसका दण्ड बीस वर्षों का सश्रम कारावास है।“
चरवाहे ने कहा – आप की बातों में सच कितना है यह तो आप को भी पता है लेकिन मुझे भयग्रस्त करने के आरोप पर आपत्ति है। उसकी एक न सुनी गई और कारागार में बन्दी बना दिया गया।
कारागार पहाड़ियों में बना था और जिस क्षेत्र में चरवाहे को पत्थर तोड़ने का काम सौंपा गया था वहाँ दूजी वनस्पतियाँ क्या घास तक नहीं थी। चरवाहे की वेणु राजकोषागार में जमा थी। उसने उसे पाने के लिये मिन्नतें कीं तो उसका अनुरोध राजा तक पहुँचाया गया। राजा मान गया लेकिन दण्डाधिकारी ने कहा कि उसके वेणुवादन से वहाँ हरियाली फैलने का भय है, चिड़ियाँ चहकने का भय है और पत्थर के पिघलने का भय है; इसलिये नहीं दी जा सकती।
राजा पुत्री की स्थिति से पहले ही बहुत निर्बल हो चुका था, दु:खी था – कुछ कर न सका। चरवाहा पत्थर तोड़ने लगा। जब थकता तो राजकुमारी को याद करता और आँसू बहाता। एक दिन उसने देखा कि जहाँ प्रतिदिन बैठकर वह आँसू टपकाता था, वहाँ की भूमि पर दूब उग आई है। उसने बिना वेणु के संगीत का अनुभव किया और मारे प्रसन्नता के नाच उठा।
अगले दिनों में पत्थर तोड़ तोड़ कर उसने एक सोता ढूँढ़ निकाला। फिर क्या था! हरियाली फैलने लगी, पत्थर पिघलने लगे और कुछ वर्षों में ही किशोर पेड़ों पर चिड़ियाँ भी चहकने लगीं। बन्दीगृहप्रमुख पत्थरों से ऊब चुका था। उसने दूर राजधानी तक यह समाचार पहुँचने नहीं दिया। कर्मचारियों को दिखाने के लिये चरवाहे पर श्रमभार बढ़ाता रहा। चरवाहा हरियाली फैलाता रहा और अपनी वेणु के लिये उपयुक्त सरकंडा ढूँढ़ता रहा। जिस दिन उसे वह सरकंडा मिला उसी दिन बीस वर्ष पूरे हुये और उसे मुक्त कर दिया गया। कारागार से बाहर आते उसे सबने देखा और पाया कि चरवाहे के चिर युवा चेहरे पर पत्थर की अनेक लकीरें गहराई तक जम चुकी थीं, वह दुबला हो गया था लेकिन उसके होठ भर आये थे। कुछ ने इसे कारागार की यातना के कारण बताया तो कुछ ने वेणु न बजा पाने के कारण बताया।
दण्डाधिकारी ने उसे कुटिल मुस्कुराहट के साथ बताया – वेणु को दीमक चट कर गये। इस बार चरवाहे ने कोई आपत्ति नहीं जताई और प्रणाम कर उद्यान की ओर चल पड़ा।
उद्यान उजड़ गया था। चारो ओर कँटीली झाड़ियाँ फैल गई थीं। एक आह भर कर उसने उद्यान में कुछ ढूँढ़ना शुरू किया और पुराने स्थान पर पहुँच कर ठिठक गया। राजकुमारी पत्थर की प्रतिमा बनी बैठी थी। उसकी आँखें भर आईं। उसने देखा कि राजकुमारी के हाथ में फूल अभी भी था और वह कुम्हलाया नहीं था। गमछे में जुगनू सहेज चाँदनी में चरवाहा रात भर सरकंडे को भाँति भाँति विधियों से पत्थर पर घिसता रहा।
प्रात हुई और वेणु के स्वर उजड़े उद्यान में गूँज उठे। जहाँ तक स्वर पहुँचे, सब कुछ स्तब्ध हो गया, थम गया। उस प्रात चिड़ियाँ नहीं चहकीं, फूल नहीं खिले, भौंरे नहीं गुनगुनाये। जब स्वर थमे तब चरवाहा घूमा और राजकुमारी जीवित हो उठी। दोनों आलिंगन में कसे और फिर गाँव की ओर भाग पड़े।
राजा ने यह सब सुना और बहुत पछताया। उसने दूर दूर तक अपने प्रहरी दौड़ाये लेकिन उनका पता नहीं चला।
राजा ने समूचे विधिशास्त्र को निरस्त कर दिया। दण्डाधिकारी को प्रस्तर कारागार भेज दिया लेकिन यह सूचना मिलने पर कि वहाँ तोड़ने के लिये पत्थर बचे ही नहीं थे, उसे सोते ढूँढ़ने के काम पर लगा दिया। राजा ने पूरे राज्य में बड़े बड़े शिलालेख लगवाये जिन पर केवल यह लिखा था – प्रेम।
कुछ नासमझ लोग आज भी यह कहते हैं कि सोतों के खलखल कुछ नहीं, दण्डाधिकारी के पछ्तावे हैं और प्रात:काल चिड़ियों की चहचह कुछ नहीं, शिलालेखों को पढ़ने के बाद चरवाहे और राजकुमारी की खिलखिलाहटें हैं। चरवाहे के चेहरे की लकीरें हर पत्थर पर हैं जो उन्हें तोड़ने की राह देती हैं और शिलालेखों में अक्षर नहीं होते। "
पढ़ा न ? मेरी स्थिति समझ गए न -
http://girijeshrao.blogspot.in/2011/12/blog-post.html एक अनंत यात्रा है साल दर साल की . नया वर्ष भी अछूता नहीं एहसासों की आहटों से ...
आपमें से कितनों ने पढ़ा भी होगा http://girijeshrao.blogspot.in/2012/01/blog-post_30.html , जिन्होंने नहीं पढ़ा हो वे अवश्य पढ़ें ' मंगल उवाच ' खुद जान जायेंगे कि मेरा परिचय लेखक से है , और असली परिचय भी तो यही होता है न ?
Girijesh Rao ko janna giri ko janna hai
जवाब देंहटाएंGiri ke man me behad mylayam bhawna hai.
गिरिजेश जी से परिचय कराने के लिए बहुत२ आभार,....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
NEW POST....
...काव्यान्जलि ...: बोतल का दूध...
...फुहार....: कितने हसीन है आप.....
प्रेम के संगीत में इतना डुबी ,कि कुछ याद ही नहीं रहा , क्या लिखूं , गिरिजेश जी का लिखना उत्तम है ,या आपका ,उनका परिचय देना.... ?? उनका "आलसी का चिट्ठा" हो सकता है.... !! वे, आलसी तो नहीं लगे.... !!परिचय कराने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.... :):)
जवाब देंहटाएंगिरिजेश भाई के बारे में जानकार अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी को पढ़ना हर बार नयापन दे जाता है, विचारों को गहरे से खोद लाने के महारथी है गिरिजेश जी...
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लोगिंग के एलीट ब्लोगर
जवाब देंहटाएंइस परिचय के लिए बहुत बहुत आभार रश्मि दीदी !
जवाब देंहटाएंगिरिजेश भाई का परिचय पाकर अच्छा लगा... सशक्त अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार रश्मि दीदी आपका...
मुझे भी फख्र है की मैं इन्हें पढ़ती हूँ |
जवाब देंहटाएंआपका बहुत आभार रश्मि जी
एक सकारात्मक पहल और रचनात्मक प्रयास
जवाब देंहटाएंसादर।
गिरिजेश जी का परिचय पाकर अच्छा लगा …………आभार्।
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी की कहानियां, आलेख, कवितायें, विचार और दर्शन समय से आगे के हैं... शायद इसी कारण ये आलसी कहते हैं स्वयं को.. इनका आलस्य समाधि का प्रतीक है... ऐसी समाधि बड़े ताप से प्राप्त होती है.. और समझौते से तो कतई नहीं..
जवाब देंहटाएंमैंने इनकी एक कहानी का पॉडकास्ट किया था.. वो इस महान चिन्तक के प्रति मेरा स्नेह प्रदर्शन था..
आपने यहाँ इनको स्थान देकर जो महति कार्य किया है, वह प्रशंसनीय है!!
गिरिजेश जी की अबाध लेखनी अपने साथ बहा ले जाती है.उन्हें कवि कहें ,चिन्तक कहें, समय का पहरुआ या और कुछ भी !अक्सर ही भाषा और भाव-गत एक विचित्र सा औघड़पन उन्हें कुछ अलग ही खड़ा कर देता है .
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी से मिल कर अच्छा लगा ..आभार..
जवाब देंहटाएंगिरिजेश राव जी ke parichay ke saath hi unki rachnadharmita ka sundar dhang se preshan bahut achha laga..
जवाब देंहटाएंSundar Prastuti hetu aapka aabhar!
हम तो पहिले ही फिदा थे...
जवाब देंहटाएंमेरी स्थिति समझ गए न -
जवाब देंहटाएंहम्म
सलिल जी से अक्षरशः सहमत।
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी का सम्मोहन कम न होता है, न होना चाहिए।