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रविवार, 23 अक्टूबर 2016

ब्लॉग - जो अब बंद हैं - 6




कुछ पाने की ख्वाहिश में
कितना कुछ हम पीछे छोड़ आये
क्या सच में हम इतना आगे चले आये
कि मुड़कर देखना मुनासिब नहीं लगा !!!
जाने कितने ख्याल मथते हैं ठहरे पानी के आगे
क्या सच में बाधा थी ?
या हमने बहने नहीं दिया ?
या  ...
काश, कभी पूछा होता,
मित्र ठहर क्यूँ गए !
कुछ तो सुगबुगाता एहसासों का सफर





3 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

फिर से शुरु होंगे
जागेंगी सोई हुई
सुबहें जरूर
मेंहनत रंग लायेगी
चुप चुप हो
रही गौरइया
चहचायेंगी
फिर से।

सुन्दर ।

Rohitas Ghorela ने कहा…

चलते चलते यूँ ठहर के भूले बिसरे अहसासों को हरा करना...

बहुत लाजवाब पोस्ट


 रू-ब-रू

कविता रावत ने कहा…

खोजबीन जारी है ...
सार्थक बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!

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