मैं बस इतना जानती हूँ कि जो सरगम में जीते हैं , वे धुन पर खींचे चले आते हैं , ' वाह ' उनके रोम रोम से टपकता है . यानि जिसकी जिसमें रूचि है -
वह उसके आगे खींचा चला आता है - जैसे हम खुद को लिखते हैं , जीते हैं तो पढ़ना भी हमारी जीवनदायिनी खुराक है , और दवा वही असर करती है ,
जो बीमारी के अनुरूप हो .
प्रकृति , ख़ामोशी , बारिश , प्रेम , विरह ..... इन सबको हम अनुभव करते हैं , एक संवेदनशील रिश्ता जोड़ उन्हें अनुभव के आधार पर शब्दों में पिरोते हैं -
कहानीकार , कवि .... बन जाते हैं . कई बार भावनाएं उमड़ती घुमड़ती रह जाती हैं , और उस अनकहे को हम कहीं और पाते हैं और उसे पाकर खुद को पा
लेते हैं ..... यूँ भी लिखने के साथ पढ़ने का शौक न हुआ तो लिखने में वह बात नहीं आती . अध्ययन ज़रूरी है - और यादों की खुरचनों के माध्यम से मैं एक
बेहतरीन सामग्री देती हूँ .
वक़्त लगता है पर सुकून मिलता है , तो पूरे वक़्त के साथ आप इस सुकून का लाभ उठायें -
जो क्रम चला सतयुग,द्वापर,कलयुग का
तो क्रम जारी है
फिर सतयुग की बारी है.
सत्य कभी मरता नहीं
अतीत के गह्वर में टिकता नहीं...
मही डोलेगी,गगन डोलेगा
काल विनाश के लिए
हरि का जन्म होगा...
आत्मा का नाश नहीं
आत्मा अमर है
कहा था श्री कृष्ण ने...
तो कृष्ण की आत्मा हमारे पास ही है
सृष्टि के आरंभ से आज तक
प्रभु हमारे साथ ही हैं
हवाओं में उनका स्पर्श है
मौन में आशीष है
गर है यह सत्य
"जब जब धर्म का नाश होता है मैं अवतार लेता हूँ"
तो निश्चय ही
प्रभु का जन्म होगा
हमें डूबने से बचाने को
अन्याय के विरोध में
साई मार्ग बताने को
हरि का जन्म होगा
मही डोलेगी गगन डोलेगा
हरि का जन्म होगा
........ सबकी अपनी सोच , अपनी चाह .... हर आवरण को भेदती उड़ान -
" मैं नहीं जानती कि
अभी इसी वक्त
जबकि मैं बैठी हूं अपनी बालकनी में
ठंडी गुनगुनी सुबह में
गरम-गरम चाय के प्याले के साथ
सामने के खूबसूरत पेड़ों की
फुनगियों को देखते हुए
ठीक अभी इसी वक्त
कहीं क्या हो रहा होगा
शायद कहीं कोई आतंकवादी ए. के. 47
दनदना रहा हो....शायद
पर यह तो जरूर है कि कहीं कोई
फूल खिल रहा होगा जरूर
शायद कोई चिडि़या कैद हो गई हो
बहेलिये के जाल में....शायद
पर यह तो जरूर हे कि
ठीक अभी इसी वक्त किसी परिन्दे ने पहली बार
आसमान में ऊंची उड़ान जरूर भरी होगी
षायद कोई मुर्गी या बकरा
चीत्कार कर रहा होगा
हलाली के पहले....शायद
पर यह तो जरूर है कि
कोई मुर्गी अंडा से रही होगी जरूर
और कोई चूज़ा अंडे से बाहर आया होगा
ठीक अभी इसी वक्त
ठीक अभी इसी वक्त
चूडि़यां खनकी होंगीं
और सुलगा होगा चूल्हा
गरम-गरम रोटियों की सौंधी-सौंधी खुश्बू
ठीक अभी इसी वक्त मैंनें सूंघी है हवा में
शायद कहीं कोई साजिश कर रहा हो
किसी के खिलाफ
शायद समूची दुनिया के भी खिलाफ
ठीक अभी इसी वक्त...शायद
पर यह तो जरूर है
मंदिर में घंटियां बज रही होंगीं
ठीक अभी इसी वक्त
डनकी अनुगूंज
मेरे कानों से टकराई है
मैं नहीं जानती कि
अभी इसी वक्त
जबकि मैं बैठी हूं अपनी बालकनी में
ठंडी गनुगुनी सुबह में
गरम-गरम चाय के प्याले के साथ
सामने के खूबसूरत पेड़ों की
फुनगियों को देखते हुए
ठीक अभी इसी वक्त
कहीं क्या हो रहा होगा " ......
मैंने भी ----
सोचा है कुछ ऐसा ही
ठीक अभी इसी वक़्त ... कहीं और क्या हो रहा होगा
वह कोई जो कल आनेवाला है
अनजाना है
आज कहाँ क्या कर रहा होगा .......
...........
शायद कोई भूख से अपनी ज़िन्दगी खत्म कर रहा होगा ...
कोयल की कूक से बेखबर
किसी के आने से बेखबर
किसी जादू से बेखबर
मर रहा होगा !!!
.........
कोई सजा रहा होगा सपने
ख्यालों में बजती होंगी चूड़ियाँ
तो कोई शहनाई की गूँज में सिसक रहा होगा
अपने टूटे सपनों से लहुलुहान
सपने देखती आँखों के लिए
दुआ माँग रहा होगा !
..........
कवि की सोच यूँ एकाकार होती है और शब्दों का एक रिश्ता बनता है .
चलिए सोच से आगे व्यवहारिक खान-पान पर चलते हैं ! हरी सब्जियों से , स्वास्थ्यवर्धक सब्जियों से - उनके गुणों से अनभिज्ञ लोग , विशेषकर बच्चे भागते चलते हैं .
उनके लिए ज़रूरी है उनकी अहमियत की पहचान ! तो मिलिए कद्दू से
"
सब्जी लेने गये थे दद्दू
लेकर आये बड़ा सा कद्दू.
बच्चे देखके मुँह बिचकाये
उनको कद्दू तनिक न भाये.
दद्दू ने तब स्थिति भाँपी
तुरत निकाली जेब से टॉफी.
बच्चे खुश हो पास में आये
दद्दू , दद्दू कह चिल्लाये.
सब बच्चों ने टॉफी खाई
मुनिया थोड़ी सी झुंझलाई.
बोली दद्दू दियो बताये
ऐसा क्या जो कद्दू लाये.
तब दद्दू जी जरा मुस्काये
और गोद में उसे उठाये
बोले मुनिया बिटिया सुन
कद्दू में हैं औषधीय गुन.
इसमें होता बीटा केरोटिन
जो देता हमें ‘ए’ विटामिन
कम करता है यह कोलेस्ट्राल
हृदय को रखता खूब सम्भाल.
शर्करा की मात्रा रखे नियंत्रित
पेंक्रियाज को करे परिवर्द्धित
गड़बड़ी पेट की करता दूर
मूत्रवर्धक भी है भरपूर.
यह सुपाच्य ठंडक पहुँचाता
मंगल काज नें खाया जाता
जब उपवास करे नर-नारी
सेवन करते हैं फलाहारी.
सब्जी या फिर हल्वा बनाओ
इसके फूल का भजिया खाओ.
छिलका भी इसका लाभदायक
दूर करे ये रोग संक्रामक.
जब उन्तीस सितम्बर आये
कई देश पंपकिन डे मनाये.
कद्दू की महिमा यूँ सुनाई
बात समझ बच्चों के आई.
एक साथ सब बोले दद्दू !
इतना गुणकारी है कद्दू
आज से हम इसको खायेंगे
चलिये हल्वा बनवायेंगे. "
तो कहिये बच्चों के संग - हैं तैयार हम !
और देखें
" एक कमरा छोटा सा, अपना सा,
कुछ चुनिंदा किताबें
इधर भी, उधर भी,
कुछ पन्ने यहां भी, वहां भी।
एक सपना लिए हुए
कुछ मेरे मन के
कुछ उन के,
जो इसमें पहले रह चुके
उन चुनिंदा लफ्जों के बीच,
मेरा बिस्तर।
बिस्तर पर मैं,
तकिया-चादर लगाए,
सिरहाने से उठता धुआं
एश्ट्रे से, सिगरेट का।
छूता,
उत्तर-दक्षिण वेयतनाम को
बांटता लाल झील को
वहीं, थोड़ा पास ही
बिखरे सिगरेट के
खुले-अधखुले पैकेट।
एक कोना
आज-कल-बरसों की खबरों का।
ठीक जेल में उठे रोटी के अंबार
की तरह रखे अखबार।
दिन-ब-दिन उन पर
चढ़ती धूल की परत,
फिर भी एहसास कराते
अपनी मौजूदगी का।
कुछ ऊंचाई पर लगी रस्सी
अपने उपर सहती बोझ कपड़ों का
और सहती,
उनमें से उठती बदबू को।
एक कमरा छोटा सा, अपना सा
जिसमें रहता था कभी मैं। "
वह छोटा सा कमरा खुरचकर आता है सामने .... गद्देदार , बेशकीमती बिछौनों के बीच बहुत याद आता है !
8 टिप्पणियाँ:
्बहुत खूबसूरत ब्लोग बुलेटिन्।
वाह ... बहुत ही बढिया प्रस्तुति।
उम्दा लिंक्स से सजी हुई एक और बेहद उम्दा पोस्ट इस सीरीज की !
उम्दा लिंकों से सजी बेहतरीन सीरीज बुलेटिन,,,,,
RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: आश्वासन,,,,,
बिल्कुल हट के प्रस्तुति , वाह !! कमाल है.
बिल्कुल हट के प्रस्तुति , वाह !! कमाल है.
बहुत ही सुंदर श्रंखला , बेहतरीन लिंक्स संयोजन रश्मि दीदी । आपका बहुत बहुत आभार मंच को सार्थकता देने के लिए
bahut hi rochak, bhavon ka sundar sankalan
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