कोशिशों की नाव है , रोज बनाती हूँ .... और नन्हीं नन्हीं ख्वाहिशों की कंदील जला उसकी पाल से जोड़ देती हूँ और कहती हूँ - " वह जो मंजिल है , वह तुम्हें मिले " . आज ख्वाहिशों की कंदील को मैंने जोड़ा है -
बस्तर की अभिव्यक्ति -जैसे कोई झरना.... से . इस झरने की कलकल से झांकता है समय और कौशलेन्द्र जी की कलम को एक आयाम देता है . 2010 से ब्लॉग का नींव डाला और
ठोस इंटों से साल दर साल इसकी पुख्ता दीवारें बनायीं . पहली ईंट पर इन्होंने लिखा वसुधैव कुटुम्बकम्
गर्म तपते लाल ईंट सुलगते गए और कवि ने कहा - The questions......not asked.... दिमाग की पेशियाँ झंकृत हो उठीं
"आज तक कभी नहीं पूछा गया
किसी प्रश्न-पत्र में
कि क्या है भीख मांगते
या होटल में थाली धोते बच्चों का भविष्य.
कैसी होती है
आत्मदाह से पूर्व के क्षणों में
अंतर्दाह की पीड़ा.
क्यों खाती है चाबुक
तांगे की मरियल सी घोड़ी.
किसने देखे हैं
काँधे पर ठहरी पीड़ा धोते
बूढ़े बैलों की आँखों में ठहरे आंसू.
क्यों निर्धन हैं मूल्य
और क्यों नहीं बना कोई न्यायालय
जहां कह सकता बेचारा न्याय
अपने मन की पीड़ा.
नहीं पूछे गए
और भी न जाने कितने प्रश्न
जो अब पहाड़ हो गये हैं.
कोई पर्वतारोही नहीं आता इस ओर
क्यों आये ?
शौक के लिए हिमालय जो है."
सत्य की जिजीविषा है या सत्य को पाकर सत्य को प्रस्तुत करने की अदम्य लालसा या सत्य के लहू से सने शब्द !!! पर जो है , वह नसों को उद्द्वेलित करता है , लक्ष्य की
दिशा दिखाता है , कुछ यूँ -
सही-सलामत
अस्वीकृत किन्तु ग्राह्य
2011 के सोपान पर जलते चाँद की व्यथा को कवि ने जीया है - सोचा ही नहीं
अर्थ को माध्यम बना बड़ी संजीदगी से कवि ने कहा है -
" सूरज तो
अभी भी उगता है रोज
प्रतीक ही खँडहर होते जा रहे हैं.
एक-एक कर
धराशायी होते जा रहे हैं अर्थ .
खंडित मूर्तियों के साथ तुकबंदी
और अस्पष्ट सी, शिलालेखों में उकेरी
किसी अबूझ लिपि को पढ़ना
बुद्धिविलास का हिस्सा बनकर रह गया है .
भग्न मुंडेरों पर बैठ
काँव-काँव करने से क्या लाभ ?
आइये , इसी बरसात में बोते हैं कुछ बीज
नयी फसल में जब फूल खिलेंगे
तो ख़ुश्बू के झोंकों से
सजीव हो उठेंगीं मूर्तियाँ
और सार्थक हो उठेंगें
शून्य होते जा रहे अर्थ. "
यात्रा निरंतरता में है , बिना रुके बिना थके ओजस्वी स्वर लिए 2012 का सूर्योदय और
कवि -
" 1- तंत्र की बाध्यता
कपड़े
कितने भी ख़ूबसूरत क्यों न हों
चौबीसों घंटे नहीं पहन सकते आप.
उतारने ही पड़ते हैं
कभी न कभी...
अपनी-अपनी सुविधानुसार
और तब
कोई नहीं रह जाता
उतना सभ्य
जितना कि वह दिखता था
अब से पहले.
२- प्रेम ....
मैं इनवर्टेड कॉमा नहीं
जो लिस्बन से चलकर
खजुराहो में आकर दफ़न हो जाऊँ.
आग लगाने के लिए
अर्ध विराम क्या कम है ?
गौर से देखो ....
मैं डैश-डैश हूँ ......
यहाँ
कभी विराम नहीं होता.
3- साल
क्या ?
नया साल फिर आ गया ?
अपना वो पुराना वाला किधर है ...
मुझे तो वही देदो
बड़ी जतन से
उसमें कुछ पैबंद लगाए थे मैंने
नए साल में वही दोहरकम कौन करे!
४- नेता के आंसू
ए समंदर !
तुझसे कितनी बार कहा है .....
दो बूँद
उसे भी क्यों नहीं दे देता
बेचारे को
ग्लिसरीन से काम चलाना पड़ता है.
५- ये तो होना ही था.....
यूनीवर्सिटी लवली
स्टूडेंट लवली
बातें लवली
कपड़े लवली
स्टाइल भी लवली.
सुना है,
जालंधर में
लवली ने कोर्ट मैरिज कर ली है.
६- डिग्री
छात्र को यूनिवर्सिटी ने दी
यूनिवर्सिटी को यू.जी.सी. ने दी
यू.जी.सी. को पैसे ने दी
पैसे सेठ जी की जेब में थे
जो अब खाली है
जेब फिर से भर गयी है.
इस पूरे धंधे में
फैकल्टी कहीं नज़र नहीं आ रही.
७- सवाल-जवाब
जंगल में गाँव
गाँव में कॉलेज
कॉलेज में देश का 'भविष्य'
यह 'भविष्य' अपने वर्त्तमान से चिंतित है
रोज भीख माँगता है...
"भगवान के नाम पर एक अदद शिक्षक का सवाल है माई-बाप".
.........................
हुंह........
ऐसे थोड़े ही चलता है
हर चुनाव से पहले
एक ही माँग पूरी करने का विधान है.
८- उपनाम
मेरे पिता जी उपाध्याय लिखते हैं
मैं मिश्र लिखता हूँ
मेरी पत्नी चतुर्वेदी लिखती है
मेरी बेटी चटर्जी लिखती है
मेरा बेटा बनर्जी लिखता है
मेरा कुत्ता शर्मा लिखता है
मेरी बिल्ली तिवारी लिखती है
मेरा तोता पाण्डेय लिखता है
मेरे दादा जी क्या लिखते थे
यह नहीं बताऊँगा
बस, इतना जान लो
कि हम लोग
अनुसूचित जाति वाली सुविधाओं के सुपात्र है
खबरदार ! जो कभी मुझे भंगी कहा.
९- जाति
स्कूल में
जाति लिखना अनिवार्य है तो क्या हुआ.
इस अभिशाप से मुक्ति का सरलतम उपाय तो है
ऐसा करते हैं ....
ब्राह्मणों और राजपूतों के उपनाम लूट लो
यह अभिशाप दूर हो जाएगा.
उपनाम का डाका वरदान बन जाएगा.
शादी के बाद लड़की को बता देंगे
कि दरअसल
यह तो एक आदर्श
इंटरकास्ट मैरिज थी.
इमारत बुलंद बनती जा रही है ... अभिव्यक्तियाँ मुकाम पाने और देने में सफल हो रही हैं .... झरने का सौन्दर्य बहुत कुछ कहता है , कहता रहेगा...
13 टिप्पणियाँ:
वाह वाह ..बहुत ही सुन्दर .
वाह! वाह!....झरने का सौन्दर्य देखते ही बनता है!!!
बड़ी ही पठनीय पोस्टें।
कलकल करता झरना और खूबसूरत लिंक्स । बहुत ही सुंदर बुलेटिन ।
कल ही रश्मि जी का एक मेल मिला था और आज उनके दिखाये आइने में ख़ुद को देख रहा हूँ। हम अपना चेहरा ख़ुद कब देख पाते हैं ...जब तक आइना न हो। किंतु हैरान हूँ ....ये आइना कोई ऐसा वैसा नहीं लगा मुझे,ये तो कन्नाड़ी है। आप तो जानते ही हैं कन्नाड़ी बनाना हर किसी के बस का नहीं, किंतु रश्मि जी को विरासत में मिले गुण से सम्भव हो सका है यह सब। निस्सन्देह, उनके परिश्रम और सूक्ष्मावलोकन से अभिभूत हूँ मैं। बड़ी ख़ामोशी से साल दर साल वे अपना काम करती रही हैं...बिना किसी भनक के। कृतज्ञता के लिये शब्द नहीं हैं मेरे पास। बस उन्हें ...और उनकी दृष्टि को सादर प्रणाम !!!
बढ़िया कविताएँ!
यही दुआ है कि इस झरने का बहना कभी भी न रुके ... आमीन !
सार्थक खोज ...
बहुत ही सुन्दर ……॥
कौशलेन्द्र जी का ब्लॉग पर काफी उत्कृष्ट सामग्री मिल जाती हैं..पढ़ने को...
अच्छी रही ये एकल चर्चा
सार्थक प्रस्तुति
लवली ने कोर्ट मैरिज कर ली है .....
और क्यों नहीं बना कोई न्यायालय
जहां कह सकता बेचारा न्याय
अपने मन की पीड़ा.
और सार्थक हो उठेंगें
शून्य होते जा रहे अर्थ.
अपनी-अपनी सुविधानुसार
गौर से देखो ....
मैं डैश-डैश हूँ ......
मुझे तो वही देदो
उसमें कुछ पैबंद लगाए थे मैंने
ग्लिसरीन से काम(नहीं) चलाना पड़ता है
फैकल्टी कहीं नज़र नहीं आ रही.
एक ही माँग पूरी करने का विधान है
उपाध्यायमिश्र चतुर्वेदीशर्मा तिवारीपाण्डेय=चटर्जीबनर्जी(मुखर्जी)
अभिव्यक्तियाँ मुकाम पाने और देने में सफल हो रही हैं .... !!
झरने का सौन्दर्य बहुत कुछ कहता है , कहता रहेगा.... !!
झरने के कलकल सा ही लिंकों का चयन ... पढने का बहुत सारा होम वर्क दे दिया आपने :)
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