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गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

बजट, बेचैन आत्मा और १९५० वीं ब्लॉग-बुलेटिन

हमारे जइसा अदमी के बारे में आपलोग सोचते होंगे कि का मालूम कहाँ से परगट होता है अऊर फिर उसके बात अंतर्धान हो जाता है. जब पचास गो बुलेटिन पूरा होता है तब ई बिहारी कहीं से टपक जाता है अऊर एगो पोस्ट डालकर लापता. 



आजो आपलोग एही सोच रहे होंगे कि १९५० वाँ बुलेटिन का बारी है त हम कुछ लेकर आए होंगे. लेकिन भाई लोग, हमरा अंदाज निराला है. एही से आज का दिन जब सरकार का बजट का दिन है, अऊर सब चैनल वाला अपना-अपना एक्सपर्ट लेकर बैठा हुआ है, त हम भला काहे पीछे रहते. सो हम भी एगो एक्सपर्ट लेकर आ गए हैं आज का बुलेटिन पर.

हमरे छोटे भाई हैं, लेकिन बस नाम के छोटे हैं. दरसन त एतना बड़ा है इनका कि पूछिए मत. पर्किरती के फोटोग्राफर हैं, सम्बेदनसील कबि हैं, शानदार लेखक हैं अऊर बेहतरीन ट्रेवेलोग लिखते हैं. आम जीवन को समझने का दिल, सोचने का दिमाग अऊर एक्सप्रेस करने का सक्ति इनके अंदर है, जिसका सबूत है इनका ब्यस्त दिनचर्या के बीच से उपजा हुआ अनगिनत फेसबुक अऊर ब्लॉग पोस्ट. आज के दिन जब हमको लिखने का आदेस हुआ त हमको लगा कि अपना अनुज का ई पोस्ट से बेहतर त हमहूँ नहीं लिख सकते हैं.

सो आज का बुलेटिन भाई देवेन्द्र कुमार पाण्डेय उर्फ बेचैन आत्मा जी के तरफ से है. आनन्द लीजिए अऊर हमको माफी दीजिए.
                                      - सलिल वर्मा


सभी अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से बजट बनाते हैं। सरकार और व्यापारी साल भर का, आम आदमी महीने भर का और गरीब आदमी का बजट रोज बनता/बिगड़ता है। सरकारें घाटे का बजट बना कर भी विकास का घोड़ा दौड़ा सकती है लेकिन आम आदमी घाटे का बजट बनाकर आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है। आम आदमी को सीख दी जाती है कि जितनी चादर हो, उतना ही पैर फैलाओ लेकिन सरकारों को अधिकार होता है कि मनमर्जी पैर फैलाओ। चादर छोटी पड़े तो देश/विदेश जहां देखो वहीं चादर फैलाओ। आम आदमी दूसरों के आगे चादर फैलाते-फैलाते शर्म के मारे धरती पर गड़ने लगता है और जिस दिन चादर फट जाती है, आत्महत्या कर लेता है। गरीब के पास न आय न बजट। रोज कुआं खोदो, पानी पियो। न खोद पाओ, भूखे ही सो जाओ। गरीब माल्या बनकर, बैंक से कर्ज लेकर चादर ओढ़ते हुए विदेश नहीं भाग सकता।
बजट का आधार आय है। आय नहीं तो व्यय नहीं और बिना आय व्यय के बजट कैसा? बजट बनाने के लिए आपको मालूम होना होता है कि रुपया कहां से और कितना आएगा? तभी आप व्यय की भी सोच सकते हैं। जिसके पास आय नहीं वह क्या बजट बनाएगा? नंगा नहाएगा क्या, निचोड़ेगा क्या? पकौड़ी बेचना भी रोजगार है। पकौड़ी बेचने वाला भी बजट बनाता है लेकिन उसका बजट रोज बनता/बिगड़ता है। सरकार का बजट बिगड़ने से सरकार भूखी नहीं सोती, घाटे के बजट से काम चला लेती है लेकिन जिस दिन पकौड़ी वाले का बजट बिगड़ जाता है उसे भूखे ही सोना पड़ता है। हम अपने बच्चों के लिए उस रोजगार का ख्वाब देखते हैं जिसमें उन्हें कभी भूखा न सोना पड़े। सरकार कहती है रोजगार दे दिया न? बस! अब जियादे चूं चपड़ मत करो। जब सरकार की दलील को मीडिया समझ गई तो आम आदमी की क्या औकात है! हां जी, हां जी कहना है।
जाड़े के समय एक दिन मैंने लोहे के घर में एक आदमी को चादर ओढ़ने का प्रयास करते हुए देखा था। पैर ढकता तो मुंह खुला रह जाता, मुंह ढंकता तो पैर खुला रह जाता। जाड़ा इतना कि पैर और मुंह दोनो ढकना जरूरी। अब वह क्या करे? कब तक पैर सिकोड़ता रहे? उसने एक उपाय निकाला। जूता मोजा पहन कर, मुंह ढक कर सो गया। चादर का एक सिरा मुंह को ढके था, दूसरा मोजे तक फैला हुआ था। आम आदमी ऐसे ही बजट बनाता है।
सरकार की आय का मुख्य श्रोत तमाम प्रकार के कर होते हैं जो भिखारी से लेकर अरबपति तक को देने होते हैं। किसी से सीधे टैक्स लिया जाता है किसी से घुमाकर। जो सीधे दे ही नहीं सकता उससे घुमाकर लिया जाता है। जो सीधे दे सकता है उससे सीधे भी लिया जाता है, घुमाकर भी। हर प्रकार से वसूली के बाद सरकार के पास जनता के विकास के लिए खर्च करने की ताकत आ जाती है। अखबार में पूरा हिसाब ग्राफ देकर समझा दिया जाता है। रुपया आए कहां से? रुपया जाए कहाँ तक? सब लिख्खा होता है। जो समझ में न आए वह घाटा होता है और यह घाटे की भरपाई कैसे होगी आम जनता यही नहीं समझ पाती। काश कि हम भी अपने घर में घाटे का बजट पेश कर खुश हो पाते!
सरकारें पांच साल के लिए चुनी जाती हैं इसलिए पांच बार बजट बनाती है। पहले साल उसे चुनाव की चिंता नहीं होती है इसलिए कठोर बजट बनाती है। जनता नाराज हो तो हो.. ठेंगे से! टैक्स के रूप में इत्ता वसूल लो कि पिछली सरकार ने ठीक चुनाव से पहले जो जाते जाते मुफ्त गिफ्ट वितरण और कर्ज माफी वाला मनमोहक बजट किया था और जिसके कारण गाड़ी पटरी से उतर गई थी वह संभल जाय। फिर हर साल धीरे धीरे अपनी महाजनी सूरत को मनमोहक बनाती जाती है। चुनाव के साल तो धन ऐसे लुटाती है जैसे कहीं से कोई गड़ा खजाना हाथ लग गया हो। अर्थशास्त्रियों ने चेताया तो टका सा जवाब.. सरकार में फिर चुन कर आने दो सब घाटा पहली बजट में ही पूरा कर लेंगे। मतलब वही काम करती है जो पिछली सरकार ने किया था मगर इसका अंदाज अलग होता है। नई सरकार नए अंदाज में आम आदमी की पूंछ उठाती है। जनता नई सरकार के जमाने में नए अंदाज में, पहले धीरे धीरे फिर फुग्गा फाड़कर रोती है।
देश का कोई आदमी ऐसा नहीं है जो टैक्स न देता हो। भिखारी भीख मांग कर एक किलो आंटा खरीदता है तो उस आंटे पर भी टैक्स चुका रहा होता है। मजदूर अपनी मजदूरी से आयकर दे रहा होता है। शेष बचे धन की हर खरीददारी में अप्रत्यक्ष कर दे ही रहा होता है। किसान लाभ कमाता ही नहीं तो सीधे कर कैसे देता! वह तो अन्नदाता शब्द सुनकर ही अपने सभी गम भूल जाता है।


आम आदमी का काम सरकार को तमाम प्रकार के कर देकर बजट बनाने में सहयोग करना है। आम आदमी क्या बजट बनाएगा! बजट बनाना तो बड़े लोगों का काम है। 

14 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सलिल जी आपका इन्तजार रहता है और आप जब भी आते हैं कुछ जलजला सा जरूर लेकर आते हैं आज का 1950वाँ बुलेटिन भी विशेष हो गया आपकी उपस्थिति से ही ।

विश्वमोहन ने कहा…

बहुत बढ़िया!!!

Parmeshwari Choudhary ने कहा…

आप का प्रकट होना बहुत अच्छा लगा .यात्रानामा शामिल करने के लिए बहुत आभार

Parmeshwari Choudhary ने कहा…

अच्छे सूत्र

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

आभार बड़े भाई। यह मेरे लिए आपका आशीर्वाद और भूतब बड़ा पुरस्कार है।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

हमारा अंदाज़ अलग है और इसी को तो एस्प सब पसंद करते हैं - वरना इस शहर में बिहारी की आबरू क्या है! अनुज देवेन्द्र से रात संपर्क किया उनकी स्वीकृति के लिए! उन्होंने फोन नंबर दिया... मगर भला हो संचार तंत्र का कभी उनका हैलो और कभी हमारा हैलो... इसके आगे बस बात नहीं हो पाई! अंत में मेसेंजर ने मदद की और उन्होंने हमारा मान रखा!
आज की इस विशेष बुलेटिन को और भी प्रासंगिक बना दिया मेरे प्रिय बेचैन आत्मा भाई ने! आभार उनका और आप सभी का!!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

हमारा अंदाज़ अलग है और इसी को तो एस्प सब पसंद करते हैं - वरना इस शहर में बिहारी की आबरू क्या है! अनुज देवेन्द्र से रात संपर्क किया उनकी स्वीकृति के लिए! उन्होंने फोन नंबर दिया... मगर भला हो संचार तंत्र का कभी उनका हैलो और कभी हमारा हैलो... इसके आगे बस बात नहीं हो पाई! अंत में मेसेंजर ने मदद की और उन्होंने हमारा मान रखा!
आज की इस विशेष बुलेटिन को और भी प्रासंगिक बना दिया मेरे प्रिय बेचैन आत्मा भाई ने! आभार उनका और आप सभी का!!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

देवेंद्र भाई की बात ही अलग है, उनके लोहे के घर में क्या नहीं होता

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति ..

anshumala ने कहा…

मेरी पोस्ट बुलेटिन में शामिल करने के लिए धन्यवाद |

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुन्दर रही प्रस्तुति

Anita ने कहा…

अलग अंदाज में प्रस्तुत ब्लॉग बुलेटिन के १९५०वें अंक में मुझे भी शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार !

शिवम् मिश्रा ने कहा…

सभी पाठकों और पूरी बुलेटिन टीम को १९५० वीं पोस्ट की हार्दिक बधाइयाँ |

ऐसे ही स्नेह बनाए रखिए |



सलिल दादा और देवेंद्र पांडे जी आप दोनों को सादर प्रणाम |

कल्पना मनोरमा ने कहा…

बजट पर मानो सबके मन की बात आपने लिख दी हो ।बहुत सुंदर ।बधाई देवेंद्र जी

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