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सोमवार, 31 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 30

ऐ जाते वर्ष ठहरो,
अभी सुनाना है बहुत कुछ 
रोक लो घड़ी की सुइयों को 
कुछ एहसासों को रेखांकित कर दो  ... 

2018 की अवलोकन यात्रा में प्रस्तुत है आज 


मेरी फ़ोटो





अच्छा हुआ शेक्सपियर मौका देख कर १६१६ में ही निकल लिए. अगर आज होते और भारत में रह रहे होते तो देशद्रोही ठहरा दिये गये होते और कुछ लोग उन्हें बोरिया बिस्तर बाँध कर पाकिस्तान जाने की सलाह दे रहे होते. ये भी कोई बात हुई कि कह दिया ’नाम में क्या रखा है, गर गुलाब को हम किसी और नाम से भी पुकारें तो वो ऐसी ही खूबसूरत महक देगा’. इतनी बुरी बात करनी चाहिये क्या?
मैने भी एक बार कोशिश की थी जब मंचों से गज़ल पढ़ना शुरु की. तब मन में आया था कि अपने नाम ’समीर’ में से एक शब्द साईलेन्ट मोड में डाल देते हैं और खुद को मीर पुकारेंगे तो शायद मंच लूट पायें. बाद में मंच बुजुर्गों की सलाह मान कर नाम मे ’स’ पर से साइलेन्सर हटाया और गज़ल के व्याकरण समझने में मन लगाया. सिर्फ मीर और गालिब नाम रख लेने से आप मीर और गालिब सा लिखने लगेंगे, इससे फूहड़ और क्या सोच हो सकती है.
उस रोज पान की दुकान पर तिवारी जी बोले कि अब अपने घंसु को ही देख लो. माँ बाप ने कितनी उम्मीद से नाम घनश्याम दास रखा था मगर वे रह गये घंसु के घंसु. सुबह खाने को रुपये हैं तो शाम जेब खाली. घनश्याम दास नाम रख देने से कोई अपने आप बिड़ला तो नहीं हो जाता. सारा जीवन गुजार दिया घंसु ने मगर साईकल को ही गाड़ी कहते रह गया.
घंसु भी भला कहाँ चुप रहते. उखड़ पड़े कि ऐसे में आप ही कौन कमाल किये हैं? नाम के बस तिवारी हो और रोज शाम सूरज ढलते ही दारु और मुर्गा दबाते हो. सोचते हो कि अँधेरा हो गया अब भगवान क्या देख पायेगा कि आप क्या कर रहे हो? वहाँ ऊपर सब नोट हो रहा है. नाम तो आपका बदला जाना चाहिये.
तिवारी जी क्या जबाब देते. अब वे मूँह में पान भरे धीरे से मुस्कराते हुए कह रहे हैं कि शेक्सपियर सही कहे थे ’नाम में क्या धरा है..’
घंसु बोले कि तिवारी जी कुछ उधार मिल जाता तो सोच रहा हूँ एक चाय का ठेला खोल लूँ. नाम में तो वाकई कुछ नहीं धरा. अब काम में क्या धरा है वो अजमा कर देख लूँ. कौन जाने कल को देश की बागडोर ही हाथ लग जाये?
तिवारी जी उधार तो तब दें जब खुद के पास कुछ हो, अतः जैसा कि होता है सलाह ही दे दी. देख घंसु, देश में लाखों चाय वाले हैं. उस लाईन से देश की बागडोर पाने में काम्पटिशन बहुत है. उससे अच्छा तो एक बार फिर नाम बदल कर ललित, नीरव, विजय टाईप कुछ रख ले और बैंक से लम्बा कर्जा मांग. मांगने में तो तेरी क्षमताओं के आगे वो निश्चित ही फीके हैं, फिर भी कर्जा लेकर देश के बाहर भाग ही लिये. तो तू भी कोशिश करके देख ले. मिल जाये तो विदेश निकल लेना वरना तो विदेश जाना इस जन्म में तेरे भाग्य में नहीं.
घंसु असमंजस में है कि बात देश की बागडोर संभालने की थी और तिवारी जी कर्जा लेकर विदेश भाग जाने की बात कर रहे हैं?
तिवारी जी समझा रहे हैं कि तूँ असमंजस में न प़ड़. एक बार कर्जा लेकर विदेश निकल कर तो देख. जो देश की बागडोर संभालते हैं न, तब तू उनकी बागडोर संभालेगा. कुछ समझा? अब घंसु की मोटी बुद्धि भी समझ चुकी थी कि आगे क्या करना है?
मगर एक बात फिर भी नहीं समझ आई कि शहर का नाम बदलने से क्या हासिल? क्या इलाहाबाद का नाम बदल प्रयागराज कर देने से इलाहाबाद हिन्दु हो गया या पहले मुसलमान था? क्या संगम स्नान अब और अधिक पाप धो डालेगा? क्या गंगा अपने आप साफ हो जायेगी? क्या सुलाकी के लड्डु अब ज्यादा मीठे हो जायेंगे? क्या कुँभ की महत्ता बढ़ जायेगी? क्या पुराने दबंगों की दबंगाई अब नये दबंगो के हाथ चली जायेगी? किसी भी क्या का क्या जबाब होगा, कौन जाने मगर यह हर सरकार के हथकंड़े हैं. किसी के किसी वजह से, तो किसी के किसी के किसी वजह से.
मुझे अपना बचपन का साथी रमेश याद आ रहा है. जब वो होमवर्क न करके लाता तो मास्साब की मार से बचने के लिए वो उनको अन्य बातों में उलझाता कि मास्साब मुझे फलाने ने गाली बकी. फलाने ने मारा. मास्साब उसी को सुलझाने में ऐसा उलझते कि असल मुद्दा होम वर्क पूछने का वक्त ही नहीं मिल पाता. रमेश मेरी ओर देख मंद मंद मुस्कराता और धीरे से आँख मारता.
बाकी तो आँख मारने का अर्थ निकालने में आप समझदार हैं ही!



मेरे गीत !

  सतीश सक्सेना 
My photo



आग लगाई संस्कारों में 
सारी शिक्षा भुला गुरु की
दाढ़ी तिलक लगाये देखो  
महिमा गाते हैं कुबेर की !
डर की खेती करते,जीते 
नफरत फैला,निर्मम गीत !
करें दंडवत महलों जाकर,बड़े महत्वाकांक्षी गीत !

खद्दर पहने नेतागण अब
लेके चलते , भूखे खप्पर,
इन पर श्रद्धा कर के बैठे
जाने कब से टूटे छप्पर !
टुकुर टुकुर कर इनके मुंह 
को,रहे ताकते निर्बल गीत !
कौन उठाये  नज़रें अपनी , इनके टुकड़े खाते  गीत !

धन कुबेर और गुंडे पाले 
जितना बड़ा दबंग रहा है
अपने अपने कार्यक्षेत्र में 
उतना ही सिरमौर रहा है 
भेंड़ बकरियों जैसी जनता,
डरकर इन्हें दिलाती जीत !
पलक झपकते ही बन जाते सत्ताधारी, घटिया गीत !

जनता इनके पाँव  चूमती
रोज सुबह दरवाजे जाकर
किसमें दम है आँख मिलाये 
बाहुबली के सम्मुख आकर  
हर बस्ती के गुंडे आकर 
चारण बनकर ,गाते गीत !
हाथ लगाके इन पैरों को, जीवन धन्य बनाते गीत !

लोकतंत्र के , दरवाजे पर 
हर धनवान जीतकर आया
हर गुंडे को पंख लग गए 
जब उसने मंत्री पद पाया
अनपढ़ जन से वोट मांगने,
बोतल ले कर मिलते मीत !
बिका मीडिया हर दम गाये, अपने दाताओं के गीत !

निर्दोषों की हत्या वाले  
डाकू को,साधू बतलाएं 
लच्छे दारी बातों वाले 
ठग्गू को विद्वान बताएं
लम्बी दाढ़ी, भगवा कपडे, 
भीड़ जुटाकर गायें गीत !
टेलीविज़न के बलबूते पर,जगतगुरु बन जाते गीत !

खादी कुरता, गांधी टोपी,
में कितने दमदार बन गये  !
श्रद्धा और आस्था के बल 
मूर्खों के  सरदार बन गये !
वोट बटोरे झोली भर भर, 
देशभक्ति के बनें प्रतीक ! 
राष्ट्रप्रेम भावना बेंच कर,अरबपति बन जाएँ गीत !

मेरी फ़ोटो
पेड़ का एक तना. शाखों की मुकम्मल छाव. और कुछ शाखों के टूटने के ज़ख्म भी. चाहतो का एक बड़ा संसार जिसमे ज़ब्त हैं बहुत बहुत जीने की ख्वाहिशे. कुछ बारिश की बूंदे. कुछ छिटकती चांदनी. ज़िन्दगी की धूप. बहना. गिरना. उठना. चलना और चलते चलते छलकते जाना. 


जब जवाब पहचान हो
और सवाल सुनना नागरिकता

तब पहचानना कि किसके सवाल
यज्ञ के अश्व है 
जो रौंद देना चाहते है दसो दिशाएं

तुम समझना कि अंधी-सत्ता की महत्वाकांक्षा
दुनिया को समझना नही
दुनिया को सुलझाना है

जैसे जीवन को सुलझा देती है विस्मृति
मिथकों को इतिहास
प्रेम को सम्बन्ध
और कविता को तुम.

मुझे विश्वास है समझने में

जैसे बाढ़ को समझती है नदी
ज्वार को समंदर
स्मृति को मिथक
और कवि को कविता 

सुलझा कर
तान दी जाती है प्रत्यंचाएं
समेट ली जाती है पतंगें
और खारिज कर दी जाती है सारी पहेलियाँ 

केवल इसीलिए
मेरे मन की दिशा वर्जित है 
तुम्हारे प्रश्नों के लिए 
तुम्हारे अश्वो के लिए 
तुम्हारे इश्वर के लिए.

रविवार, 30 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 29

समय समापन की ओर है और अवलोकन यात्रा के मध्य में है, तो लेती हूँ कुछ ब्लॉग्स एकसाथ।  निःसंदेह, इसके बाद भी मैं अतृप्त रह जाऊँगी, क्योंकि रह जाएंगे कुछ ब्लॉग्स, अनपढ़े रह जाएंगे कुछ दिग्गज ब्लॉगर।  तो क्षमायाचना के साथ अपनी क्षमता के अनुसार लाती हूँ कुछ रचनाएं, जिनसे मिलकर आपकी यात्रा भी जारी रहे -

ऋता शेखर  ऋता शेखर 'मधु'  



सास और बहू का घर अलग अलग शहरों में था।

"मम्मी जी, आपने मलने के लिए सारे बर्तन बाई को दे दिए। बर्तनों पर खरोंच आएगी तो भद्दे दिखेंगे।" बर्तनों का अंबार देखकर सास के घर आई बहु आश्चर्य से बोल पड़ी।

"नहीं बहु, तेज रगड़ से ये और भी चमक उठेंगे, धातु के हैं न।"

"मम्मी जी, हमारे यहाँ तो आधे से अधिक बर्तन मुझे ही साफ करने होते हैं। काँच के शौफ़ियाना बर्तन, नॉन स्टिक तवा कड़ाही, ये सब बाई को नहीं दे सकती। खरोंच लगा देगी या काँच का एक भी गिलास या कटोरी टूट गयी तो डिनर सेट खराब हो जाएगा।"

"तभी तो आजकल के रिश्ते भी नर्म और नाजुक हो गए हैं। क्रोध या अहम की हल्की खरोंच भी उन्हें बदरंग कर सकती है।"

"क्यों, पहले रिश्ते बदरंग नहीं होते थे क्या मम्मी जी।"

"होते थे, पर उन रिश्तों को संभालने के लिए प्यार के साथ कठोरता से भी काम लिया जाता था और उनमें निखार बढ़ता जाता था। धातु के बर्तनों को अपने गिरने या रगड़े जाने की परवाह नहीं होती । "

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संध्या आर्य
हर कठिन जगह पर जाना और देखना कि वहाँ लोग चींटीं की तरह कैसे रहते है और धरती को सीने से लगाकर आकाश की गहराई को मापने की इच्छा ,बस इतनी सी ख्वाहिश है ......."


दहलीज से बाहर उसने 
कभी अपना पांव न रखा था 
यही वजह थी कि खिडकी और रौशनदान वाली कवितायें 
उसके रुह को छू लेती थी, 

लकीरों मे कैद गौरैया 
खुले आसमान का सपना 
कभी देख नही पाती थी 
उसे तो रौशनदान से 
सुबह का सूरज देखने भर की आदत थी, 

कविता के लिये 
ज्यादा शब्दों की जरुरत नही होती  
और कहानियों मे 
वह उलझना नही चाहती  
क्योंकि उसे अंधेरें का रहस्य पता है !

ABP NEWS Best Blogger Award 

बात उन दिनों की है जब हम हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे... हर रोज़ सुबह फ़ज्र की नमाज़ के बाद रियाज़ शुरू होता था... सबसे पहले संगीत की देवी मां सरस्वती की वन्दना करनी होती थी... फिर... क़रीब दो घंटे तक सुरों की साधना... इस दौरान दिल को जो सुकून मिलता था... उसे शब्दों में बयां करना बहुत मुश्किल है...

इसके बाद कॉलेज जाना और कॉलेज से ऑफ़िस... ऑफ़िस के बाद फिर गुरु जी के पास जाना... संध्या, सरस्वती की वन्दना के साथ शुरू होती और फिर वही सुरों की साधना का सिलसिला जारी रहता... हमारे गुरु जी, संगीत के प्रति बहुत ही समर्पित थे... वो जितने संगीत के प्रति समर्पित थे उतना ही अपने शिष्यों के प्रति भी स्नेह रखते थे... उनकी पत्नी भी बहुत अच्छे स्वभाव की गृहिणी थीं... गुरु जी के बेटे और बेटी हम सब के साथ ही शिक्षा ग्रहण करते थे... कुल मिलाकर बहुत ही पारिवारिक माहौल था...

हमारा बी.ए फ़ाइनल का संगीत का इम्तिहान था... एक राग के वक़्त हम कुछ भूल गए... हमारे नोट्स की कॉपी हमारे ही कॉलेज के एक सहपाठी के पास थी, जो उसने अभी तक लौटाई नहीं थी... अगली सुबह इम्तिहान था... हम बहुत परेशान थे कि क्या करें... इसी कशमकश में हमने गुरु जी के घर जाने का फ़ैसला किया... शाम को क़रीब सात बजे हम गुरु जी के घर गए...

वहां का मंज़र देखकर पैरों तले की ज़मीन निकल गई... घर के बाहर सड़क पर वहां शामियाना लगा था... दरी पर बैठी बहुत-सी औरतें रो रही थीं... हम अन्दर गए, आंटी (गुरु जी की पत्नी को हम आंटी कहते हैं) ने बताया कि गुरु जी के बड़े भाई की सड़क हादसे में मौत हो गई है... और वो दाह संस्कार के लिए शमशान गए हैं... हम उन्हें सांत्वना देकर वापस आ गए...

रात के क़रीब डेढ़ बजे गुरु जी हमारे घर आए... मोटर साइकल उनका बेटा चला रहा था और गुरु जी पीछे तबले थामे बैठे थे...

अम्मी ने हमें नींद से जगाया... हम कभी भी रात को जागकर पढ़ाई नहीं करते थे, बल्कि सुबह जल्दी उठकर पढ़ना ही हमें पसंद था...हम बैठक में आए...

गुरु जी ने कहा - तुम्हारी आंटी ने बताया था की तुम्हें कुछ पूछना था... कल तुम्हारा इम्तिहान भी है... मैंने सोचा- हो सकता है, तुम्हें कोई ताल भी पूछनी हो इसलिए तबले भी ले आया... गुरु जी ने हमें क़रीब एक घंटे तक शिक्षा दी...

गुरु जी अपने भाई के दाह संस्कार के बाद सीधे हमारे पास ही आ गए थे...ऐसे गुरु पर भला किसको नाज़ नहीं होगा...जिन्होंने ऐसे नाज़ुक वक़्त में भी अपनी शिष्या के प्रति अपने दायित्व को निभाया हो...

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काको लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय।।

हमारे गुरु जी... गुरु-शिष्य परंपरा की जीवंत मिसाल हैं...
गुरु जी को हमारा शत-शत नमन...और गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं...

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आकाश के असीम पटल पर,
रूपसी प्रिया का करता चित्रांकन,
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!

क्षण - क्षण करता नव प्रयोग,
किंतु छवि लगती अधूरी !
कभी लाल, कभी पीला, नीला....
अब.... गुलाबी, सुनहरा, सिंदूरी !!!

रंगों का मिश्रण, अद्भुत संयोजन,
अधीर हो करता चित्रांकन,
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!

नारंगी, किरमिजी, जामुनी,
सलेटी, रुपहला, बादामी, बैंगनी,
घोल घोल रंगों को छिड़कता,
पुनः अपनी ही कृति को निरखता !

कूची डुबा - डुबा हर रंग में,
आड़ा,तिरछा,वक्र,करता रेखांकन !
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!

जब ना बन पाई मनभाती छवि,
होकर उदास, वह चितेरा रवि
जलसमाधि को हुआ उद्युत,
तब प्रकटी संध्या, रूपसी अद्भुत !!!

लो अब पूर्ण हुआ चित्रांकन,
प्रिया को बाँधे प्रगाढ़ आलिंगन !
स्मितमुख विदा हुआ धीमे - धीमे,
वह बावरा, चंचल चित्रकार !!!

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 28

मेरी फ़ोटो
मंटू कुमार जी ने 2018 में एक ही आलेख पोस्ट किया है, और मैं उसे लेने का लोभ संवरण नहीं कर पाई, निःसंदेह शीर्षक का जादू है यह। 




अमृता-इमरोज़ और भाग्यश्री...एक वो लड़का भी।



  [यह कहानी जैसा कुछ "लल्लनटॉप कहानी कम्पटीशन" के लिए लिखी थी जो कि साहित्य आजतक-2018 में मैं भी एक प्रतिभागी के तौर पर शामिल हुआ था]

क्लास में आगे ही आगे बैठने की होड़ में उस दिन वो लड़का धक्के खाते हुए क्लास के अंदर जा सकता था, पर उसने आखिर में जाने के लिए बाहर खड़े रहने को चुना, वैसे ही जैसे उस लड़की ने भी चुना, बाहर ही रहना, आखिर में जाने के लिए।

"हमारे बैच की ही है" पहले इस दुविधा से पार पाते हुए लड़के ने उसे ऐसे देखा जैसे उसे कोई न देख रहा हो, वो लड़की भी नहीं। शायद , हाँ हाँ शायद ही, उसने भी लड़के को देखा हो ये सोच के कि उसे कोई न देख रहा हो। उन आंखों के लिए लड़के ने दिल से दुआ की कि इन्हें किस विटामिन की कमी रह गयीं जो इन्होंने थोड़े से गोलाई वाले काँच के चश्मे को चुना है।

ख़ैर, लड़के ने कईं दफ़ा उसे देखा इसी उम्मीद में कि वो उसे न देख रही हो। शायद ये काम लड़की ने भी किया हो पर ये पता करने का कोई रास्ता अब तक तो नहीं है। काश !

लड़का दावे के साथ कह सकता है कि लड़की को देखते हुए उसके ज़हन में कोई भी गाना बजने का भ्रम हुआ हो। यक़ीनन ये जरूर लगा था कि नेहरू विहार के उस भीड़-भाड़ वाली जगह पर केवल वे दोनों ही है और तीसरा वो थोड़े गोलाई लिये हुए काँच के चश्मे।ढाई घंटे की फ़िल्म की ये मजबूरी रहती है कि सबकुछ जल्दी-जल्दी होता है और पहले से तय भी होता है। उन्हें, नहीं-नहीं केवल लड़के को... कोई जल्दी नहीं ।क्लास में उस दिन "औपनिवेशिक मुक्ति" पढ़ाई गयी और लड़का किसी के दिल में कैद होने को तैयार बैठा था। "औपनिवेशिक मुक्ति के पतन के कारण" उसे उस दिन की क्लास में समझ न आया और लड़का ऐसा ही चाहता था।

उस लड़के के लिए ये पहला दिन था। अगले दिन के लिए उसने अपने दोस्तों को बताया कि कल ये कोशिश रहेगी कि हम दोनों एक साथ एक समय पर केवल एक दूसरे को देख रहे हों, थोड़े गोलाई लिये हुए काँच के चश्मे की गवाही के साथ।

अगले दिन से क्लास में नया टॉपिक शुरू होना था. नया टॉपिक के वास्ते नया रजिस्टर सभी लड़के-लड़कियों को चाहिए था. उन दोनों को भी चाहिए था. जिस दुकान से लड़का अक्सर अपनी स्टेशनरी की सामान खरीदता उसी दुकान पर वह गया. इत्तेफ़ाक़ से वही लड़की पहले से वहां मौजूद थी और एक रजिस्टर छांट के बाकियों को परख रही थी. लड़के ने दूर से ही लड़की को देखा,मुस्कुराया और कदमों को तेज़ चला के जल्दी से ख़ुद को उसके करीब पाया. लड़की ने जो रजिस्टर छांटा था उसी को लड़के ने उठाकर दूकानदार से उसका दाम पूछा ये जाने बगैर कि लड़की ने ही उस रजिस्टर को चुना है. दूकानदार के दाम बताने से पहले लड़के ने सुना कि "प्लीज, वो मुझे लेनी है,मैंने ही उसे अलग रखा है." लड़के ने कहा "सॉरी." लड़के ने दूसरा रजिस्टर चुना पैसे दिए और जाने से पहले सोचा कि और क्या बातें की जा सकती है लड़की से.

"पिछला टेस्ट कैसा हुआ? 
रैंक क्या थी आपकी? 
आप कहाँ से हो? 
आपका नाम जान सकता हूँ? 
आप भी F-26 बैच की है ना?
पढाई कैसी चल रही है? 
ठण्ड बढ़ने लगी है ना?
ये वाला रजिस्टर आप क्यों नहीं ले रहीं ?"

इतने सवाल लड़के ने मन में दुहराए और एक भी लफ्ज़ बोले बिना लड़की को उसके रजिस्टर के साथ छोड़कर क्लास के लिए रवाना हुआ. आगे जाकर उसने लड़की को देखा भी, लड़की रजिस्टर को ही घूरे जा रही थी,एक रजिस्टर छांटकर.

ये सिलसिला चलता रहा.लड़का अब रोज जल्दी ही क्लास के लिए निकल जाता और क्लास के बाहर एक जगह पर खड़े होकर उसकी नज़रें उसी थोड़े गोलाई लिए हुए चश्मे और लड़की को खोजती. कभी दिख जाती थी कभी नहीं.जिस दिन नहीं दिखती थी लड़का क्लास में उस जगह की ओर वाइट बोर्ड से ज्यादा नज़रें फ़िराता जिस जगह को लड़कियों के लिए रिज़र्व कर दिया गया था.उनकी कुर्सियां गहरे भूरे रंग से पुती थीं और इंस्ट्रक्शन में लिखा था कि "भूरी कुर्सियां लड़कियों के लिए हैं" किसी दिन क्लास में भी वह लड़की उसे न दिखती बस भूरी रंग की कुर्सियां देखता रहता.

एक दिन क्लास के बाद डाउट क्लियर करने के लिए लड़का सर के केबिन में गया और उसे बाहर इंतजार करना पड़ा.दरवाज़ा खुला और अंदर से वही लड़की अपने दोस्त के साथ निकल रही थी. निकलते हुए उसने सामने बैठे हुए लड़के को पूरी नज़र से देखा.लड़के की नज़र भी उससे मिली.लड़की बाहर चली गई और लड़के को केबिन में भेजा गया. उसके डाउट क्या थे उसे भी अब याद नहीं.केबिन में गया और मुस्कुराते हुए सर से बोला "सर, आप पढ़ाते बढ़िया हो,मुझे लगता है कि मुझे आगे बैठना चाहिए.वाइट बोर्ड के करीब'' सर ने जवाब दिया "थैंक यू, आप मैनेजमेंट से बात कीजिए."  लड़के को वाइट बोर्ड के पास कम भूरी रंग की कुर्सियों के करीब ज्यादा जाना था, उन कुर्सियों से भी ज्यादा करीब उस लड़की के,जिसका नाम उसे अब तक नहीं पता था.

बंदा इश्क में हो या इश्क में कैद होने के करीब,उसकी कल्पना शक्ति के पंख बड़ी बड़ी उड़ाने भरता है.विज्ञान तो इसे 'डोपामाइन' और 'ओक्सीटोक्स्सिन' जैसे हॉर्मोन से जोड़कर तथा दो लफ़्ज़ों में समेटकर इस पचड़े से बच जाता है पर वो बंदा जो इन अनुभवों से गुजर रहा है उसके लिए तो कुछ भी सोच लेना जायज़ है. नहीं है क्या?

पिछले टेस्ट के टॉप 10 में 5 लड़के और 5 लड़कियां थीं. तीसरे स्थान पर लड़का था और 5 लड़कियां क्रमशः पहले, चौथे, सातवें, नवें, दसवें स्थान पर थीं. लड़के ने लड़की की गंभीरता, पहनावे, हाव-भाव, बात करने के लहज़े से ये कल्पना कर लिया था कि वो लड़की जरुर ही टॉप 10 में होगी और ये भी कि पहले या चौथे स्थान पर वो होगी. पहले स्थान वाली लड़की का नाम भाग्यश्री था और चौथे स्थान वाली लड़की का नाम सौम्या. लड़के ने उस लड़की को सौम्या माना और कवितायेँ लिखीं उसके नाम पर,गाने सुने और गानों की पंक्तियों को सौम्या से जोड़ा. 

जिस किसी ने भी कहा है कि "जंग और इश्क़ में सब जायज़ है." उसे अगर लड़के के सामने लाया जाए तो लड़का उसे चूम लेगा.

2 महीने गुजर गएँ.लड़के ने सौम्या के लिए जितनी भी कवितायेँ या उस जैसी ही कुछ लिखा था सब अब तीसरे महीने में उन्हें "भाग्यश्री" के नाम से बदलना पड़ा. लड़की का नाम भाग्यश्री निकला, वो उस बैच की टॉपर थी. 
लड़का तीसरे नंबर पर था. इश्क़ दोनों से कहीं ऊपर.

दोनों मिलने लगे. दोनों की कल्पना शक्ति ने ख़ूब पंख फैलाए. 12 महीने की उनकी कोचिंग का सफ़र बहुत ही शानदार होने वाला था. ऐसा केवल लड़का सोचता था. भाग्यश्री राजस्थान के उदयपुर से थी,लड़का उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले से. उनकी अपनी-अपनी कहानी पर कब एक दुसरे का भी हक़ हो गया, दोनों को इसका ध्यान ही नहीं रहा. हालाँकि वे क्लासेज के बाद जब भी मिलते पढाई की बातें ही ज्यादा होती. इतवार के दिन वे पास ही के पार्क में जाते थे और साथ बैठकर उन लड़कों को देखते जो बैडमिंटन खेल रहे होते थे. अपनी-अपनी कहानी भी कहते और एक दुसरे को और करीब पाते. भाग्यश्री की कहानी में आये नाम को लड़का बड़े ही ध्यान से सुनता और बाद में उस नाम के पीछे दिमाग खपाता कि भाग्यश्री ने किसका नाम लेते हुए अपने चेहरे को मुस्कुराने का मौका दिया था. 

लड़के की जासूसी और भाग्यश्री की साफ़गोई किसी नतीज़े पर नहीं पहुँची तब लड़के ने ऐसे ही किसी सर्दी के दोपहर को पार्क में ही भाग्यश्री को अपनी दिल की बात आँखों से बताने की सोची. उन फिल्मों को सरसरी तौर पर याद किया कि कैसे बोले बिना भी दिल की बात भाग्यश्री तक पहुंचाई जाए.अगले दिन लड़का पार्क पहुँच गया और बैठने के बजाय घुमते रहना चुना और इंतजार किया. भाग्यश्री उस दिन देरी से आई और उसे कोई और लेकर आया. पास आने पर भाग्यश्री ने साथ में आये लड़के को इस कहानी के लड़के से मिलाया, ये कहते हुए कि ये शोभित है और गुडगाँव किसी फलाना कम्पनी में काम करता है. भाग्यश्री के पिता ने शोभित को भेजा है कि जाके भाग्यश्री से मिल आओ. लड़का शोभित से मिला भी और उस फलाने कम्पनी के नाम को याद रखा और भरसक कोशिश कि मुस्कुराने की, भाग्यश्री से आँख मिलाने की,पर कामयाब नहीं हुआ. उस दिन बैडमिंटन खेलने वाले लड़के आए नहीं थे. पार्क में वही जाने-पहचाने चेहरे थे, पेड़-पत्तियां, ख़ाली बेंच, भागते बच्चे, भाग्यश्री-शोभित और शायद थोड़ा सा वह लड़का भी.

अगले दिन किसी कारण कोचिंग बंद थी. शोभित चला गया था. भाग्यश्री ने फोन करके लड़के को उसी पार्क में बुलाया. दोनों मिले और लड़के ने भाग्यश्री को उस फिल्म की कहानी सुनाई जो उसने स्कूल के दिनों में देखी थी पर भाग्यश्री को ये बताया कि जब उसका फ़ोन आया तो यही फिल्म देख रहा था. पूरे वक़्त लड़का बोलता रहा भाग्यश्री सुनती रही. आखिर में जाते वक़्त भाग्य श्री ने लड़के को बस सॉरी कहा. लड़के ने कहा कि कल वो मेरी वाली कॉपी लेते आना. भाग्यश्री खड़ी रही और लड़का जाने लगा. दूर जाके लड़के ने पीछे घूम के देखने की अपनी कोशिश पर काबू पाने में कामयाब रहा.

लड़के को अगले दिन कॉपी मिली और बहुत सारी भाग्यश्री में से उसने केवल थोड़े से गोलाई लिये कांच के चश्मे को नज़रों में समेटा. पढ़ाई अपनी रफ़्तार से चल रही थी. ये जरूर हुआ था कि लड़के ने कविता लिखना बंद कर दिया था, उस रास्ते से कभी नहीं जाता था जिधर पार्क था, पानी ज्यादा पीने लग गया था और किसी बड़े ने उसके हाव-भाव को देखकर यह राय दी थी कि सुबह सुबह योगा किया करो, तनाव कम होगा. तनाव कम करना था लड़के को ? भाग्यश्री उसका जवाब दे सकती है !

लड़के के लिए भाग्यश्री अब उन कईं लड़कियों के जैसी ही हो गई थी. जो ख़ुशी-ख़ुशी क्लास आती और परीक्षा की चिंता लिये अपने रूम लौटती. 12 महीने बीतने आये. भाग्यश्री और लड़के की तैयारी अच्छी हुई थी. एग्जाम के दिन वे मिले भी. एक दुसरे को शुभकामनाएं दी.

सिविल सर्विसेज के लिए दोनों क्वालीफाई कर गये. लड़की को आईपीएस में जाने का मौका मिला, लड़के को आईएएस. लड़की गुजरात कैडर के हवाले और लड़का हरियाणा कैडर के हवाले. कुछ ही सालों की मेहनत से दोनों केन्द्रीय सरकार के अधीन आ गये, इत्तेफ़ाक से एक ही विभाग में. इस दौरान वे जुड़े नहीं रहे, करीब 4 साल बाद मिले थे. लड़के की नज़र में भाग्यश्री का चेहरा मुरझाया हुआ लगा. दोनों जब एक दुसरे की नई कहानियों से रूबरू हुए तो पता चला कि भाग्यश्री का शोभित से तलाक हुए 2 साल हो चुके हैं. लड़का अभी अकेला ही है और अब भी कवितायेँ लिखना शुरू नहीं किया है, हाँ ग़ज़ल सुनने का आदी हो गया है.

भाग्यश्री न के बराबर बोलने लगी थी और मुस्कुराना तो वो जानती ही नहीं थी. लड़के ने बहुत कोशिश कि की भाग्यश्री पहले वाले दौर में वापस आ जाए पर ये हो न सका. 

ऐसे ही किसी शाम को बालकॉनी से चाय पीते हुए लड़के ने सामने के मैदान में बच्चों को बैडमिंटन खेलते देखा और कहीं यादों में गुम हो गया. उस रात को लड़के ने अरसे बाद एक कविता लिखी, भाग्यश्री के लिए. अगले दिन भाग्यश्री के टेबल पर कविता वाली पेज रख आया. कविता यूँ थी-

                     अमृता प्रीतम को जानती हो ?
                                  साहिर को ?
                                 इमरोज़ को ?
                               एक कहानी सुनो-
             एक लड़की, अमृता प्रीतम को इसलिए पढ़ती 
               कि उसका साहिर उसे छोड़ के जा चूका था.
                       वो लड़की अमृता प्रीतम के उन 
                    कविताओं और कहानिययों को पढ़ती
                      जब साहिर के चले जाने के बाद 
                          अमृता प्रीतम ने लिखी थी
                       उस रास्ते को ढूंढती जिस रास्ते 
                        अमृता प्रीतम को इमरोज़ मिलें.

                 उस लड़की की तलाश एक इमरोज़ की है 
                            जो उसके लिए रात के
                          किसी भी पहर चाय बना दे.

उस पेज के आखिर में एक ख़त भी लिखा हुआ था जो कभी अमृता प्रीतम ने कभी इमरोज़ के लिए लिखी थी-

                 मेरे इमा

तुम्हारी जैसी सोच, तुम्हारी जैसी शख्सियत अगर इस दुनिया में न होती, तो तुम्हीं बताओ, कहाँ जाती मैं.

                        अच्छा, अब जल्दी से घर लौट आओ.
                                                     तुम्हारी माजा.

लड़के की कोशिश रहने लगी कि उसका दिल इमरोज़ जैसा हो जाए और उसी दिल के कोने में भाग्यश्री रहें. सारे गम, सारी परेशानी को लड़के की पीठ पर लादकर मुस्कुराने लगे.

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 27

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गगन शर्मा 


कुछ अलग सा

  कहें या कुछ ख़ास सा।  जीवन के असली घुमावदार रास्ते में कई चिंतन पड़े होते हैं, जिसे इन्होंने काफ़ी हद तक संजोया है।  चलिए आज 2018 से एक उठाते हैं  ... 


ताश, अच्छी है या बुरी यह बहस का विषय हो सकता है। पर सैंकड़ों वर्षों से यह आदमी का मनोरंजन करती आ रही है इसमें दो राय नहीं है। इसके  बावन पत्तों में बारह पत्ते, तीन पात्रों, बादशाह, बेगम और गुलाम को तो सभी जानते हैं पर अपने-अपने वर्ग के अनुसार उनकी खासियत और उनके अलग-अलग स्वभाव तथा चरित्र के बारे में कम ही जानकारी प्रचलित है। अच्छी ताशों की गड्डी बनाते समय इनके स्वरूप का पूरा ध्यान रखा जाता है...... ! 
  
#हिन्दी_ब्लागिंग 
ताश एक ऐसा खेल है जो दुनिया भर में प्रचलित है। इसका उल्लेख 9वीं सदी के चीन में भी पाया गया है। जिसके बाद इसने 14वीं सदी के योरोप में प्रवेश करने के बाद सारी दुनिया को अपना बना लिया। ऐसा मानना है कि ''गंजिफा'' के रूप में 16वीं सदी में इसने भारत में प्रवेश किया। ताश जैसे इस खेल का धार्मिक और नैतिक महत्व था। इसके पत्ते गोलाकार होते थे। ये हैसियत के अनुसार कागज़, कडक कपडे, हाथी दाँत, हड्डी या सीप के बने होते थे। जिनमें 12 कार्ड होते थे जिन पर पौराणिक चित्र बने होते थे। इसका एक अन्य रूप भी होता था जिसमें 108 कार्डों 9 गड्डियों में रखा जाता था, प्रत्येक गड्डी सौर मण्डल के नव ग्रहों को दर्शाती थी। इसे नवग्रह-गंजिफा कहा जाता था। 


ताश की लोकप्रियता इसी से आंकी जा सकती है कि इसे तक़रीबन हर छोटा-बड़ा, व्यक्ति, भले ही खेलता न हो पर इसके बारे में थोड़ा-बहुत जानता जरूर है। यहां तक कि दृष्टि-बाधित लोगों के लिए ब्रेल लिपि के कार्ड भी मिलने लगे हैं। जैसे-जैसे इसकी लोकप्रियता बढ़ी वैसे-वैसे इसकी गुणवत्ता में भी बढ़ोत्तरी होती चली गयी। इन्हें विशेष कार्ड, प्लास्टिक या बहुत विशिष्ट प्रकार की शीट पर छापा जाने लगा फिर इसके रंग और चमक बढ़ाने के लिए इन पर वार्निश, लिनन, कैलेंडरिंग जैसे उपचार किए गए, जिससे इनके टूट-फूट और रख-रखाव में भी बढ़ोत्तरी हुई। इसके कोनों को आकार दिया गया। खेलते समय पकड़ने की सुविधा के लिए इनका आकार करीब-करीब हथेली के बराबर रखा जाता है। आज बड़े-बड़े होटलों, रईसों, शौकीनों द्वारा काम में लाई जाने वाली ताश बेशकीमती होती है।
  
मोटे-भारी कागज, गत्ते, या पतले प्लास्टिक से विशेष रूप से बने इसके हिस्सों को कार्ड या पत्ता कहा जाता है। एक गड्डी में इनकी संख्या बावन की होती है, जिसे पैक या डेक कहा जाता है। हर डेक के पीछे की ओर हरेक पत्ता एक ही रंग और डिजाइन का होता है। दूसरी तरफ उन्हें चार भागों, हुकुम, पान, ईंट और चिड़ी (Spade, Heart, Diamond and Club) में बांटा गया होता है। उनका इस्तेमाल खेल में एक सेट के रूप में किया जाता है। हर सेट में तेरह-तेरह पत्ते होते हैं। जिन पर एक से दस तक अंक और उस हिस्से के निशान बने होते हैं और ग्यारह-बारह-तेरह नंबरों की जगह गुलाम-बेगम-बादशाह की तस्वीरें बनी होती हैं। इन पत्तों से दुनिया भर में अनगिनत तरह के खेलों के साथ अन्य तरह का यथा जादूगरों द्वारा हाथ की सफाई, भविष्यवाणी, बोर्ड गेम, ताश के घर बनाने जैसे मनोरंजन के साथ-साथ जुआ भी बुरी तरह शामिल है।

इस बावन पत्तों के खेल में, जैसा कि माना जाता है, आज के समय में सबसे ज्यादा लोकप्रिय खेल ब्रिज, रमी और फ्लैश के हैं।रही पत्तों की बात तो इसके इक्के से लेकर बादशाह तक को तो सभी जानते हैं पर यह कम ही लोगों को पता होगा कि दहले के बाद की तीन तस्वीरें अपने आप में कुछ अलग जानकारी भी रखती हैं। इन पर योरोपीय संस्कृति का प्रभाव अभी भी है। ध्यान से देखें तो ये चारों अपने-आप में बिल्कुल जुदा, अलग और विभिन्न विशेषताएं लिए नजर आएंगे।
    
"हुकुम
  
बादशाह :- यह क़ानून का पालक, सख्त मिजाज, काले रंग को पसंद करने वाला और तलवार से न्याय करने वाला राजा है, जो इसकी तनी हुई तलवार बताती है। इसकी मूंछें इसके स्वभाव को प्रगट करती हैं। इसे इज़राईल के राजा, किंग डेविड को ध्यान में रख बनाया जाता है। 

बेगम :- अपने राजा के कृत्यों से यह दुखी रहती है, जो इसके चेहरे और काले कपड़ों से साफ झलकता है। इसके साथ जलती हुई शमा होती है जो बताती है कि यह रानी भी उसी की तरह घुल-घुल कर मिट जाएगी। इसके साथ एक फूल जरूर है पर वह भी मुर्झाया हुआ और पीछे की तरफ जो इसके दुख को ही प्रगट करता है।

गुलाम :- हुकुम का गुलाम। जैसा मालिक वैसा गुलाम। अपने मालिक के हुक्म का ताबेदार काले कपड़े और हाथ में हंटर धारण करने वाला। सख्त चेहरे वाला, किसी के बहकावे में ना आने वाला और सारे काम अक्ल से नहीं हंटर से करने वाला होता है। इसे कोई फुसला नहीं सकता।  


"पान"
  
बादशाह :- पान यानि दिल यानि कोमल ह्रदय का स्वामी। इसीलिये यह मूंछे भी नहीं रखता। यह मानवता का पूजारी, अहिंसक, धार्मिक और शांतिप्रिय स्वभाव का होता है। ऐसा होने पर भी बहुत सतर्क और कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाला है। यह तलवार से नहीं बुद्धि से काम करता है। इसीलिये इसकी तलवार पीछे की ओर रहती है। इसे एलेक्जेंडर की खासियत दी जाने की कोशिश की जाती है। यह फ्रैंक्स के राजा शारलेमेन का प्रतिरूप माना जाता है। 

बेगम :- यह बहुत सुंदर, संतोषी स्वभाव, विद्वान पर कोमल ह्रदय तथा शांत स्वभाव वाली रानी है। इसके चेहरे से इसकी गंभीरता साफ झलकती है। हाथ का फूल भी इस बात की गवाही देता है। कोमल स्वभाव के बावजूद यह विदुषि है।

गुलाम :- पान का गुलाम भी अपने मालिकों की तरह शांत और नम्र स्वभाव वाला होता है। सादा जीवन बिताने वाला और प्रकृति प्रेमी है जो इसके हाथ में पकड़ी गयी पत्ती से स्पष्ट है। अनुशासन बनाए रखने के लिये छोटी-छोटी मूंछें रखता है।


"चिडी"
  
बादशाह :- यह तीन पत्तियों वाला, समझदार और अपने अधिकारों की रक्षा करने वाला राजा है। यह अपने को राजा नहीं सेवक मानता है। रौबदार मूंछों वाले इस राजा का भेद कोई नहीं जान पाता है। इसमें राजा अगस्तस या सीजर की खूबियों का ध्यान रखा जाता है। 

बेगम :- यह एक चतुर, चालाक तथा तीव्र बुद्धिवाली रानी है। तड़क-भड़क से दूर फूलों की शौकीन यह समस्याओं को साम, दाम, दंड़, भेद किसी भी तरह सुलझाने में विश्वास रखती है।

गुलाम :- चिड़ी का गुलाम यह सबसे चर्चित गुलाम है। गंवारों सा दिखने वाला, पगड़ी में पत्ती लटकाए सदा अपने बादशाह की चापलूसी करने में लगा रहता है। साधारण से कपड़े और गोलमटोल मूंछों को धारण करने वाला एक घटिया इंसान है।

"ईंट"
  
बादशाह :- यह राजा के साथ-साथ हीरों का व्यापारी भी है। हर समय धन कमाने की फिराक में रहता है। जिसके लिये कुछ भी कर सकता है। हाथ जोड़ कर ईमानदारी का दिखावा करता है, पर मन से साफ नहीं है। इसे हिंसा पसंद नहीं है पर एशो-आराम से रहना पसंद करता है।

बेगम :- यह भी अपने राजा की तरह धन-दौलत से प्रेम करने वाली, किसी के बहकावे में ना आनेवाली, कीमती कपड़े और गहनों से लगाव रखने वाली सदा पैसा कमाने की धुन में रहने वाली बेगम है।

गुलाम :- रोनी सूरतवाला तथा बिना मूछों वाला यह गुलाम सदा इसी गम में घुलता रहता है कि कहीं राजा से कोई और पुरस्कार या दान ना ले जाए। अमीर राजा का गुलाम है सो इसके कपड़े भी कीमती होते हैं। यह अपना काम बड़ी चतुराई से करता है।


भले ही ताश को मनोरंजन के लिए बनाया गया हो पर धीरे-धीरे इस पर जुआ हावी होता चला गया और इसकी बदनामी का मुख्य कारण तो बना ही इस खेल को इतना बदनाम कर गया कि समाज में इसे और इसको खेलने वालों को हिकारत की नजर से देखा जाने लगा। यह तो भला हो ब्रिज जैसे खेल का जिसे अंतराष्ट्रीय स्पर्द्धाओं में सम्मिलित होने के गौरव के साथ उसे खेलने वालों को भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। 

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 26


 गोपेश जायसवाल जी के तठस्थ विचारों का ब्लॉग है, जिसे पढ़ते हुए आप परमराओं की गलियों से गुजरने का सुकून ले सकते हैं। 
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 यह किस्सा मुझे मेरे मौसाजी, स्वर्गीय प्रोफ़ेसर बंगालीमल टोंक, जो कि आगरा कॉलेज में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे, उन्होंने सुनाया था.

नेहरु जी की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री आवास, 'तीन मूर्ति' को नेहरु पुस्तकालय और संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया था (सरकारी भवन का दुरूपयोग).
सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में यह भारत का सर्वश्रेष्ठ पुस्तकालय कहा जा सकता है.

प्रोफ़ेसर टोंक एक रिसर्च-प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे और इस सिलसिले में उन्हें शोध-सामग्री एकत्र करने के लिए तीन मूर्ति पुस्तकालय के चक्कर लगाने पड़ते थे.

प्रोफ़ेसर टोंक को पुस्तकालय में आते-जाते और रीडिंग रूम में अक्सर एक सज्जन दिखाई देते थे – गोरा रंग, चेहरे पर सफ़ेद, छोटी सी दाढ़ी,  सर पर एक विशिष्ट प्रकार की टोपी, शेरवानी, चूड़ीदार पजामा पहने और आँखों पर काला चश्मा लगाए वह सज्जन, उन्हें एक देवदूत से दिखाई देते थे. प्रोफ़ेसर टोंक अपने काम में इतने व्यस्त रहते थे कि उन सज्जन से कई बार आमना-सामना होने के बाद भी उनका आपस में परिचय नहीं हुआ था.

एक दिन अपना कार्य समाप्त करके प्रोफ़ेसर टोंक चाय पीने के लिए कैंटीन जा रहे थे कि वह सज्जन उन्हें रास्ते में मिल गए. बिना आपसी परिचय के दोनों में बातचीत शुरू हो गयी. प्रोफ़ेसर टोंक को बात करते समय लग रहा था कि इन सज्जन को मैंने तीन मूर्ति लाइब्रेरी के अलावा भी कहीं देखा है, लेकिन कहाँ, यह उन्हें याद नहीं आ रहा था. खैर, उन सज्जन ने प्रोफ़ेसर टोंक से उनका परिचय प्राप्त किया. प्रोफ़ेसर टोंक ने संकोच करते हुए उन सज्जन से उनका परिचय प्राप्त नहीं किया.
वह सज्जन मुस्कुरा कर प्रोफ़ेसर टोंक की इस गफ़लत का कुछ देर तक मज़ा लेते रहे फिर उन्होंने कहा -
'मैं अपना तार्रुफ़ भी आपको करा दूं. मुझे ज़ाकिर हुसेन कहते हैं.'


यह सुनकर प्रोफ़ेसर टोंक को अपने पैरों के नीचे की ज़मीन सरकती हुई दिखाई दी. उन्होंने हाथ जोड़कर ज़ाकिर हुसेन साहब से कहा -
'मेरी जहालत के लिए मुझे माफ़ कीजिएगा डॉक्टर साहब, मैं आपको पहचान नहीं पाया था. मुझे लग रहा था कि मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है पर मैं उसे लोकेट नहीं कर पा रहा था.'

उप-राष्ट्रपति जी ने प्यार से उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा -
मैं भी तो आपके जैसे स्कॉलर को आज से पहले नहीं जानता था, लेकिन मैं तो इसके लिए आपसे माफ़ी नहीं मांग रहा हूँ.'
अपने उप-राष्ट्रपति काल के दौरान डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन तीन मूर्ति पुस्तकालय में आकर अक्सर ऐसे ही प्रोफ़ेसरान से अपनी तरफ़ से दोस्ती करते थे और अपनी तरफ़ से उनके शोध-कार्य के लिए कुछ टिप्स भी दे दिया करते थे.
नेहरु पुस्तकालय में बनाए गए अपने नए दोस्तों को वो एक बार अपने बंगले पर जलपान के लिए ज़रूर बुलाते थे. प्रोफ़ेसर टोंक को भी यह सु-अवसर प्राप्त हुआ था.
राष्ट्रपति के रूप में भी डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन अपनी व्यस्तता के बावजूद विद्वानों से हमेशा बहुत प्यार और ख़ुलूस से मिलते रहे.

इस प्रसंग के बाद मुझे तीन मूर्ति पुस्तकालय का 1987 का, अपना खुद का, एक वाक़या याद आ रहा है.
उन दिनों मैं भी शोध-कार्य के सिलसिले में अक्सर तीन मूर्ति पुस्तकालय जाया करता था.
एक बार मैं अपने जैसे ही शोध-कार्य हेतु तीन मूर्ति पुस्तकालय की खाक छानने वाले तीन मित्रों के साथ वहां से बाहर निकल ही रहा था कि ज़ोर-ज़ोर से साइरन बजने की आवाज़ आई. हम चारों जब तक कुछ समझें, एक स्टेनगन-धारी जवान दौड़ता हुआ और चिल्लाता हुआ हमारी तरफ़ आया और उसने सड़क के किनारे पीठ करके हम सबको अपने-अपने हाथ पीछे बाँध कर खड़े होने का हुक्म दे दिया.
कुछ देर बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी का, पचास गाड़ियों का काफ़िला गुज़रा और तब कहीं जाकर हम सबको इस अपमानजनक सज़ा से छुटकारा मिला.

इस अपमानजनक और कष्टदायक स्थिति में खड़ा-खड़ा मैं, न जाने क्यों, मन ही मन ‘तस्मै श्री गुरुवे नमः’ का जाप कर रहा था और इसके साथ-साथ यह भी सोच रहा था कि काश हम चारों गुरुजन भी डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन जैसी किसी महान विभूति के समकालीन होते तो मुदर्रिसी करते हुए हमको भी ज़िन्दगी में किसी महान हस्ती के साथ जलपान करने का मौक़ा मिलता, थोड़ी-बहुत इज्ज़त भी मिलती और बिना कुसूर हाथ बाँध कर, सबकी तरफ़ पीठ करके, यूँ अपराधियों की तरह, दंड भी नहीं भुगतना पड़ता. 

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

2018 ब्लॉग बुलेटिन अवलोकन - 25



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विचारों की रेल चल रही .........चन्दन की महक के साथ ,अभिव्यक्ति का सफ़र जारी है . क्या आप मेरे हमसफ़र बनेगे ?"






बुंदेलखंड भारत के इतिहास में एक उपेक्षित क्षेत्र रहा है, जब हम भारतीय इतिहास को पढ़ते हैं ,तो हमें बुंदेलखंड के बारे में बहुत कम या कहें की नाम मात्र की ही जानकारी मिलती है । जबकि बुंदेलखंड की धरती वीरभूमि रही है यहां पर समय समय पर वीर पैदा हुए । बुंदेलखंड की बात चले और हम बुंदेला शासको के  दिनों को याद ना करें यह तो संभव ही नहीं क्योंकि बुंदेले ने  ही तो बुंदेलखंड की स्थापना की ।

                                                      मैंने अपनी ओरछा गाथा सीरीज  में बुंदेलखंड की स्थापना का जिक्र किया है, और बुंदेलखंड की पहली राजधानी बनने का गौरव टीकमगढ़ जिले में स्थित गढ़कुंडार नामक स्थान को प्राप्त हुआ है । बुंदेलों की राजधानी बनने के पूर्व गढ़ कुंडार खंगार वंश की राजधानी रहा और खंगार वंश के प्रतापी राजा खेत सिंह (10 वी सदी )  ने स्थान का पल्लवन पुष्पन किया । राजा खेतसिंह खंगार पृथ्वीराज चौहान के सेनापति रहे थे , उन्होंने पृथ्वीराज की तरफ से कई युद्धों में वीरता का परिचय दिया था , इसी से खुश  होके  पृथ्वीराज ने उन्हें गढ़कुंडार की रियासत प्रदान की।  मुहम्मद गोरी से पृथ्वीराज की हार  बाद  खेतसिंह ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था। 14 वी सदी में  खंगारों से छीनकर बुंदेला शासकों ने गढ़कुंडार को अपनी राजधानी बनाया ।
                                    वर्तमान में गढ़ कुंडार मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में निवाड़ी तहसील के अंतर्गत आता है । यह झांसी छतरपुर सड़क मार्ग पर निवाड़ी से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जबकि झांसी से इसकी दूरी लगभग 58 किलोमीटर है । यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन निवाड़ी है । जो झांसी मानिकपुर रेलवे लाइन पर स्थित है । वर्तमान में गढ़ कुंडार एक छोटा सा कस्बा है और यहां पर दर्शनीय स्थलों में गढ़कुंडार का प्रसिद्ध किला गीद्द वाहिनी का मंदिर तालाब आदि देखने योग्य स्थल हैं । शासन की उपेक्षा के कारण यहां पर बहुत कम लोग ही आते हैं । हां प्रतिवर्ष दिसंबर माह में 27 से 29 दिसंबर तक मध्य प्रदेश शासन द्वारा तीन दिवसीय गढ़ कुंडार महोत्सव का आयोजन किया जाता है । यह महोत्सव भी खंगार जाति का महोत्सव बनकर रह गया है , जबकि से पर्यटन गतिविधियों के साथ जोड़कर और अधिक सफल बनाया जा सकता था ।
अब किले  के कुछ इतिहास पर नजर डाली जाए ।

किले का इतिहास

-यह किला चंदेल काल में चंदेलों का सूबाई मुख्यालय और सैनिक अड्डा था।
- यशोवर्मा चंदेल (925-40 ई.) ने दक्षिणी-पश्चिमी बुंदेलखंड को अपने अधिकार में कर लिया था।
- इसकी सुरक्षा के लिए गढ़कुंडार किले में कुछ निर्माण कराया गया था।
- इसमें किलेदार भी रखा गया। 1182 में चंदेलों-चौहानों का युद्ध हुआ, जिसमें चंदेल हार गए।
- इसमें गढ़कुंडार के किलेदार शियाजू पवार की जान चली गई।
- इसके बाद यहां नायब किलेदार खेत सिंह खंगार ने खंगार राज्य स्थापित कर दिया।
- 1182 से 1257 तक यहां खंगार राज रहा। इसके बाद बुंदेला राजा सोहन पाल ने यहां खुद को स्थापित कर लिया।
- 1257 से 1539 ई. तक यानी 283 साल तक किले पर बुंदेलों का शासन रहा।
- इसके बाद यह किला वीरान होता चला गया। 1605 के बाद ओरछा के राजा वीर सिंह देव ने गढ़कुंडार की सुध ली।
- वीर सिंह ने प्राचीन चंदेला युग, कुठारी, भूतल घर जैसे विचित्र तिलिस्मी गढ़ का जीर्णोधार कराकर गढ़कुंडार को किलों की पहली पंक्ति में स्थापित कर दिया।
- 13वीं से 16 वीं शताब्दी तक यह बुंदेला शासकों की राजधानी रही।
- 1531 में राजा रूद्र प्रताप देव ने गढ़ कुंडार से अपनी राजधानी ओरछा बना ली।

घूमने आई पूरी बारात में हो गई थी गायब..
- बताया जाता है कि काफी समय पहले यहां पास के गांव में एक बारात आई थी। बारात में शामिल 50 से 60 लोग किला घूमन आए। यहां वे किले के अंडरग्राउंड वाले हिस्‍से में चले गए। नीचे गए सभी लोग आज तक वापस नहीं लौटे। इसके बाद भी कुछ इस तरह की घटनाएं हुईं। इन घटनाओं के बाद किले के नीचे जाने वाले सभी दरवाजों को बंद कर दिया गया। किला बिल्‍कुल भूल-भुलैया की तरह है। अगर जानकारी न हो तो ज्‍यादा अंदर जाने पर कोई भी खो सकता है। भूलभुलैया और अंधेरा रहने के कारण दिन में भी यह किला डरावना लगता है।
- गढ़कुंडार को लेकर वृन्दावनलाल वर्मा ने उपन्यास भी लिखा  है। इस उपन्यास  में गढ़कुंडार के कई रहस्य दर्ज किए गए हैं।

                                    गढ़ कुंडार इतिहास प्रेमियों के लिए आज भी आकर्षित करता है और इसी आकर्षण में बंद कर मैं अभी तक 5-6   बार इस जगह जा चुका हूं । यह किला अपनी खूबसूरती के साथ-साथ महत्वपूर्ण सुरक्षा व्यवस्था के लिए जाना जाता है । ऊंचाई पर बने इस किले से आसपास का बहुत ही सुंदर नजारा दिखाई देता है । किले का निर्माण सामने एक पहाड़ी के सापेक्ष इस तरह किया गया है , कि जब हम सड़क मार्ग से किले की ओर आते हैं , तो दूरी पर किला नजर आता है । जैसे जैसे ही हम उसके नजदीक पहुंचते हैं यह दिखाई देना बंद हो जाता है । ऐसा कहा जाता है, कि यह किला सात मंजिला है , जिसमे जमीन  ऊपर तीन मंजिल है, और चार मंजिल जमीन के नीचे बने है।  हालाँकि   दरवाजे सुरक्षा की दृष्टि से बंद कर दिए गए है।  गढ़कुंडार का किला बौना चोर के लिए भी प्रसिद्ध रहा है । कहते है कि उसकी लंबाई 52 अंगुल (साढ़े तीन फुट ) थी, इसलिए उसे बौना चोर कहते थे । कुछ लोग उसका नामकरण 52 चोरियों की वजह से कहते हैं । कहा जाता है कि बोना चोर एक ऐसा चोर था जिससे तत्कालीन समय का बुंदेलखंडी रॉबिनहुड कहा जा सकता है । यह धनाढ्य व्यक्तियों को पहले से चेतावनी देता था , कि वह उसके यहां चोरी करेगा और उनकी तमाम सुरक्षा व्यवस्थाओं को चकमा देकर वह चोरी करने में सफल हो जाता था । धनाढ्यों से लूटे गए धन से वह गरीबों और जरूरतमंदों की मदद भी करता था  । इसलिए वह क्षेत्र में लोकप्रिय था।  बौना चोर धन के  लिए धन लोलुप लोगों किले में बहुत खुदाई भी की है।  फ़िलहाल किले की सुरक्षा के लिए मध्य प्रदेश पुरातत्व विभाग ने प्राइवेट सुरक्षा एजेंसी के कुछ गार्ड नियुक्त किये है , जो दिन में आने वाले लोगो के लिए गाइड का भी काम करते है।   
                            गढ़कुंडार में ही गिद्धवाहनी देवी का मंदिर है।  गिद्ध वाहिनी मंदिर मूलतः विंध्यवासिनी देवी का मंदिर है । उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के विंध्याचल में स्थित विंध्यवासिनी देवी बुंदेलों की कुलदेवी हैं । ऐसी मान्यता है , कि  विंध्यवासिनी ही  बुंदेलों की सहायता करने के लिए विंध्याचल से गिद्ध पर बैठकर गढ़कुंडार आई इसलिए उन्हें यहां पर गिद्ध वाहिनी कहा गया । गिद्धवाहिनी मंदिर के बाहर एक बहुत ही खूबसूरत गिद्ध की प्रतिमा की बनी हुई है । साथ ही मंदिर से लगा हुआ एक बड़ा तालाब है जो इस जगह की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है । इस तालाब में सर्दियों में कई प्रकार के प्रवासी पक्षी भी आते है।  हालाँकि पिछले कई सालों  के सूखे के कारण हाल -बेहाल है।
बुंदेलखंड के अन्य दर्शनीय स्थल -
ओरछा
देवगढ़
टीकमगढ़ 
दतिया
झाँसी
खजुराहो
पन्ना 
कालिंजर

प्रवेश द्वार  से दिखता किला   

लेखागार