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शनिवार, 1 जुलाई 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से प्रवीण




मैं तो 'काले' को 'काला' ही कहूँगा और 'सफेद' को 'सफेद' भी, आप की मर्जी आप मुझे जो कुछ भी कहो . . .

प्रवीण

मित्र मुझे ईश्वर द्रोही, धर्म विरोधी,आदि न जाने क्या क्या कहते हैं, जबकि मैं केवल कुतर्क, अतार्किकता व अवैज्ञानिकता का विरोधी हूँ, अगर आप तार्किक या समझ आने वाली बात कह रहे हैं, मैं भी आपके साथ हूँ, पर, यदि आप अतार्किक बात कह रहे हैं या ऐसा कुछ कह रहे हैं जिसका कोई अर्थ ही नहीं निकलता (जब आप कुतर्क कर रहे हों, अवैज्ञानिक या अतार्किक बातें कह रहे हों तो आपकी बातों से अर्थ नहीं निकलेगा, यह निश्चित है!)तो जहाँ तक मुझसे बन पढ़ेगा मैं आपका विरोध करूँगा,मेरे इस कृत्य के लिये आप मुझे कुछ भी कह सकते हैं। मैं अपने इर्दगिर्द घट रहे मसलों,हालातों व किरदारों पर अपना नजरिया यहाँ लिखता हूँ पर मैं कभी भी अपने ही सही होने का कोई दावा नहीं करता, मैं सही हो भी सकता हूँ और नहीं भी, कभी मैं सही होते हुए भी गलत हो सकता हूँ और कभी गलत होते हुए सही भी, कभी पूरा का पूरा सही भी हो सकता हूँ और कभी पूरा का पूरा गलत भी, कभी आधा अधूरा सही होउंगा तो कभी आधा अधूरा गलत भी, यह सब आपके नजरिये के ऊपर भी निर्भर करता है, पर एक बात जो निश्चित रहेगी वह यह है कि मैं पूरी ईमानदारी से वही लिखूँगा जो मैं सोचता हूँ, पोलिटिकल करेक्टनेस और दुनियादारी कम से कम मेरी ब्लॉगिंग के लिये वजूद नहीं रखते। काम चलाने लायक शिक्षा मैंने भी ली है, बाकी कुछ खास नहीं है अपने बारे में लिखने को..."

सोच में ईमानदारी हो, तो वे मन के तल में उतरते हैं,  ... पढ़के देखिये,


जाओ लड़की... पर यह दुनिया इतनी बुरी नहीं...


अपने छोटे से गाँव से
उम्मीद की पोटली बाँध
चली आयीं थी जब तुम
मुल्क की राजधानी में
पढ़ने और भविष्य बनाने
तुम आशावान थी, लड़की

जहाँ रहा करती थी तुम
वहाँ बहुत कम लड़कियाँ
दिखा पाती हैं हौसला
इस तरह बाहर जाने का
पर तुम फिर भी गयी
तुम हिम्मती थी, लड़की

उस काली रात तक
सब कुछ ठीक ही था
आकर रूकी वह बस
थी जा रही गंतव्य को
और तुम उसमें चढ़ गयी
तुम विश्वासी थी, लड़की

बस में वह छह दरिंदे
निकले थे जो मौज लेने
टूट पड़े जब तुम पर
जम कर प्रतिरोध किया
जान की परवाह न कर
तुम अदम्य थी, लड़की

घायल, क्षत-विक्षत हुई
हालत बहुत खराब थी
पर तुम ने हार नहीं मानी
रही जीने के लिये जूझती
उम्मीद का दामन छोड़े बिन
तुम बेहद बहादुर थी, लड़की

आज तुम हो चली गयी
शोकाकुल सबको छोड़ कर
है सर सभी का झुका हुआ
अपराधबोध पूरे देश को है
तेरा भरोसा था जो टूट गया
हमें माफ कर देना, लड़की

तुझ पर जो बर्बरता हुई
अपवाद था, नियम नहीं
माना कि लुच्चे हैं, दरिंदे भी
पर अपने इसी समाज में
बाप बेटे भाई हैं, प्रेमी-पति भी
जो तस्वीर बदलेंगे , लड़की

तंद्रा से झकझोर कर अब
सब को जगा गयी है तू
तेरे जाने का दुख तो है
पर है यह दॄढ़ निश्चय भी
आगे ऐसा नहीं होने देंगे
कर हम पर भरोसा, लड़की

आज तुम हो चली गयी
नाम तुम्हारा नहीं जानता
कुछ अगर कह सकता तुम्हें
तो बार बार यही कहता मैं
माना कि तुम हो छली गयी
पर दुनिया इतनी बुरी नहीं, लड़की


मुझे अपना भाई बनाओगे, डॉक्टर ?



मोबाईल की घंटी ने मुझे जगाया... दीवाली का अगला दिन था वह... "हलो" ... बॉस थे दूसरी तरफ... " यह केस तुमको दे रहा हूँ शुरूआत से, हाई प्रोफाइल मामला है, साल्व करने के बाद ही कुछ कहना, कोई 'मैस अप' नहीं होना चाहिये।"

मैं जल्दी से तैयार हुआ, फ्रीज से निकाल ठंडा नाश्ता किया... वह अभी तक सो ही रही थी... कल बहुत मस्ती की थी हम दोनों ने, सारे महानगर की आतिशबाजी देखी, फिर देर रात उसका बनाकर लाया खाना खाया... पता नहीं क्यों वह कमिट नहीं होना चाहती अभी जबकि मेरी उम्र निकली जा रही है...

चुपके से दरवाजा खोल मैं बाहर निकल गया।


मरने वाला हॉट शॉट कॉरपोरेट इंजीनियरिंग फर्म का अधिकारी था... जिस बिल्डिंग में वह अकेला रहता था उसी के दूसरे माले पर उसका बड़ा भाई, जो कार्डियोलोजिस्ट था अपनी बीबी और दो बच्चों के साथ रहता था... सुबह दरवाजा न खुलने पर कामवाली ने बड़े भाई के घर से चाबी ले दरवाजा खोला था... लाश बेड पर पसरी हुई थी, केवल एक गोली सीने पर, पिस्टल पास ही पड़ा था... फारेंसिक टीम ने फिंगर प्रिंट उठाये और मैंने फ्लैट का फर्नीचर और घरेलू सामान छोड़ बाकी सभी चीजों को गत्ते के डब्बों में पैक कर आफिस ले जाने को कहा।


मैं पूरे एक हफ्ते उसके सामान व लैपटॉप को खंगालता रहा... फिंगर प्रिंट्स की भी रिपोर्ट आ गयी थी... पूरे घर में या तो उसके फिंगर प्रिंट्स थे या कामवाली के या भाई के परिवार के... पिस्टल पर भी उसी के फिंगर प्रिन्ट्स थे पर ट्रिगर पर कोई प्रिन्ट नहीं था।


वह क्लीनिक में मरीज देख रहा था... " कैसे आये आफिसर ?"... " आपको कातिल का कुछ अंदाजा है?"... "यह अंदाजा लगाना तो तुम्हारा काम है"... कंधे उचकाये उसने... मैं एक फीकी हंसी हंसा और बाहर आ गया।


इस बार मैंने उसकी कार के आगे अपनी कार अड़ा दी... " डॉक्टर, मुझे लगता है कि तुमने ही अपने भाई को मारा है... मेरे पास आज सबूत नहीं है पर याद रखना कातिल कभी बच नहीं सकता कानून से "... उसका चेहरा उतर सा गया... " अपना कार्ड दो, मैं शाम को तुमसे मिलने आउंगा, आफिसर!"



मैं अकेले बैठा था टीवी के सामने, हाथ में जिन का गिलास, गिलास की तली में पड़े ' आनियन इन ब्राईन' से उठते छोटे छोटे बुलबुलों को देखता... तभी बैल बजी... वही था...

"लोगे कुछ डॉक्टर ?"... "शुक्रिया, मैं पीना छोड़ चुका हूँ"... मैंने एक ग्लास में आरेंज जूस डाल उसे पकड़ाया...

"आफिसर, तुम मुझे काबिल आदमी लगते हो, उसके पास से कुछ बरामद हुआ क्या ?, क्या जानते हो उसके बारे में ?"

अब वह मुद्दे पर आ गया था, मैंने एक गहरी साँस ली... " बम फोड़ने वाला था तुम्हारा भाई, सादे सामानों से बने पर बेहद खूबसूरत डिजाईन के बम होते वो, तभी फटते जब वह चाहता, जगहें भी उसने तलाश लीं थी"

उसके चेहरे से मानो खून सा उतर गया... वह उठा, तकरीबन आधा गिलास ब्रान्डी से भरा और हलक से नीचे उतार लिया...

" एक डील करोगे आफिसर, मैं तुमको कातिल दे दूंगा पर तुम यह बम वाली बात किसी पर भी जाहिर न करना "

अब वह मेरी टेरीटरी में था... ऐसे सैकड़ों डील हम करते और फिर उनसे मुकर जाते हैं... क्या करें, काम ही ऐसा है... मैंने हाथ बढ़ाया " डील !"

" तुम्हारी नेम प्लेट से जाहिर होता है तुम फौज में थे ना आफिसर... बब्बा भी फौज में थे... सिपाही... एक गश्त के दौरान पहाड़ से गिरे, दाहिने पैर की दो हड्डियाँ ऐसी टूटी कि कभी सीधी नहीं जुड़ पायी... साढ़े चार साल की नौकरी के बाद ही चौथायी पेंशन के साथ घर आना पड़ा उनको... फिर चाय का होटल खोला उन्होंने... सुबह चार बजे से माई कोयले सुलगा भट्टी जलाती और बब्बा गाँव निकल पड़ते ताजा दूध लेने... खुद को मिटा कर हम दोनों को बनाया उन्होंने... मैं डॉक्टर बना और वह ईंजीनियर... वह मुझे 'टैबलेट' कहता और मैं उसे 'नटबोल्ट'... उसने शादी नहीं की तमाम कहने पर भी... कुछ समय से बदल गया था वह... हर समय प्रार्थना में लगा रहता, ऊपर वाले को याद करता रहता... बदले की बातें भी करने लगा था वह... मुझे अच्छा नहीं लगता था यह... मुझे बब्बा की याद आती थी, पंद्रह अगस्त-छब्बीस जनवरी को झंडे को सीना तान नम आंखों से सलामी देने वाले बब्बा... उन दोनों दिन हमारी दुकान में हर किसी को एक कप चाय और दो बूंदी के लड्डू खिलाये जाते थे सारा दिन बिना पैसा लिये... बब्बा इसे अपना सबसे बड़ा त्यौहार मानते थे... दीवाली के दिन फिर हममें बहस हुई पर वह नहीं माना... मैंने फैसला कर लिया, शाम वह घर आया खाना खाने तो मैंने उस से कहा कि मैं भी उसके साथ हूँ... चारों तरफ पटाखे छूट रहे थे... मैं उसके फ्लैट पर पहुंचा, दस्ताने पहने था मैं... वह टीवी देख रहा था..."क्या बात, टैबलेट, ठन्ड इतनी तो नहीं है।"... "मुझे हल्का बुखार सा है"... "डाक्टर को बुखार"... उसने मजाक उड़ाया..." 'नटबोल्ट' अब तो मैं तेरे साथ हूँ, कुछ हो गया तो अपनी हिफाजत का भी सोचना होगा, वह पिस्टल तो दिखा जो तूने पिछले महीने खरीदी है"... वह उठा, दराज से पिस्टल निकाली, मैगजीन लगायी और बड़ी शान से बताने लगा उसके बारे मैं... मैंने पिस्टल हाथ में ली, अनलाक किया और निशाना ले एक गोली दाग दी, ठीक दिल के ऊपर... धड़कता दिल धीरे धीरे खाली हुआ... उसकी आँखें खुली की खुली रह गयीं... मैंने उसके माथे को चूमा... आँखों को बन्द किया... " मुझे माफ करना 'नटबोल्ट'... पर मैं बब्बा को इस उम्र में तिल तिल कर मरते नहीं देख सकता"... और मैं चाबी लगा बाहर निकल गया"...

एक गहरी साँस ले वह रूक गया... काफी देर सिर झुकाये न जाने क्या सोचता सा रहा... फिर मेरी आँखों में आँखें डाल बोला बेहद धीमी आवाज में...  

"मुझे अरेस्ट कर लो आफिसर... कह देना मैंने ईर्ष्यावश उसे मारा... यह बम वाला एंगल निकाल दो... नहीं तो बब्बा फिर भी जीते जी मर जायेंगे ।"

मुझे अचानक जाम में मजा आना बन्द हो गया...

"मैं आता हूँ डॉक्टर, एक घंटे तक मेरा यहीं इंतजार करना...  मुझे कुछ बहुत जरूरी काम निपटाना है ।"



मैं आफिस गया, फाइल निकाली... आखिरी पेज पर लिखा...  

No headway made, There are no viable clues to proceed any further, Recommended closure of the case. ... 

फिर मैंने केस से संबंधित बरामद सामान का गत्ते का कार्टन उठाया और उसे कार की डिक्की में लाद लिया...



ईंट भट्ठे में कार घुसते ही शमशाद भाई दौड़ कर पास आये... पहले भी कई बार वहाँ जा चुका था मैं... वह मेरा मकसद जानते थे...मैंने कार्टन उठाया... वह आगे आगे चले... हम भट्ठी के ऊपर चढ़े... लड़के ने दहकती भट्टी का ढक्कन सरिये से उठाया... मैंने कार्टन अन्दर डाल दिया और उसके जलकर राख होने तक वहीं खड़ा रहा...



वह सोफा पर बैठा हुआ था... पस्त सा... मेरे घुसते ही उसने दोनों हाथ आगे बढ़ाये... "हथकड़ी लगा दो आफिसर" ...

मैंने आगे बढ़ उसे सीने में भींच लिया...

बड़ी हिम्मत लगी यह कहने में... " मुझे अपना भाई बनाओगे, डॉक्टर ?...

वह बच्चों की तरह सुबक सुबक कर रो रहा था, मेरे सीने से चिपटकर...  

मेरी आँखें भी भर आई थीं...

ऐसा मेरी जिंदगी में पहली बार हो रहा था...

11 टिप्पणियाँ:

अनुपमा पाठक ने कहा…

शानदार प्रस्तुति!!

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही गहन और कशमकस को अभिव्यक्त करता आलेख.

#हिंदी_ब्लागिँग में नया जोश भरने के लिये आपका सादर आभार
रामराम
०४७

संगीता पुरी ने कहा…

अन्तर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स डे की शुभकामनायें ..... हिन्दी ब्लॉग दिवस का हैशटैग है #हिन्दी_ब्लॉगिंग .... पोस्ट लिखें या टिपण्णी , टैग अवश्य करें ......

yashoda Agrawal ने कहा…

ईमानदार सोच...
मन में उतर गई ये रचना
सादर
चलते-चलते...
ब्लॉगर्स डे की शुभकामनाएँ
सादर

vandana gupta ने कहा…

बेहद संवेदनशील कहानी दिल में उतर गयी .......

प्रवीण ने कहा…

.
.
.
अत्यन्त आभारी हूँ आपका, इस नाचीज़ को यह सम्मान देने के लिये।
सादर।


...

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

चिट्ठाकारों के दिन की शुभकामनाएं। सुन्दर चयन।

Himanshu Pandey ने कहा…

बहुत दिनों बाद पढ़ने आया.. लिखने नहीं।

soni garg goyal ने कहा…

बढ़िया कहानी !

सदा ने कहा…

चयन एवं प्रस्तुति लाजवाब ... सादर

उषा किरण ने कहा…

बहुत मार्मिक

एक टिप्पणी भेजें

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