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रविवार, 11 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग फेसबुक ब्लॉग अन्तर सोहिल



उड़ते उड़ते पहुँचती है मेरी रूह 

जाने कहाँ कहाँ 
पढ़ती है 
समेटती है 
और आपके पास आ जाती है


अन्तर सोहिल

विचार बहुत आते हैं, लेकिन जब लिखने बैठता हूँ तो शब्द खो जाते हैं। उचित शब्दों की कमी और वाक्य-विन्यास के बिना सभी भाव बिना अभिव्यक्ति के रह जाते हैं, जैसे उमड-घुमड कर बादल बिना बरसे चुपचाप लौट जाते हैं। अच्छे लगते हैं वो जो मेरी कमियां, खामियां, गलतियां मुझे बताते हैं।



मौत की खबर लोगों को क्षणभर के लिये दार्शनिक बना देती है


जब से जापान में सुनामी और भूकम्प आया है, हर आदमी की जुबान पर इसी के चर्चे हैं। और अब जापान के परमाणु संयंत्रों के बारे में चिंता कर रहा है। रेल का दैनिक यात्री होने के कारण प्रतिदिन 2-4 नये लोगों को सुनना-बोलना हो जाता है। हर यात्री व्यापारी हो या मजदूर, सरकारी अफसर हो या किसी दुकान का कर्मचारी राजनीति, मौसम को छोडकर इसी बात से अपनी बात शुरु कर रहा है। और बात चलते-चलते आखिर में दर्शन-शास्त्र पर पहुँच जाती है। हर आदमी दार्शनिक हो जाता है। जैसे शमशान में चिता जलते देखकर या कब्रिस्तान में दफनाते वक्त आत्मा-परमात्मा की बातें करता है। यही एक बात कि - "खामख्वाह लोग इतनी भाग-दौड करते हैं, किस लिये लोग सारी उम्र जोड-तोड करते हैं, जिन्दगी का कुछ भरोसा नहीं है, सबकुछ ऊपरवाले के हाथ में है….…आदि-आदि। 
लेकिन क्या सचमुच ये बातें उनके हृदय से निकली होती हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। एक आदमी भी ऐसा नहीं है, जो इतनी दार्शनिक बातें करके रिश्वत लेना, टैक्स चोरी या लडाई-झगडा छोडकर शांति और ईमानदारी से जीवन-यापन करना शुरु कर दे।  



मैनें तुम्हारा ठेका नही ले रखा है


गाजर का हलवा, समोसे, गुलाब जामुन और पकौडों का लुत्फ उठा रही 5-6 औरतों में उसकी बूढी आंखों ने छोटी बहू को पहचान लिया।
बहू मेरे लिये खिचडी बन गई है क्या?
ओहो, तुम्हें तो भूख कुछ ज्यादा ही लगती है। अभी तो तुम्हें चाय और ब्रेड दी थी।
बेटा, चाय मैनें चार बजे पी थी, अब तो साढे आठ बज रहे हैं, थोडी सी खिचडी खा लूं तो नींद आ जायेगी।
तुम्हें दिखाई नही दे रहा है, मेरे मेहमान आये हुये हैं। आज मेरी शादी की सालगिरह है, कम से कम एक दिन तो चैन से बैठने दो।
बेटा, ये नाश्ता पानी तो चलता रहेगा। मैं तो इसलिये पूछ रही थी कि अगर खिचडी बन गई है तो अपने-आप ले कर खा लूंगी और तुम्हें भी बीच में उठना नही पडेगा।
पता नही क्यों तुम मेरे पीछे पडी रहती हो, और भी तो बेटे-बहुएं हैं। कभी-कभार उनसे भी कह दिया करो, मैनें कोई तुम्हारा ठेका नही ले रखा है।
बुढिया इतना सुनते ही चुपचाप अपनी कोठरी में जा कर लेट गई।
कानों में छोटी बहू के स्वर पिघले शीशे की तरह गिरते जा रहे हैं। "बुढिया पता नही कितना खाती है, दिन पर दिन जीभ चटोरी होती जा रही है। सारा दिन इसकी फरमाईशें पूरी करते रहो, काम की ना काज की सेर भर अनाज की"  
गीली आंखों से छत को देख रही है। जितना मुझसे बनता है, उतना तो घर की साफ-सफाई, बर्तनों और कपडे तह करने के काम कर ही देती हूं। एक-एक कर तीनों बडी बहुओं ने उसे "मैनें कोई तुम्हारा ठेका नही ले रखा है" कहकर हाल-चाल भी पूछना छोड दिया है। महिने के एक दिन इस कोठरी में बच्चों और बहुओं का आना और बातें करना उसको खुशियों से भर देता है। उस दिन जब वह अपनी पेंशन के 700 रुपये ले कर आती है और सब बच्चों को मिठाईयां और बहुओं को 100-100 रुपये देती है।   
बेटा काम पर से लौटा नही है। दोनों बच्चे ऊपर वाले कमरे में पढ रहे हैं। बिना बच्चों और पति के शादी की सालगिरह केवल सहेलियों के साथ मनाई जा सकती है क्या?

3 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

रूहानी यात्रा का एक और रूहानी पढ़ाव।

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति

अन्तर सोहिल ने कहा…

हार्दिक आभार
प्रणाम स्वीकार करें

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