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शनिवार, 13 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा Divine India


किसी को जानने के लिए यात्रा ज़रूरी है,
 ब्लॉग एक ऐसा माध्यम है, जहाँ सिर्फ एक क्लिक की ज़रूरत है, हिंदी की बात करते हैं हम, हिंदी में व्यक्त भावनाओं का सम्मान करें, उसका मार्ग प्रशस्त करें  ... 


"दिव्याभ" जी का ब्लॉग, 

Divine India - blogger

कहते हैं -
The Only Thing I Know About Myself Is That I Know Nothing...



पुत्र का ख़त पिता के नाम…!!!


अनायास ही मन हो आया लिखूं आपको 
अपनी भाषा का एक ख़त, पिता हैं आप !
शायद समझेगें पुत्र का दर्द…।

आज जाकर वह वेला आई है जब 
उभरे है कागज पर अक्षर…
मेरे परम आदरणीय पिता श्री,
कैसे हैं आप!

जमाना बदल गया…हमारा साथ बदल गया,
तरीके और हालात बदल गए…
बाते तो दूरभाष पर हो ही जाती थीं
आप भी सोंचेगे यह पत्र मैं लिख रहा हूँ…क्यों ?

मगर शब्दों की आकृति में जो भावनाएँ
उठती हैं वह कलमों के सहारे पन्नों पर 
छपती जाती हैं…
लिखते हुए कम-से-कम एहसास में डूबा
होता हूँ…इसकारण मैं यह पत्र लिख रहा हूँ।

लाख हठ थे मेरे, कुछ जो मेरे लिए होते थे
और कई जिसे करने को चाहता था यह 'मन'
उस पर आपका अंकुश बहुत बुरा लगता था…

स्कूल में जब मैं भटकता जा रहा था,
अपने रास्तों से लगातार दूर होता जा रहा था…
उस वक्त मेरा हाथ थाम कर या यों कहें
मेरा लक्ष्य टांग कर कंधों पर, पाने को 
मंजिल रास्ता आंखों में दृष्ट किया.…

बढ़ता आकार मेरा चिंता बढ़ा रहा था…
जिस प्रदेश (बिहार)का था विद्यार्थी…वहाँ
अवसरों की कमियाँ आपका हृदय व्यथित 
कर रहा था…

मैं जो था आपके सपनों का पंछी…जो
पूरा कर सकता था सारे अधूरे सपने को…
इसलिए भेजना चाहते थे कोई और परदेश
को…सुना दिया "माँ" ने आपकी बड़ी आकांक्षा 
को और देख रहा था उस परदेश में, 
अनेकानेक हाथों से खुद को होता तौल।

सहमा था मैं डरा हुआ…भीतर-भीतर आँसू थे,
वह वक्त भी जल्द आ गया जब मैं रेलगाड़ी
पर बैठा खिड़की से हाथ हिला रहा था…आज 
सभी को छोड़ मैं कहीं और जा रहा था…
खुद को अकेला महसूस कर आपको 
मन-ही-मन बहुत कोस रहा था…

आखिरकार उतर आया मैं अलबेले महफिल में,
बदला हुआ नजारा…परिवेश बदला था…
भाषा बदल गई थी…सब नया-नया सा था…
आँखें चमक जाती थीं दर्पण उभरा आता था ।

अपने कोमल हृदय पर अब बोझ महसूस 
कर रहा था,जिम्मेदारियों को लाद कर यहाँ
जो आ पहुँचा था…सच करने को वह अधूरा सपना!

वक्त और स्थान बदला तो ढंग बदला रंग और
सैलाव भी…मैं उमंगों की धुन में बढ़ता चला गया
और पीछे छोड़ आया आपके पुराने क्षण…

अब आपके विचार मेरे सिद्धांतों को गवारे नहीं थे,
मैं यह समझने लगा था, अब जमाने की मैं तस्वीर
बनाऊँगा…अब आपके सपनों में कोई करतब नहीं
दिखता था.…

आया था मैं "IAS" बनने, जो बिहारियो का 
सिद्ध अधिकार है…कई बार यहाँ की रंगीन छटा
में भटक भी जाता था…मगर 'कलक्टर' बनने के
जोश से दौड़ भी पड़ता था…

प्रोफेसर हैं आप और गुरु भी हैं
बनाना चाहते थे पुत्र को एक "IAS";
अब अलग तो होने थे न विचार हमारे
और अलग हो रहा था मैं…

घर की समस्त परेशानियों से दूर
न कभी पैसे - न कोई चिंता
जी लगा रहे पढ़ाई मे मेरा मात्र यही
थी न आपकी मंशा.…

सच कहूँ ! मैं अब सब भुला रहा था
ना ही पढ़ने से खुद को जोड़ पा रहा था
और ना ही आपको नजदिक लाकर कोई
अंकुश चाहता था…

कभी आश्रमों में कभी योगियों के
संगत में पड़ गया था मैं…पता नहीं क्यों
इस राह निकल आया था…

आया वह भी वक्त जब "IAS" बनने को मन
मचला और शुरु हुई तैयारी…कोचिंग जाने लगा
वहाँ भी मन भटकने लगा और मैं…
बालाओं के नाज़ उठाने लगा…।

घर से दूर आकर भी इतना गमगीन 
कभी नहीं हुआ था…जितना उसे याद कर-करके
तकीया भींगोता था…रात-रात भर अंजनों में 
उसको संवारा करता था…
प्रत्येक पल न जाने क्यों बेचैन सा रहता था।

लेकिन कभी न सोंचा, आपको "एक दिन" के किसी
अंतरे में…जिस सपने को पूरा करने आया था
भूला चुका था इस मैख़ाने में…

दो प्रयास तो ईमानदार था मेरा "IAS" का
उस वक्त साथ थी मेरी 'प्रेरणा' भी बहुत करीब से
मगर जो बीता वक्त था उसे लौटा न पाया मैं…।
मेरे जीवन का उद्देश्य बदल गया परिभाषाएँ
अलग हो गईं…

अब आपको याद करना भी बेईमानी लगता था,
कहाँ याद आता था वह सबेरा…जब परेशान होता
देख मुझे सीने में भींच कर पुचकारा करते थे,
बारिश में छाते को मुझपर डाल देते थे
गोद में मुझे उठाकर मीलों चला करते थे
मैं आराम से हाथों को झूला मान हिल्लोरियाँ
लेता था…

पर अब सबकुछ उलट-पलट गया है…किंतु
गुनहगार आपको भी मैं मानता हूँ…
क्यों नहीं फट्कारा आकर थप्पड़ की गुंज
क्यों नहीं सुनाई आपने…मुझे आपसे ज्यादा और
कौन जान सकता है…
हक है आपका इतना तो मुझपर वैसा ही जब 
पहली बार स्टेशन पर गाड़ी चढ़ाया था…
क्यों समेट लिया उस हक को मुझ नादान की 
भूलो से…

अत्यंत लज्जित हूँ मैं पिता जी…
नहीं लाज आपके सपनों की रख पाया…
आपके सपनों का यह पंछी 
बहुत ऊँचा 
नहीं  उड़ पाया…।

लेकिन फिर भी मैं एक पंछी हूँ और
उड़ना मेरा धर्म…
आसमान के उस छोर तक तो नहीं 
पर पुन: नये ठौर को पाने
मैं कहीं और निकल गया………

2 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर ब्लॉग ।

Digvijay Agrawal ने कहा…

बेहतरीन
सादर

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