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शनिवार, 19 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 5




ब्लॉग से लोग दूर होने लगे तो फेसबुक एक छोटा मोटा ब्लॉग सा हो गया।  एक ब्लॉग, कई कलम  ...
मैं उफ़क तक जाकर उन्हें भी बटोरती हूँ और जैसे चिड़िया अपनी चोंच में दाने लाती है बच्चों के लिए, तिनके लाती है नीड़ के लिए  ... मैं इन्हें ले आती हूँ जीवन को जानने के लिए, वक़्त को जीने के लिए  ....... 


2016 की प्रत्यंचा पर देखिये -

जो कि रास्ते का प्रत्यय है,
चलन है उसमें
वहां से यहां तक पैरों का :
मैं इस बिवाई से रिसते लहू की बूंद
रास्ते में आयी नदी की ओर
उछाल दूं..
(और वह उसे छू जाये)
तो क्या नहीं एक पुल बन जाएगा
इस किनारे से उस किनारे तक!
या एक नाव..
या सामने खड़ा हो जाएगा पहाड़ कोई,
बिंब जिसका नदी में दिखाई देता है;
कहोगे जो तुम, लहू पानी हो गया!


कुत्तों के दिन बदलते है।..पर..(लघुकथा)
एक बूढ़ा आदमी नदी किनारे टहल रहा था।..वहां एक कुत्ता आया।कुत्ता भांप गया कि यह बूढ़ा नदी में कूदकर आत्महत्या करना चाहता है।..
' बाबा, रुक जाइए।आत्महत्या क्यों करने जा रहे है आप?' कुत्ते ने नजदीक आ कर पूछा।
' जीवनभर मैं हंमेशा दूसरों की भलाई करने में लगा रहा।...बदले में मुझे बुराई, बे इज्जती, अवमानना,ठोकरें और धिक्कार के सिवाय कुछ न मिला।ऐसी जिंदगी और जी कर मैं क्या करूंगा?' बूढ़े ने जवाब दिया।
' ..लेकिन बाबा।..यह सब तो मेरे साथ भी हो रहा है।..मुझे भी अपनी वफादारी निभाने के ऐवज में यही सब मिल रहा है।मैं कहाँ आत्महत्या करने जा रहा हूँ?..आप हौसला रखें बाबा।..मरने की न सोचें। आप के दिन जरुर बदलेंगे।..मेरी माँ कहती थी कि कुत्ते के भी दिन बदल जाते है।'
' नालायक, कुत्ते-कमीने।..भाग जा यहां से।मुझे क्या कुत्ता समझ रखा है, जो मेरे दिन बदलेंगे?'..कहते हुए बूढ़े आदमी ने नदी में छलांग लगा दी।कुत्ता वहीं खड़ा था..सोच रहा था कि....
'अच्छा है जो मैं कुत्ता हूँ।..इन्सान होता तो मेरे दिन कभी न बदलते और बूढ़े बाबा की तरह मैं भी......'

मुझे इंसान की चार ज़ातों का पता चला है
इस दुनिया में रहने वाली
हुकूमत, भड़काऊ, अवाम और सिपाही
हुकूमत का काम है
चिंगारी पैदा करने वाले चकमक घिसना
भड़काऊ उस में तुरंत पेट्रोल डालते हैं
फिर नफ़रत का धुँआ
फिर जंग की आग
लेकिन केवल अवाम और सिपाही होते हैं खाक़
वैसे हमारा सिपाही भी अवाम ही है.....केवल अवाम
शायद इसलिए वह हुकूमत न बन सका
बस उसके इशारे में धूल में शहीदी देने वाला मोहरा है
हुक्मराँ नीतियाँ बनाता है
भडकाऊ उस पर मक्खन चुपड़ कर अवाम में फैलाता है
चलो देशवासियों!! आज की अगली चाय दुश्मन की छावनी में
फेसबुक,ट्विटर, व्हाट्सएप पर भीड़ है देश भक्तों की
जो पूरी जंग के दौरान
मक्खन कम नही होने देंगे
सिपाही बंकर में छुपा है
अगले विस्फोट और अगली कमांड के इंतज़ार में
उसके माँ-बाप की नींद उस दिन से हराम है
जिस दिन ऐलान किया हुकूमत ने
देश के लिए फर्ज़ निभाने का
माँ मन्नतों की ख़ुराक पर है
बाप दहशतों की
बीवी बार-बार अपने बच्चे आँचल में समेट कर दुआ कर रही है
हे प्रभु! जंग मत होने देना
वह सपूत!
जो अपना पूरा परिवार छोड़ कर आया है
समाज के भरोसे
देश के लिए मिसाइल दागने
वह जानता है वह कभी भी चिथड़ों में बदल जाएगा
वह डरता नही
पर रोता है सूखे आँसू
बंकर में मैगजीन भरते हुए
उसके हाथ नहीं काँपते
वह शहीद होने से नही डरता
पर फिर भी याद आ जाता उसे
कि उसके घर की छत की सीलन तब ठीक होगी
जब वह छुट्टियों में घर जा सकेगा
जंग होने , जीतने तक
मुद्दा होती है देश की आन
न सैनिकों की जान
न अवाम के हक़ का अमन
जंग जीत गये हम
अब जमादार लाशें समेटेगा
जवानों की विधवाएँ छाती पीटेंगी
अवाम उनके बच्चों को सरकार सुविधा देगी
शहीद की पेंशन बढ़ेगी और कोई चक्र या तमगा भी मिलेगा उसे
जीत के भाषण देगी
दुश्मन को भयाक्रांत करेगी
फिर ????
समझौता मीटिंग
मीडिया की चकचक
मगर सैनिक के घर के छत की सीलन
नही सूखेगी
उसकी माँ के आँसू जो बरसते रहे हैं
अवाम न बँटवारा चाहती थी
न दुश्मनी
न जंग
अवाम अमन को तरस रही है
दशकों से
पर हुक्मरानों को तब भी और अब भी पता है
कि अवाम कुछ नही कर सकती
हुक्मरानों की कुर्सियों की फसल
तब भी और अब भी
अवाम के खून में ही पनपती है

रावण के अट्टहास में गहरा व्यंग्य है
हमारी समझ को ललकारने का
राम जब कण - कण में बसते
रोम -रोम में रमते तो क्या रावण में न होंगे
राम ही प्राण
समझ रावण के रावणत्व को देख पाती
राम छुपे ही रहते हमारी नजर से
सबहिं नचावत राम गोसाईं
रावण भी तो यही सोच कर हँसता होगा
खुद को जलाये जाने का आयोजन देखता होगा
अहम् ब्रम्हास्मि तत्वमसि के दर्शन वाले जम्बूद्वीप में
आज भी समझ और नासमझ दो बहनें
एक हारती रहती
दूसरी जीतती जाती

ज़िंदगी तेरी उदासी का कोई राज भी है
तेरी आँखों में छुपा ख्वाब कोई आज भी है
पतझड़ों जैसा बिखरता है ये जीवन अपना
कोपलो जैसे नए सुख का ये आगाज भी है
गुनगुना लीजे कोई गीत अगर हों तन्हा
दिल की धड़कन भी है साँसों का हसीं साज भी है
वो खुदा अपने लिखे को ही बदलने के लिए
सबको देता है हुनर अलहदा अंदाज भी है
काम करना ही हमारा है इबादत रब की
इस इबादत में छिपा ज़िंदगी का राज भी है
कुछ कलम के यहाँ ऐसे भी पुजारी हैं हुए
सामने राजा ने जिनके दिया रख ताज भी है
काम करता जो बुरे लोग हैं नफरत करते
काम गर अच्छे करे तब तो कहें नाज भी है 

अवरोध (अशोक आंद्रे)
(कविता)
मैंने,
अँधेरे के उस पहर के सिरे को,जब
पकड़ना चाहा 
हर क्षण उदास लम्हों ने
मेरे चारों ओर
घेराबंदी की.
जहां अनुतरित प्रश्नों के मध्य,वह
बर्फ की सघन गहराईयों में दबा
कराहता मिला.
ऐसा क्यों होता है?
जब,मैंने कोई सवाल
अन्तरिक्ष में उछाला.
उसी वक्त ,तुमने
किसी दुसरे के स्लोगन को
अनाम पोस्टर की तरह
मेरे मुहं पर चिपका दिया
और, अर्थहीन पोस्टर की तरह
घने कंक्रीट जंगलात में
तुम्हारा चेहरा
बन्द मुट्ठी के बीच पसीजता दीखा
ओर मैं गति अवरोधक की तरह
दूसरों को अपने ऊपर से
गुजरते हुए देखता रहा
शायद अँधेरे का बोध
यही होता होगा ?
गति अवरोधक की तरह.
******

4 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर ।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

फेसबुक के कारण बहुत से ब्लॉगर मित्र अब ब्लॉगिंग से दूर हैं ... पर मुझे उम्मीद है कि आप के इन सार्थक प्रयासों से वो जल्द वापसी करेंगे |

कौशल लाल ने कहा…

बहुत सुन्दर ....

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

कुछ ऐसे रचनाकारों की रचना, जिनसे मेरा परिचय है पहले से, कुछ कम - कुछ ज़्यादा... सब के सब बेहतरीन रचनाकार हैं... सबका अलग अन्दाज़, अपना अलग सा कहने का तरीका... लेकिन सब के सब संवेदनशील रचनाकार!
आपके चुनाव को नमस्कार!!

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