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मंगलवार, 16 अगस्त 2016

क्या क्या है ?




'क्या' एक प्रश्न नहीं, 
एक अनुसन्धान है, 
तर्क है , 
उससे उपजा रहस्य है !
जन्म के साथ इसके आगे क्यों खड़ा होता है 
दिनों के साथ यह क्या"? क्यूँ? - कैसे? - कब ?के चक्रव्यूह में होता है !
क्या इस क्या का उचित 
या समुचित उत्तर मिल जाता है ?
क्या हम अनुमान की रस्सी पर 
इस क्या के हर जवाब को नहीं चलाते ?

जीकर भी 
अनुभव करके भी यह क्या जीवन्त है 
"भगवान क्या है ?"
"जीवन क्या है?"
"प्यार क्या है?" 
... आखिर यह क्या क्या है ???


http://pahalpatrika.com/frontcover/getdatabyid/245?front=30&categoryid=7
http://bastarkiabhivyakti.blogspot.in/2016/08/blog-post_12.html

खरी खरी बातों में जाने क्यूँ इक सुकून सा रहता है
झूठ कितना कहे कोई सच सोकर भी जागा रहता है !
मुट्ठी में अब तक़दीरों ने बंद होना छोड़ दिया सुना है
पत्थरों का शहर था कहा उसने वहाँ देवता रहता है !
लम्बी कतार थी फरयादियों की अज़नबी थे सब यहाँ
फ़िर भी हर क़ोई इक दूसरे से हाल पूछता रहता है !
मिलता था जो सबसे वो क़ोई हमदर्द नहीं था किसी का
काम हो जाता किसी एक का उसका नाम होता रहता है !
रोक कर कहता मैं सबको वक़्त अपना ना बर्बाद करो
फ़िर भी उसका जादू तो इसी भीड़ से चलता रहता है !
मिलने की बात और है नाम सुना नही जाता सदा मुझसे
मेरा नाम लेकर कहते हैं लोग वहाँ इक पागल रहता है !

अर्धसत्य के देश में 
ज़रुरत से तनिक कम 
तनता है आकाश 
निचुड़ी हुयी धूप 
जिसके सामने जिरह करती है 
अँधेरे से चहबच्चे
खुद उग आते हैं
एक चिटके हुए आईने से
घूरता हुआ चेहरा मेरा
मुझसे कह उठता है
'देख, मैं तेरा अकेला सत्य हूँ.'

ख़ुमारी टूट रही थी
साँसों में आग भरी थी
ग़ुलामी का डूबना तय था,
ऐसी हवा चली
इक प्रलय, जो अब तक
टुकड़ों में पली
जंगल में पलाश बन फैली
आज़ादी कोई
शंतरज का खेल नहीं
क्रांति की आग
चेक और मेट के बीच नहीं
माँ के दूध में मिला करती
जो भी भूलने लगे
काट देते थे अपनी
नींदों की नसें
फड़का लेते थे सुस्त पड़ती
जोश की रगे,
सैनानी हँसते चले गये
रगों से क़तरे टपकाते रहे
जिस दिन से थामा वो हाथ
छूट गया
सभी आरामों तलब का साथ
सारे इश्क़ धरे रह गये
कुछ वीरों ने राखी बधंवाई
कुछ हीरों ने चिता सजाई,
जोश की हथेली पर
हवाओं को संजोया गया
रक्त की स्याही से
इतिहास लिखा गया
जलती रेत को उठा
बिनाई में सजाया गया,
स्वतन्त्रता का
इतने सालों का इतिहास
जब भी बनाया जायेगा
गलियों में बहा वो रक्त
कहीं नज़र नहीं आयेगा,
पाना चाहती हूँ
वो ही आदिम स्वाद
जोशे जुनून का,
आज़ादी की भट्टी में
जो साझा हुआ,
वो ही उबाल
जो उस एक पल में था,
क्या परम्पराओं का निर्वहन ही
स्वाधीनता दिवस है,
अब ये अवधारणा हमें बदलनी हैं,
असली मायनों में आज़ादी तो
सामाजिक बुराइयों के खात्मे से मिलनी है...!!!

4 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत दिनों के अन्तराल के बाद रश्मि जी की एक सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति ।

Asha Joglekar ने कहा…

बुलेटिन का यह रूप पसंद आया। न कहीं जाने की जरूरत सब कुछ करीने से
थाली में परोसा हुआ। सुंदर पोस्टों से सजा।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

आशा जी जाने के लिये भी है :)

http://pahalpatrika.com/frontcover/getdatabyid/245?front=30&categoryid=7
और
http://bastarkiabhivyakti.blogspot.in/2016/08/blog-post_12.html

कविता रावत ने कहा…

बहुत सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!

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