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रविवार, 31 जुलाई 2016

महान रचनाकार मुंशी प्रेमचंद की १३६ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |
वाराणसी शहर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर लमही गांव में अंग्रेजों के राज में 31 जुलाई 1880 में पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद न सिर्फ हिंदी साहित्य के सबसे महान कहानीकार माने जाते हैं, बल्कि देश की आजादी की लड़ाई में भी उन्होंने अपने लेखन से नई जान फूंक दी थी। प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था।
 
वाराणसी शहर से दूर १३६ वर्ष पहले कायस्थ, दलित, मुस्लिम और ब्राह्माणों की मिली जुली आबादी वाले इस गांव में पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद ने सबसे पहले जब अपने ही एक बुजुर्ग रिश्तेदार के बारे में कुछ लिखा और उस लेखन का उन्होंने गहरा प्रभाव देखा तो तभी उन्होंने निश्चय कर लिया कि वह लेखक बनेंगे। 
 
मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को निश्चय ही एक नया मोड़ दिया और हिंदी में कथा साहित्य को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया। प्रेमचंद ने यह सिद्ध कर दिया कि वर्तमान युग में कथा के माध्यम की सबसे अधिक उपयोगिता है। उन्होंने हिंदी की ओजस्विनी वाणी को आगे बढ़ाना अपना प्रथम कर्तव्य समझा, इसलिए उन्होंने नई बौद्धिक जन परंपरा को जन्म दिया।  
 
प्रेमचंद ने जब उर्दू साहित्य छोड़कर हिंदी साहित्य में पदार्पण किया तो उस समय हिंदी भाषा और साहित्य पर बांग्ला साहित्य का प्रभाव छा रहा था। हिंदी को विस्तृत चिंतन भूमि तो मिल गई थी, पर उसका स्वत्व खो रहा था। देश विदेश में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ रही है तथा आलोचकों के अनुसार उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारुण परिस्थितियों को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। साहित्य समीक्षकों के अनुसार प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में कृषि प्रधान समाज, जाति प्रथा, महाजनी व्यवस्था, रूढि़वाद की जो गहरी समझ देखने को मिलती है, उसका कारण ऐसी बहुत सी परिस्थितियों से प्रेमचंद का स्वयं गुजरना था।
 
प्रेमचंद के जीवन का एक बड़ा हिस्सा घोर निर्धनता में गुजरा था।  प्रेमचंद की कलम में कितनी ताकत है, इसका पता इसी बात से चलता है कि उन्होंने होरी को हीरो बना दिया। होरी ग्रामीण परिवेश का एक हारा हुआ चरित्र है, लेकिन प्रेमचंद की नजरों ने उसके भीतर विलक्षण मानवीय गुणों को खोज लिया।  प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत था। वह समाज से विभिन्न चरित्र उठाते थे। मनुष्य ही नहीं पशु तक उनके पात्र होते थे। उन्होंने हीरा मोती में दो बैलों की जोड़ी, आत्माराम में तोते को पात्र बनाया। गोदान की कथाभूमि में गाय तो है ही।  प्रेमचंद ने अपने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नहीं दिया। प्रेमचंद के खुद के शब्दों में वह आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं। उनके साहित्य में मानवीय समाज की तमाम समस्याएं हैं तो उनके समाधान भी हैं। 
 
प्रेमचंद का लेखन ग्रामीण जीवन के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में इसलिए सामने आता है क्योंकि इन परिस्थितियों से वह स्वयं गुजरे थे। अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण आदि का प्रबल विरोध करते हुए भी वह समन्वय के पक्षपाती थे।  प्रेमचंद अपने साहित्य में संघर्ष की बजाय विचारों के जरिए परिवर्तन की पैरवी करते हैं। उनके दृष्टिकोण में आदमी को विचारों के जरिए संतुष्ट करके उसका हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। इस मामले में वह गांधी दर्शन के ज्यादा करीब दिखाई देते हैं। लेखन के अलावा उन्होंने मर्यादा, माधुरी, जागरण और हंस पत्रिकाओं का संपादन भी किया। 
 
प्रेमचंद के शुरूआती उपन्यासों में रूठी रानी, कृष्णा, वरदान, प्रतिज्ञा और सेवासदन शामिल है। कहा जाता है कि सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी से मिली प्रेरणा के कारण उन्होने हिन्दी उपन्यास सेवासदन लिखा था। बाद में उनके उपन्यास प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि और गोदान छपा। गोदान प्रेमचंद का सबसे परिपक्व उपन्यास माना जाता है। उनका अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र अपूर्ण रहा। समीक्षकों के अनुसार प्रेमचंद की सर्जनात्मक प्रतिभा उनकी कहानियों में कहीं बेहतर ढंग से उभरकर सामने आई है।
 
उन्होंने 300 से अधिक कहानियां लिखी। प्रेमचंद की नमक का दरोगा, ईदगाह, पंच परमेश्वर, बड़े भाई साहब, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी और कफन जैसी कहानियां आज विश्व साहित्य का हिस्सा बन चुकी हैं। प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य में आते ही हिंदी की सहज गंभीरता और विशालता को भाव-बाहुल्य और व्यक्ति विलक्षणता से उबारने का दृढ़ संकल्प लिया। जहां तक रीति-काल की मांसल श्रृंगारिता के प्रति विद्रोह करने की बात थी प्रेमचंद अपने युग के साथ थे पर इसके साथ ही साहित्य में शिष्ट और ग्राम्य के नाम पर जो नई दीवार बन रही थी, उस दीवार को ढहाने में ही उन्होंने हिंदी का कल्याण समझा। हिंदी भाषा रंगीन होने के साथ-साथ दुरूह, कृत्रिम और पराई होने लगी थी। चिंतन भी कोमल होने के नाम पर जन अकांक्षाओं से विलग हो चुका था। हिंदी वाणी को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने एक नई बौद्धिक जन परम्परा को जन्म दिया। 

प्रेमचंद की कहानियों का वातावरण बुन्देलखंडी वीरतापूर्ण कहानियों तथा ऐतिहासिक कहानियों को छोड़कर वर्तमान देहात और नगर के निम्न मध्यवर्ग का है। उनकी कहानियों में वातावरण का बहुत ही सजीव और यथार्थ अंकन मिलता है। जितना आत्मविभोर होकर प्रेमचंद ने देहात के पा‌र्श्वचित्र लिए हैं उतना शायद ही दूसरा कोई भी कहानीकार ले सका हो। इस चित्रण में उनके गांव लमही और पूर्वाचल की मिट्टी की महक साफ परिलक्षित होती है। तलवार कहते हैं कि प्रेमचंद की कहानियां सद्गति, दूध का दाम, ठाकुर का कुआं, पूस की रात, गुल्ली डंडा, बड़े भाई साहब आदि सहज ही लोगों के मन मस्तिष्क पर छा जाती हैं और इनका हिंदी साहित्य में जोड़ नहीं है।

ब्लॉग बुलेटिन टीम और हिन्दी ब्लॉग जगत की ओर से होरी को हीरो बनाने वाले रचनाकार मुंशी प्रेमचंद जी को उनकी १३६ वीं जयंती पर शत शत नमन |

सादर आपका
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रेलवे गार्ड बनना चाहते थे प्रेमंचद

प्रेमचंद और फेसबुक

प्रेमचन्द के नाम शहरी बाबू की पाती

ईदगाह............मुंशी प्रेमचंद

संयोग ऐसे भी होते हैं .

घर वापसी - एक ममतामयी मुलाक़ात

कितने पाकिस्तान

हुतात्मा ऊधमसिंह उर्फ सरदार शेरसिंह

अमर शहीद ऊधम सिंह जी की ७६ वीं पुण्यतिथि 

चाट का स्टाल

जयपुर की सैर ==भाग 7

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अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!! 

11 टिप्पणियाँ:

yashoda Agrawal ने कहा…

शुभ संध्या
आभार भाई शिवम् जी
आपका चयन हरदम बेहतर रहता है
सादर

Anita ने कहा…

उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के जीवन और साहित्यिक यात्रा के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी..सुंदर सूत्रों से सजा बुलेटिन..

Abhishek Thakur ने कहा…

'कितने पाकिस्तान' को प्रेमचंद विशेष ब्लॉग में जगह देने के लिए धन्यवाद.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

कलम के सिपाही का जीवन चरित पढकर एक बार फिर से सिर उनके सम्मान में झुक गया. हैप्पी बर्थ डे मुंशी जी!

NKC ने कहा…

बहुत खूबसूरत जानकारियों का सिलसिलेवार विवरण शुभकामनायें !

कविता रावत ने कहा…

मुंशी प्रेमचंद की १३६ वीं जयंती पर उनके साहित्य योगदान की बहुत अच्छी जानकारी के साथ सार्थक ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

मुंशी प्रेमचंद जी को उनकी १३६ वीं जयंती पर नमन |सुन्दर बुलेटिन ।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

आप सब का बहुत बहुत आभार |

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

प्रेमचन्द के बिना कथा-साहित्य अधूरा है .पहले वे नबाबराय के नाम से उर्दू में लिखा करते थे. कादम्बिनी में मैंने उनकी उर्दू में लिखी कहानी बारात पढ़ी थी जो बहत मार्मिक है .जब अँग्रेज सरकार ने'सोजे वतन' को ज़ब्त कर लिया गया तब उन्होंने दूसरे छद्मनाम प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे थे . तभी उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया होगा .हिन्दी के इस उपन्यास सम्राट को नमन .उनकी जानकारी के लिये और मेरी पोस्ट को यहाँ देने के लिये भी धन्यवाद

Unknown ने कहा…

सुन्दर और सारगर्भित आलेख। भारत के मर्मज्ञ लेखक को अर्पित श्रद्धा सुमन अच्छे लगे।

Anil Dayama EklA ने कहा…

पावन श्रद्धांजलि।

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