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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

बर्फ से शहर के लिए

सभी ब्लॉगर मित्रों को राम राम....

आज भाई किंशुक की नज़र से प्रेम को देखने का प्रयास.....

बर्फ से शहर के लिए 
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उन
शहरों पर पुरानी धुंध लौटती है
एक बर्फ है जो रोज जम रही है
सूरज उसे सख्त करता जाता है /
दिन एक ख्याल है
रात की नींद के लिए
वे पिंजरों को घर कहते हैं
कांक्रीट से लबरेज सलाखों के बीच
हर ह्रदय बर्फ का ही रियाज करता है
एक पल को कविता उठती है
और सच का आकाश
धूप सा चमकता है
इधर
शहर व्यस्त रहता है
सर्दी बिलौने में
जब एक स्त्री में प्रेम पक रहा था
वह बिछौने की तरह इस्तेमाल होना सीख रही थी
पिंजरों के भीतर प्रेम देह कुरेदता है
बर्फ घनीभूत होती है हर परत पर 
स्त्री योनियों पर कपड़ो का पर्दा रखती है
बच्चा स्तनों से हिम चूसता है
ठीक , यह हम है
एक पुरातन शहर में
ईश्वर से और अधिक हिमपात की प्रार्थना करते हुए /
हमारी कविताएँ देखती है हमें दूर आसमान से
देखती है पिंजरे में रमता एक सफेद हिम भालू
जिसके दाँतों में फँसी है एक जिंदा मछली
पिंजरे से गायब है दोनो
स्त्री औ प्रेम

एक नज़र आज के बुलेटिन पर


आज की बुलेटिन में बस इतना ही मिलते है फिर इत्तू से ब्रेक के बाद । तब तक के लिए शुभं।

6 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

दमदार कविता पढाई आपने। आभार।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

दमदार कविता पढाई आपने। आभार।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बढ़िया बुलेटिन ... आभार आपका |

Barthwal ने कहा…

किशुंक की कविता सुंदर और साथ ही हमें शामिल करने हेतू आभार किरण

Kinshukshiv ने कहा…

शुक्रिया��

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