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सोमवार, 7 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (७)




कदम रुकने नहीं चाहिए, प्रतिभाओं से मिलने के लिए क़दमों को बढ़ाना ही होगा, ठीक उसी तरह जैसे सूरज आता है जगाने, रात आती है सुलाने  ... 


ये जीना भी कोई जीना है लल्लू !
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दुआ

उस रोज़ जब
तूने अपनी उँगलियों में गंगाजल लेकर
छिड़के थे कुछ छींटे मंतर भरे
और बंद आँखों संग बुदबुदाया था कुछ
ज़्यादा नहीं माँगा होगा तूने माँ
बस यही कि मेरे लाल को नज़र न लगे किसी की 
और इस बार तो कम-से-कम पास हो जाए इम्तेहान में;
तेरी उन दुआओं का ही असर है शायद
मैं वहां हूँ, जहां हूँ...
और अब मेरी बस यही दुआ है कि
एक बार उतनी रूहानियत
उतनी शिद्दत
और उतने ही जतन से
तेरे लिए कुछ मांग पाऊँ...

6 टिप्पणियाँ:

कविता रावत ने कहा…

आदिल की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु आभार!

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

अति सुंदर रचना
आप मोती चुनती हैं

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह !

Asha Joglekar ने कहा…

माँ तो होती ही है ममतामयी पर कोई संतान भी ऐसा सोचे.....वाह।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

एक बार फ़िर आप के चयन के कारण शब्दों की जादूगरी देखने को मिली ... आभार दीदी |

kuldeep thakur ने कहा…

सुंदर बहुत अच्छा लग रहा है....

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