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रविवार, 25 अक्तूबर 2015

भूले रास्तों का पता - 4





 अच्छा लगता है पेड़ों से 
भागती हवाओं से बातें करना 
उन्हें गीत सुनाना 
यूँ लगता है कोई अपना है !
वह अपना 
जिसके साथ सबकुछ खुला खुला सा है 
न किसी बात से परहेज 
न कोई रुकावट 
बिना सीखे न जाने कितने गीत 
होठों से गुजर जाते हैं 
… 
अच्छा लगता है 
बचपन के बागीचे में दौड़ना 
रंगबिरंगी तितलियाँ पकड़ना 
रजनीगंधा से उसकी खुशबू का राज जानना 
हरसिंगार को हथेलियों में भरकर 
उसकी विनम्रता से एकाकार होना 
… 

अच्छा लगता है जब कोई लिखता है, कोई पढता है  … जिन्हें भूल गए हो उनको मैं लेकर आई हूँ, 
ये वही जगह है दोस्तों, जहाँ हम पढ़ते थे, फिर किसी को सुनाते थे  … अगली रचना का इंतज़ार करते थे।  लिखकर भूल जाना भला कोई बात हुई !!!




6 टिप्पणियाँ:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

अपने आपसे एकाकार होना ही हम भूल चुके हैं,
बचपन को याद करना भूल चुके हैं...
++
लिंक के सहारे शेष पोस्ट अभी पढ़ी जाएँगी... कविता मन को भा गई.. :)
सुन्दर प्रस्तुति

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

डर भी पनपने लगा है
कहीं पेड़ पौंधों हवा को
भी ना भा जाये वो सब
जो चल रहा है बाहर और अंदर ।

सुंदर प्रस्तुति ।

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
आभार!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

यह सिलसिला चलता रहे ... :)

कौशल लाल ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति ...

सदा ने कहा…

Sarahneey prastuti.....

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