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बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

अवलोकन 2014 (15)



जो लिखा जाये, वह गुम नहीं होता
कोई सन्नाटे सा चेहरा उसे पढता जाता है  ... 



"प्रेम कविता लिखते हुए"


मुकेश पांडेय http://mukeshpandey87.blogspot.in/
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मुझे एक प्रेम कविता लिखने को कहा गया।
मैंने अपनी जेबों में हाथ डाला,
स्मृतियाँ टटोलीं, अनुभवों के जितने थे
गढ़े मुर्दे उखाड़े व सन्दर्भों के सभी चिठ्ठे फाड़ डाले,
लेकिन अतीत से कुछ भी विशेष हासिल न कर सका!

न ! प्रेम से मुझे कोई पैदाशयी नफरत नहीं रही,
अरे मेरा तो जन्म ही प्रेम के आधार पर हुआ था।
प्रेम के चरम पर ही तो मैंने विभत्सता, द्वेष व ईर्ष्या
जैसे अत्यधिक भौतिक शब्द(दुनियादारी के लिए सटीक) सीखे,
नफरत भी!

सच तो ये है कि
मैं जब-जब रोया या तो प्रेम के अभाव में
या प्रेम भाव में रोया।
व प्रेम ने ही तो मुझमे
संवेदना जैसा बहुत ही गैर ज़रूरी बीज भी बोया।

मैं कभी सही गलत का अंतर नहीं समझ पाया
बल्कि सीखा पक्षपात करना,
प्रेम को आधार बना कर मैंने कमज़ोर मित्र बनाये,
(अपनी असफल छवि से
निजात पाने हेतु तैयार कई सफल क्लोन!)
और उनमे बेहतर खुद को ढूँढा।

मैंने ईश्वर को प्रेम से सम्बोधित कर
पूरी इंसानियत को नकार दिया,
पुण्य को हमेशा पाप से ऊपर आँका,
व प्रेम के बदले प्रेम चाहा।
(इस तरह मैंने प्रेम की मौलिकता का हनन किया।)
मुझे तैरना नहीं आता था
परन्तु मैंने प्रेम के अनकंडीशनल होने का दावा किया
और इस तरह एक उत्तम तैराक को डुबोना चाहा।

मैंने प्रेम को मनगढ़ंत तरीकों से अभिव्यक्त किया।
प्रेम पर कई परिभाषाएं गढ़ दीं,
व उसे अपेक्षाओं के तराज़ू पर रखा।
मैंने प्रेम से लेन-देन व सौदाबजी करना सीखा,
व किसी पाखंडी धर्म प्रचारक की तरह
प्रेम को प्रेम कह कर ताउम्र वाह-वाही बटोरी।
(इस तरह भावनाओं के बाज़ार का सबसे बड़ा व्यापारी बना।)

परन्तु सच तो ये है कि मैं जीवन भर प्रेम के अर्थ से छला गया
व प्रेम की चिकनी सतह पर बार-बार बार फिसला।
मैंने अपना प्रेम दूसरों पर अहसानों की तरह थोपा
व बदले में उनसे सूद बटोरना चाहा।
पहले मैंने दुखी होना सीखा व फिर दुखी रहना।

और इस तरह प्रेम बिंदु से शुरू कर
दुख, अवसाद, कुंठा, निराशा व घृणा तक का सफ़र तय किया
व अंतत: प्रेम में लिप्त ईश्वर को पूजते-पूजते नकार दिया।
   



अहिल्या के प्रश्न

नील परमार http://the-blue-clue.blogspot.in/


क्या मूल्य ?
क्या नैतिकता ?
क्या प्रेम ?
क्या न्याय ?
कौन हो दण्ड का भागी?
कहो महिर्षि गौतम
इन्द्र?
चन्द्र?
मै ?
या हर न्यायाधीश ?

हर पत्थर मुक्त हो जाता है
अपनी जड़ता से
लेकिन कितने युगों के बाद?
जाने किसके स्पर्श से?

जीवन के वर्तुल में
एक श्राप को काटता
एक दूसरा श्राप.
ये कैसा न्याय है ?

क्या तुम्हारा अभिमान नही समझता इतना भी
कि ठोकर से पत्थर वापस मनुष्य नही बनता
मनुष्यता पत्थर हो जाती है
और इतिहास कलंकित.

हे क्रोधोन्मत्त व्रतानुरागी
मै अहिल्या नही
इतिहास हूँ.
मेरे प्रश्नों को भस्म नही कर सकते तुम्हारे श्राप
ना वो अनैतिक हो जाते है तुम्हारे कहने पर.

अवतार मुक्त करेगा
मुझको
या तुमको?

तुम्हारा श्राप मुक्त नही न्यूटन के तीसरे नीयम से
जाओ
सिसीफस से पूछो
क्या एक दिन हर श्राप की मियाद पूरी हो जाती है ?

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

अवलोकन 2014 (14)



हँसते हुए किसी बात पर 
मैंने उसे हल्का नहीं बनाया 
सुननेवाले ने बना दिया 
मैंने तो बस उस पल को जी लिया 
जिसमें दर्द का सैलाब था 
दर्द पर खुद हँस लेना 
हँसा देना 
  … हल्कापन नहीं होता 


स्नेह-ऋण

प्रतुल वशिष्ठ [prat_blog.GIF]http://darshanprashan-pratul.blogspot.in/

शरद निशा में
काँप रहा तन
थर-थर-थर-थर
मैं बिस्तर में सिमट गया
तन फिर भी शीतल
तभी कहीं से आया लघु
एक स्वप्न प्यारा
पिय ने मेरी दशा देखकर
मारी स्नेह धारा
उस गरमी से दहक उठा
मेरा शीतल तन
चलि*
उर में जो ठहर गई थी
मेरी धड़कन
पौं फटने में रहे
मात्र अब थोड़े ही पल
और अधिक बन गया भुवन
शीकर में शीतल
भोर भई
भानु भी भय से
भाग रहे भीरु बन
कड़क शीत में
कर-पिया से
माँग रहे स्नेह तन
भानु
पिया के आँचल में
छिप गया सिमटकर
हुआ कपिल रंग
था अब तक जो
भगवा दिनकर
स्नेह ताप से गर्म किया
दिनकर ने निज तन
उर में छाई धुंध
छँटी और बढ़ा सपन
ह्रदय धुंध हटते ही पिय का
स्नेह हटा निज उर से 
सम्भवतः छिप गया
ओट पाकर के
निज उर-सर से
व्याकुल हो पूछा तब मैंने
"उर-सर! कहाँ छिपा है
'पिय का ऋण'
जिससे ठंडा निज
तन-मन बहुत तपा है
आप बता दें तो मिल जाए
ढाँढस मेरे हिय को।
आज नहीं तो
कल उधार
लौटाना है पिय को।"
 (आगे का स्वप्न कहीं लापता हो गया है। मिलते ही आपसे मिलवाने लाऊँगा।)


पचास की वय पार कर

 सुशील कुमार http://words4me.blogspot.in/
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पचास की वय पार कर 
मैं समझ पाया कि 
वक्त की राख़ मेरे चेहरे पर गिरते हुए 
कब मेरी आत्मा को छु गई, अहसास नहीं हुआ 

उस राख़ को समेट रहा हूँ अब दोनों हाथों से 

2.
दो वाक्य के बीच जो  विराम-चिन्ह है 
उसमें उसका अर्थ खोजने का यत्न कर रहा हूँ 

3.
मेरे पास खोने  को  कुछ नहीं बचा  
समय उस पर भारी होगा 
जो समय का सिक्का चलाना चाहते हैं 

आने दो उस अनागत अ-तिथि को 
उसके चेहरे पर वह राख़ मलूँगा 
जिसे मैंने अपने दोनों हाथों से बटोरी है  

4.
जितने दृश्य दर्पण ने रचे थे 
वह सब उसके टूटने से बिखर गए 
रेत पर लिखी कविताएँ 
लहरें अपने साथ बीच नदी में ले गई  

अब जो रचूँगा, सहेजकर रखूँगा 
हृदय के कागज पर अकथ लिखूंगा 

5. 
यह कालक्रम नहीं 
समय के दो टूकड़ों के बीच की रिक्ति है 
अथवा कहो- क्रम-भंग है,
एक विभाजन-रेखा है 
इसमें अनहद है अनाहत स्वर है
नि: शब्द संकेत-लिपि है 
कविता का बीज गुप्त है इसमें !  


ज़िन्दगी ख़तम कहाँ होती है...

निखिल श्रीवास्तव http://ankahibaatein.blogspot.in/
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एक किसान था...
खेत बेचा था एक
सींचना था बड़ा सा दूसरा खेत
दाम कम मिले थे
पर उम्मीद थी एक दिन
वो फसल लहलहाएगी।

साल भर अपने बच्चों के साथ
खून से सींच डाला खेत
और साल भर बाद
देखकर अपने लहलहाते खेत
कहता था अपने बच्चों से
आएँगी बहार उनके जीवन में

पढ़ने जायेंगे खेत की
पगडंडियों से दूर
खुद की एक राह बनायेंगे

रात में ख्वाब घुल पाते
किसान के अरमानों को
एक अदद बार दोहरा पाते
सरसों के कोपल खुल पाते

कि एक जालिम रात गुज़री
उसकी ज़िन्दगी से होकर

सुबह तपिश बेपनाह थी
ज़िन्दगी का एक टुकड़ा
जल रहा था फसल के साथ

पीली ख़ुशी काली राख बन गयी
कुछ लोग बोले...ज़िन्दगी
का ये अंत तो नहीं।

कुछ आंसू गिरे
कुछ पोछ लिए गए
कुछ सूख के गालों पे
इक लकीर छोड़ गए

बच्चों ने बांध ली गठरी।
छोड़ दी किराये की वो कोठरी
भूल गए ख्वाब वो हसीन

बाप की राख नदी में
प्रवाहित कर वो भी किसी
सेठ की इमारत में ईंट
लगा रहे हैं...

ज़िन्दगी ख़तम कहाँ होती है...

माँ को अब भी उम्मीद है
किराये की छत से निकल
अपना घर बनाने की...

एक किसान तो था...


शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

अवलोकन 2014 (13)



प्रेम में जीने के लिए 
प्रेम बुनना होता है 
मन और आँखों की सलाइयों पर 
शब्दों को प्रेम की आग में तपाकर 
कुंदन बनाना होता है  … 


गुब्बारे का ब्रह्मांड 

अनुपम ध्यानी http://journying.blogspot.in/
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जीवन का वेग 
मुझे निचोड़ रहा है
मेरे हाथ काँप रहे हैं
स्पर्धा में पीछे आने का भय
मुझे कचोट रहा है
मैं तो विफलता का ध्वज भी
अट्टहास के साथ लहराता था
पर अब वो ध्वज  भी 
मुझे फंदे जैसा घोट रहा है

एकांत में जा के मैने
कुछ बातें बचपन की याद की
जब पहली बार पिताजी 
गुब्बारा लाए थे
और कहा था
"साँस भरो बेटा...लंबी साँस
इस क्रिया में हर क्षण का करो आभास
और फूँक दो प्राण इस गुब्बारे में
मिला दो मिठास, खारे में"

अपने छोटे फेफड़ों में मैने
स्वास भरा
पूरा, लंबा..
और सिकोड दिए प्राण
फिर गुबारे के छोर को मूह से लगा
छोड़ दिए पूरे वेग से स्वास के बाण
जैसे जैसे हवा गयी, गुब्बारा फूला
ब्रह्मांड रूपी, चमकदार
मेरी पहली रचना का बना जैसे आधार
फूलते साथ ही पर पिताजी ने
किया एक सुई से प्रहार
फुस्स...
आशा
हर ओर निराशा
आंसूओं के खारेपन ने 
चहु ओर दुख तराशा
मैं बिलकते हुए पूछा
"आपने क्यूँ मेरा गुब्बारा फोड़ा
क्यूँ मेरे प्रयास को तोड़ा
क्यूँ मेरा गुब्बारा ना बनने दिया
क्यूँ सब उम्मीद को मरोड़ा?"

पिताजी ने स्नेह से गले लगाया
फिर रहस्य खोला
"बेटे, साँस तुम्हारी छाती में है
उसे गुब्बारे में क्यूँ समेटना?
ब्रह्मांड चहु ओर है, उसे 
परिधि में क्यूँ लपेटना?
गुब्बारे में हवा
एक दिन बासी हो जाएगी
फिर कोई सुई चुभो देगा
ज़िंदगी, उदासी हो जाएगी
एकत्र करते करते 
अपना स्वास ना व्यर्थ कर
इसे गुबारे में भर कर
ब्रह्मांड का अर्थ, न अनर्थ कर
स्वास ब्रह्मांड का हिस्सा है
उसे एकत्र नहीं किया जाता
जो सब ओर है उसे गुबारे में भर कर तो
सर्वत्र नहीं किया जाता"
मुझे तो तब गुबारे की पड़ी थी
पिताजी की निर्दयता 
और मेरे आँसुओं की दीवार
हमारे बीच खड़ी थी.

अब समझा हूँ....
एकत्र करते करते
गुबारे फुलाते फुलाते
साँस फूल गयी है
जो स्वास उड़ान के काम आना था
वो गुब्बारों में भरा है
जीवन स्थिर खड़ा है
भौतिक चीज़ों का गुब्बारा
समाज का गुब्बारा
परिवार का गुब्बारा
ब्रह्माड़ मेरा गुब्बारों में भरा है
कई बार यह गुब्बारे 
सुई से चुभो भी दिए हैं
मैं फिर उन्हे भर देता हूँ
जीवन जीना का "कर" देता हूँ

अब सारे गुब्बारे मैं स्वॅम फोड़ दूँगा
मुझे स्वतंत्र होना है
साँस भरनी है और उड़ना है
पीछे नहीं मुड़ना है
पंख फैलाना है, जिसमे शान है
स्वतंत्र जीवन ही महान है
जहाँ
ना गुब्बारे हैं, ना बंदी ब्रह्माड़ है

पिट्टू (pittoo) का सच

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तमाम दुनिया का चक्कर लगा कर
सबसे जीत, खुद से हार कर
थके पांवों से जब मैं अपने शहर लौटा
तो ज़रा मायूस लौटा.

सच की तलाश में जो सफ़र था जिया 
वो सफ़र आज घर लौट रहा था
सारी कायनात में खोजा जिस सच को
वो कहीं नहीं मिला
बादलों से रास्ते पूछे
पर्वतों से पते निकाले
वादियों की सरगोशियों में इसके किस्से सुने
मगर जो भी मिला, जितना भी मिला 
कुछ उखड़ा उखड़ा सा मिला 
झूठ की परतों पर परतें मिलीं
चेहरों पर गिले-शिकवे, झगडे और समझौते
गालों पर सूखे आंसुओं के निशाँ
आँखों में दर्द के साये पलते हुए मिले
कहीं सच नहीं मिला 
कहीं ख़ुशी नहीं मिली 
कहीं खुदा नहीं मिला

आज जब थक-हार कर
अपने घर के करीब पहुंचा
तब ध्यान मोहल्ले में खेलते हुए बच्चों पर गया
करीने से रखे हुए पिरामिड के आकर में पत्थर के ऊपर पत्थर
एक गेंद हवा में
लहराती हुई
उन छोटे पत्थरों से टकराती हुई
हवा में उछलते हुए पत्थर
कुछ बच्चे गेंद की ओर भागते हुए
तो कुछ बच्चे पत्थरों को वापिस जमाने की ताक में 
"पिट्टू (pittoo) बना!", "बॉल मार!", का शोर
बच्चों का ध्यान खेल पर था
और मेरा बच्चों पर
इतनी शिद्दत से मैंने ज़िन्दगी में कभी कुछ नहीं चाहा था
जितनी शिद्दत से ये बच्चे पिट्टू बनाना चाह रहे थे
मानो उनकी दुनिया बस उस एक पत्थरों के पिंड - "पिट्टू" पर टिकी हो

ध्यान लगाना इसी को तो कहते हैं
यही चाबी है
यही 'सच' है.

मैं हँस पड़ा
खामखा सच की तलाश में इतना भटका!

    
  कोई आयेगा 
  ----------------------

"ज्योति खरे"   http://jyoti-khare.blogspot.in/
मेरा फोटो
                               
 बीनकर लाती हैं                                
 जंगल से                              
 कुछ सपने                            
  कुछ रिश्ते                            
 कुछ लकड़ियां--                              
 टांग देती हैं
 खूटी पर सपने
सहेजकर रखती हैं आले में
बिखरे रिश्ते
 डिभरी की टिमटिमाहट मेँ
 टटोलती हैं स्मृतियां--
                                
 बीनकर लायीं लकड़ियों से
 फिर जलाती हैं 
विश्वास का चूल्हा 
      कि कोई आयेग
  और कहेगा
      अम्मा
  तुम्हे लेने आया हूं
     घर चलो
  बच्चों को लोरियां सुनाने------


                                                          

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

अवलोकन 2014 (12)




किसी याचक को द्वार से लौटाना सही नहीं है 
और यह एक सामान्य सीख है 
पर याचक वह हो 
जिसने जीवन की शांति को मटियामेट कर दिया हो 
उसके लिए यह सीख एक मखौल है  … 



एहसासों की खिड़कियाँ ...

सीमा सिंघल http://sadalikhna.blogspot.in/

बड़ी तीक्ष्‍ण होती है
स्‍मृतियों की
स्‍मरण शक्ति
समेटकर चलती हैं
पूरा लाव-लश्‍कर अपना
कहीं‍ हिचकियों से
हिला देती हैं अन्‍तर्मन को
तो कहीं खोल देती हैं
दबे पाँव एहसासों की खिड़कियाँ
जहाँ से आकर 
ठंडी हवा का झौंका
कभी भिगो जाता है मन को
तो कभी पलकों को
नम कर जाता है 
...
कुछ रिश्‍तों को
कसौटियों पर
परखा नहीं जाता
इन्‍हें निभाया जाता है
बस दिल से
स्‍मृतियों को कभी
जगह नहीं देनी पड़ती
ये खुद-ब-खुद
अपनी जगह बना लेती हैं
एक बार जगह बन जाये तो
फिर रहती है अमिट
सदा के लिए


काश, कभी सच हो पाता मेरा ये सपना

नित्यानंद गायेन http://merisamvedana.blogspot.in/

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दिनभर की थकान के बाद 
जब घुसता हूँ 
अपने दस -बाई -दस के कमरे में 
फिर मांजता हूँ बर्तन 
और गूंथने लगता हूँ आटा 
सोचता हूँ 
रोटी के बारे में 
तब यादे आते हैं कई चेहरे 
जिन्हें देखा था खोदते हुए सड़क 
या रंगते हुए आलिशान भवन 
तब और भी बढ़ जाती है
मेरी थकान
और मैं सोचता हूँ
उनकी रोटी के बारे में

जी चाहता है
बुला लूं एक रोज उन सबको
और अपने हाथों से बना कर खिलाऊ
गरम -गरम रोटियां

काश, कभी सच हो पाता मेरा ये सपना
उस  दिन मैं सबसे खुश होता इस देश में .


''सर्वकालिक विद्वता''

शिखा कौशिक 'नूतन' http://shikhakaushik666.blogspot.in/

''अंत ''
हाँ इस जीवन का अंत
निश्चित ,निःसंदेह होना ही है !
फिर भी
सुखों की लालसा में दूसरों को दुःख देना ,
अपने और अपने ही हित को देखना ,
 मैं तो अमर हूँ ये सोचना ,
 मृत्यु को धोखा देता ही रहूंगा !
दुसरे के विपदामयी जीवन पर मुस्कुराना !
मूर्खता है ,
कभी
गरीब को दुत्कारना ,
लोभवश अमीर को पुचकारना  ,
उनके साथ बैठकर गर्व का अनुभव करना ,
माया का जाल है !
तो
अब ये सोचो कैसे प्रभु के प्रिय बने ?
कैसे अपने ह्रदय में सिर्फ उनको धरें ?
ह्रदय में उनकी भक्ति बसाएं ,
उनकी भांति पूरे विश्व के प्रति ह्रदय में सद्भाव लाएं ?
ये ही विद्वता है
हाँ ! सर्वकालिक विद्वता !

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

अवलोकन 2014 (11)




भय एक अव्यक्त सोच है 
जो उन सारी संभावनाओं से डरता है 
जिनसे हम नहीं डरने की बात करते हैं  … 


बच्चों की परवरिश के सही मायने समझें हम

डॉ. मोनिका शर्मा meri-parwaz.blogspot.in
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मॉल के एक मंहगे से आउटलेट के सामने पांच साल के एक बच्चे ने पानी की खाली बोतल ठोकर मार कर उछाल दी । बोतल उस क़ीमती सामान वाली दुकान के दरवाज़े पर खड़े गार्ड के मुंह पर जाकर लगी । देखकर लगा कि गार्ड के चेहरे पर मजबूरी मिश्रित गुस्सा था पर उसने कुछ कहा नहीं । ये सारा खेल वहीँ खड़े संभ्रांत परिवार के दिखने वाले पढ़े लिखे माता पिता ने भी देखा । मुझे हैरानी इस बात पर हुई कि सब कुछ देखने बाद भी उन्होंने बच्चे को कुछ नहीं कहा । फिर सोचा कि संभवतः यहाँ पब्लिक प्लेस में बच्चे को कुछ नहीं कहना चाहते होंगें । जब ध्यान से देखा तो पाया कि उन्होंने तो बच्चे की इस हरकत को उसका सामान्य खेल ही  समझा है । तभी तो ख़ुशी ख़ुशी लाडले का हाथ पकड़ा और वहां से चले गए । ऐसे में मन में यह विचार आया कि कम से कम उन्हें उस गार्ड से जो कि पूरी जिम्मेदारी और मुस्तैदी से अपना काम कर रहा था, माफ़ी तो ज़रूर मांगनी चाहिए थी । मन में ये सवाल भी उठा कि उस गार्ड के मुंह पर जाकर लगी बोतल के बारे में जिन अभिभावकों ने सोचा तक नहीं वे अगर बच्चा घर का कोई छोटा सा सामान या गैजेट तोड़ दे तो क्या इसी तरह चुप रहेगें और अपने सभ्य व्यवहार को बनाये रखेंगें ? 

सवाल ये है कि जब हम बच्चों को मनुष्यता का मान करना ही नहीं सीखा रहे हैं तो वे कैसे नागरिक बनेगें ? यह एक अकेला मामला नहीं है । ऐसी कई घटनाएँ इन दिनों में देखीं तो लगा कि आजकल बच्चे बेधड़क यही सीख रहे हैं कि उन्हें ना तो किसी के श्रम का मान करना है और ना ही उम्र का लिहाज । जबकि मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं बालमन पर छोटी छोटी बातों का गहरा असर पड़ता है । उनकी सोच और समझ की दिशा बचपन में मिली सीख से ही दृढ़ता पाती है । निःसंदेह ये समझाइश सकारात्मक होगी तो बच्चों की सोच और व्यवहार को भी सही दिशा मिलेगी । ठीक इसी तरह यदि उन्हें ऐसे समय पर टोका न जाय तो उनकी सोच और आचरण नकारात्मक मार्ग ही पायेंगें । हमारे आसपास होने वाले ऐसे वाकये इसी बात को पुख्ता करते हैं कि जाने अनजाने अभिभावक ही बच्चों को इंसानियत से ज़्यादा का चीज़ों का मान करना सीखा रहे हैं । ऊँच-नीच और छोटे-बड़े का भेद बता रहे हैं । अब यह समझना तो किसी के लिए भी मुश्किल नहीं कि वे किस आधार पर दूसरों को कमतर या बेहतर समझ रहे हैं या अपनी नई पीढ़ी को समझा रहे हैं ?   

हमारे परिवेश में आये दिन होने वाली अमानवीय घटनाओं को लेकर हम चिंतित रहते हैं । सरकार को कोसते हैं । कानून की कमज़ोरियों की दुहाई देते हैं। पर इन सबके बीच भूल जाते हैं तो बस ये कि अभिभावक होने के नाते बच्चों की फीस और ज़रूरत का सामान जुटाने के अलावा भी हमारी कुछ जिम्मेदारियां है । जिम्मेदारियां, जो सही ढंग से न निभाई जाएँ तो बच्चों का व्यक्तित्व कुछ ऐसा बनेगा जो न केवल अभिभावकों को बल्कि परिवार और समाज को भी प्रभावित करेगा । मन में किसी के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता न होना समाज में पनपने वाली अधिकांश समस्याओं की जड़ है । क्या हमें बच्चों में इस विचारशीलता और सही बर्ताव का आधार बनाने की आवश्यकता नहीं ? छोटी सी उम्र में ही व्यवहार की उग्रता और असंवेदनशीलता आगे चलकर उन्हें हर तरह जिम्मेदारी से उदासीन और भावशून्य ही बनाएगी । मैं जो कह रही हूँ वो कोई नया विचार नहीं है । बच्चों के पालन पोषण को लेकर यह बात शायद हज़ारों बार कही और सुनी गयी है । इस दौरान अभिभावक और सचेत और शिक्षित भी हुए हैं । पर हम सब कहीं गुम हैं । समझ और सहूलियत होने के बावजूद भी अपनी ही जिम्मेदारी के प्रति उदासीन ।  हाँ,  चेतते ज़रूर हैं, पर अक्सर देरी हो जाने के बाद । जबकि ज़रुरत इस बात है कि हम समय रहते चेतें और बच्चों की परवरिश के सही मायने समझें । 


मैं कौन हूँ ?

'रंजना' रंजू भाटिया http://ranjanabhatia.blogspot.in/

मैं कौन हूँ "? यह सवाल अक्सर हर इंसान के दिल में उभर के आता है कुछ इसकी खोज में जुट जाते हैं ...और कुछ रास्ता भटक कर दिशाहीन हो जाते हैं .यह "मैं "की यात्रा इंसान की कोख के अन्धकार से आरम्भ होती है और फिर निरन्तर साँसों के अंतिम पडाव तक जारी रहती है ....यही हमारे होने की पहली सोच है चेतना है जो धीरे धीरे ज़िन्दगी के सफ़र में परिवार से समाज से धर्म से और राजनीति से जुडती चली जाती है ..मैं शब्द ही अपने अस्तित्व को बचाने की एक पुरजोर कोशिश ..और एक ऐसी वाइब्रेशन जो खुद से खुद को  
एक होने के एहसास से रूबरू करवा देती है ...और जब यह तलाश पूरी होती है तो दुनिया को रास नहीं आती है ..मैं मीरा बन के जब जब पुकार करती है तब तब समाज अपने अहम् को ले कर सामने आ जाता है ...जब जब यह मैं की चेतना जागती है तब तब जहर के प्याले होंठो से लगा दिए जाते हैं ..पर न यह खोज रूकती है न यह मैं का ब्रह्मनाद रुकता है यह तो बस नाच उठता है ..पग में बंधे घुंघरू में और नाद बन के जग देता है अंतर्मन को 
खुद में खुद को पाने की लालसा 
खुद में खुद को पाने की तलाश
उस सुख को पाने का भ्रम 
या तो पहुंचा देता है
मन को ऊँचाइयों में 
या कर देता है
दिग्भ्रमित
और तब
लगता है जैसे
मानव मन पर
कोई और हो गया है ..........

यदि यह मैं कौन हूँ का सवाल मिल जाता है तो इंसान बुद्धा हो जाता है ..और नहीं मिलता तो तलाश जारी रहती है ..इसी तलाश में जारी है मेरी एक कोशिश भी ..

सुबह की उजली ओस
और गुनगुनाती भोर से
मैंने चुपके से ..
एक किरण चुरा ली है
बंद कर लिया है इस किरण को
अपनी बंद मुट्ठी में ,
इसकी गुनगुनी गर्माहट से
पिघल रहा है धीरे धीरे
 "मेरा "जमा हुआ अस्तित्व
और छंट रहा है ..
मेरे अन्दर का
जमा हुआ अँधेरा
उमड़ रहे है कई जज्बात,
जो क़ैद है कई बरसों से
इस दिल के किसी कोने में
 भटकता हुआ सा
मेरा बावरा मन..
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी "मैं "ख़ुद को
युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
"मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!


वृक्ष

अनुज अग्रवाल मेरा फोटोhttp://apathlesstraveler.blogspot.in/

और फिर जैसे सिलने के बाद
दर्जी उलट देता है कमीज को अन्दर से बाहर
कुछ वैसे ही ईश्वर ने पलट दिया सृष्टि को !
अब पहाड़ 
छुपाये बैठे हैं
सबसे गहरी बात अपने शिखरों पर
सागर लबालब भरे हैं भावनाओं से
और पृथ्वी बोध की सबसे शुद्ध प्रतिमूर्ति है !
पौधे प्रकृति की कविताएँ हैं
जो बहुत लम्बी ना जाकर
सीधे पहुँचती है उद्देश्य तक
और अपने पराग छोड़
महका देती हैं ह्रदय को !
और वृक्ष
वृक्ष वो सच्ची कहानियाँ है
जो सदियों से चली आ रही हैं ,
कहानियाँ
जीवंत एहसास की
सुदृढ़ विश्वास की
उस मुक्त प्रकाश की
जिसको देखता है वृक्ष हर पल
उस खुले आकाश की
जिसमें सब ओर फैलती है शाखाएँ संसार की
उस स्वच्छंद हवा की
जिसमें साँस लेते हैं हज़ारों पत्ते हर समय
उस छाँव की
जिसमें सुरक्षित है जीवन
उस खामोश उपस्थिति की
जो बचाए रखती है नमी को किसी भी बंजर प्यास से !

वृक्ष वो सच्चा उपन्यास है
जिसके पन्नों में ख़ुशी ख़ुशी गुज़र जाता है बचपन !

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

अवलोकन 2014 (10)



दृश्य प्रायः दो होते हैं 
एक शांत, एक अशांत 
हम चयन ही करते हैं अशांत दृश्यों का 
पूरी ज़िन्दगी का सार 
सिर्फ अशांति नहीं होती 
पर हम अक्सर उसीमें घिरे होते हैं 
उसी की चर्चा करते हैं 
सोचिये -
क्या समय ने सिर्फ यही दिया है ?
यदि आप गिरे हैं 
तो किसी ने मरहम लगाया है 
किसी ने मरहम नहीं लगाया 
तो वक़्त ने आपको सहना सिखाया है 
एक पहचान दी है 
… खाली हाथ आप कभी नहीं होते 



समांतर रेखाएँ

.........ऋता शेखर 'मधु' ऋता शेखर 'मधु' http://madhurgunjan.blogspot.in/

अन्तर बना कर चलने का भी
गणित में बहुत सार्थक वजूद है
सैद्धान्तिक रूप से 
दो समांतर रेखाएँ
आपस में 
नहीं मिलतीं
पर चलती हैं साथ साथ
बिना दो रेखाओं के 
समांतर शब्द का अर्थ नहीं

दो भिन्न स्वभाव के लोग
जब भी साथ चलते हैं
उनके बीच दूरी रहती है
पर यह न समझो
उन्हें दूसरे की परवाह नहीं
परवाह है तभी तो साथ हैं

और गणितज्ञ यह भी कहते हैं
समांतर रेखाएँ अनंत में मिलती हैं

तो हे प्रभु,
यही आशा और विश्वास
हमारे साकार और
तुम्हारे निराकार रूप को
अनंत में एकाकार करेंगे
और तब सिद्ध हो जाएगा
पूजा और आस्था का समांतर होना|





सन छियासठ में .......मृदुला प्रधान मेरा फोटोhttp://blogmridulaspoem.blogspot.in/
इसे छोड़ दूं तो वो आती हैं .……उसे छोड़ दूं तो ये आती हैं  ,ये यादें भी अजीब हैं.……. पीछा ही नहीं छोड़तीं....... 

सन छियासठ में 
'सिलीगुड़ी' में,कितने कम में 
घर चलाते थे,
एक रूपये का पाव 
मछली खाते थे.……. 
तब दिल्ली कितना 
खुशगवार था,
कलकत्ते में कितना 
प्यार था,
इंगलैंड की सुबह में 
कितना लावण्य था,
कन्याकुमारी की शाम में 
कितना सौन्दर्य था.……. 
कितना रोमैंटिक था 
नील नदी का किनारा 
रातों में,
मज़ा कितना रहता था 
इंडो-सूडान क्लब की 
बातों में.……. 
हाँ-हाँ.…
वो आसनसोल में.…
ऑफिस-कम-रेसीडेंस था,
ऑफिस और घर का 
अगल-बगल 
इन्ट्रेंस था.…….


उसका मन?

पारुल चंद्रा http://theparulsworld.blogspot.in/


बचपन से पिता की बात मानती
और बाद में पति का कहा सुनती
क्या खुद की कभी सुन पाई है..?

'ये मत करो..वो मत करो'
'शादी के बाद भी बचपना नहीं गया तुम्हारा'
क्या मन का कभी कर पाई है..?

'कैसी पसंद है तुम्हारी.. ये रंग मुझको जंचता नहीं'
'कुछ और पहन लो ये फबता नहीं'
क्या मन का कभी ओढ़ पाई है..?

'ज्यादा पढ़कर क्या करना है
चूल्हा चौका ही तो करना है'
'अब बच्चों को पढ़ाना है या खुद पढ़ना है'
क्या मन का कभी पढ़ पाई है..?

'अरे ये शौक-वौक सब बेकार की बातें'
कुछ घर के लिए करो'
'हमें क्यों बोर करती हो'
क्या सपना कोई सच कर पायी है..?

जो बात माने सबकी तो कितना प्यार पायी है
जो कर ली मन की तो बिगड़ी हुई बताई है
कर्तव्य निभाए सारे तो उसका धर्म है भाई
खुद पर जो दिया ध्यान तो बेशर्म कहलाई है

सपने संजोती थी बचपन से
उन्हें संभाले ससुराल आई है
बोझ से ज़्यादा क़ीमत नहीं है उनकी
अब तक जिन्हें ढ़ोती ही आई है..

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

-अवलोकन 2014 (9)



कुछ भी हो रिश्ते जोड़े रहना 
शायद हर माँ और पिता की यही चाह होती है 
पर,
न पिता अपने रिश्तों संग होता है 
न माँ !
आगे बढ़ते हुए अपने तौर तरीके इतने गहरे होते जाते हैं 
कि दूसरों को (अपना खून ही क्यों न हो) सहजता से लेना 
सहज नहीं रह जाता !


मातृ-भक्ति की शक्ति


किसी समय चीन देश में होलीन नाम का एक नौजवान रहता था। वह अपनी मां का परमभक्त था। बूढ़ी मां की सेवा-चाकरी बड़े भक्ति-भाव से किया करता था। मां को किस समय, किस चीज की जरुरत पड़ेगी, इसका वह पूरा ख्याल रखता था।

एक बार हो-लीन के घर में एक चोर घुसा। जिस कमरे में हो-लीन सोचा था, उस कमरे में चोर के घुसते ही हो-लीन की नीद खुल गई। लेकिन चोर ताकतवर था। उसने हो-लीन को एक खम्बे से कसकर बांध दिया।

पास ही के कमरे में मां सोई थी। इस सारे झमेले में कहीं मां की नींद न खुल जाय, इस ख्याल से हो-लीन चुप ही रहा।

चोर ने उस कमरे में पड़ी एक पेटी खोली औरवह उसमें में सामान निकालने लगा। उसने हो-लीन का रेशमी कोट निकाला और एक चादर बिछाकर उस पर रख दिया। इस तरह वह एक के बाद एक सामान निकालता और रखता गया। हो-लीन सबकुछ चुपचाप देखता रहा।

इस बीच चोर ने पेटी में से ताम्बे काएक तसला बाहर निकला। उसे देखकर हो-लीन का गला भर आया और उसने कहा, "भाईसाहब, मेहरबानी करके यह तसला यहीं रहने दीजिये। मुझे सुबह ही अपनी मां के लिए पतला दलिया बनाना होगा और मां को देना होगा। तसला न रहा तो बूढ़ी मां को दलिए के बिना रह जाना पड़ेगा।

यह सुनते ही चोर के हाथ से तसला छूट गया। उसने भर्राई हुई आवाज में कहा, "मेरे प्यारे मित्र, तसला ही नही, बल्कि तेरा सारा सामान मैं यहीं छोड़े जा रहा हूं। तेरे जैसे मातृ-भक्त के घर से मैं तनिक-सी भी कोई चीज ले जाऊंगा तो मेरा सत्यानाश हो जायगा। तेरे घर की कोई चीज मुझे हजम नहीं होगी।"

यों कहकर और हो-लीन को बन्धन से मुक्त करके वह चोर धीमे पैरों वहां से चला गया।

सम्वेदनाएं प्रत्येक आत्मा को छूती अवश्य है, कुछ मूढ़ और जड उसकी आवाज को अनसुना कर दे्ते है तो कुछ को छू जाती है।


किसी समय चीन देश में होलीन नाम का एक नौजवान रहता था। वह अपनी मां का परमभक्त था। बूढ़ी मां की सेवा-चाकरी बड़े भक्ति-भाव से किया करता था। मां को किस समय, किस चीज की जरुरत पड़ेगी, इसका वह पूरा ख्याल रखता था।

एक बार हो-लीन के घर में एक चोर घुसा। जिस कमरे में हो-लीन सोचा था, उस कमरे में चोर के घुसते ही हो-लीन की नीद खुल गई। लेकिन चोर ताकतवर था। उसने हो-लीन को एक खम्बे से कसकर बांध दिया।

पास ही के कमरे में मां सोई थी। इस सारे झमेले में कहीं मां की नींद न खुल जाय, इस ख्याल से हो-लीन चुप ही रहा।

चोर ने उस कमरे में पड़ी एक पेटी खोली औरवह उसमें में सामान निकालने लगा। उसने हो-लीन का रेशमी कोट निकाला और एक चादर बिछाकर उस पर रख दिया। इस तरह वह एक के बाद एक सामान निकालता और रखता गया। हो-लीन सबकुछ चुपचाप देखता रहा।

इस बीच चोर ने पेटी में से ताम्बे काएक तसला बाहर निकला। उसे देखकर हो-लीन का गला भर आया और उसने कहा, "भाईसाहब, मेहरबानी करके यह तसला यहीं रहने दीजिये। मुझे सुबह ही अपनी मां के लिए पतला दलिया बनाना होगा और मां को देना होगा। तसला न रहा तो बूढ़ी मां को दलिए के बिना रह जाना पड़ेगा।

यह सुनते ही चोर के हाथ से तसला छूट गया। उसने भर्राई हुई आवाज में कहा, "मेरे प्यारे मित्र, तसला ही नही, बल्कि तेरा सारा सामान मैं यहीं छोड़े जा रहा हूं। तेरे जैसे मातृ-भक्त के घर से मैं तनिक-सी भी कोई चीज ले जाऊंगा तो मेरा सत्यानाश हो जायगा। तेरे घर की कोई चीज मुझे हजम नहीं होगी।"

यों कहकर और हो-लीन को बन्धन से मुक्त करके वह चोर धीमे पैरों वहां से चला गया।

सम्वेदनाएं प्रत्येक आत्मा को छूती अवश्य है, कुछ मूढ़ और जड उसकी आवाज को अनसुना कर दे्ते है तो कुछ को छू जाती है।


बहने दो इस ऑरा में अपनी सारी नफरतें...

दर्पण साह http://darpansah.blogspot.in/

प्रेम की एक्सट्रीम क्या है
डूबकर नफ़रत करना

नफ़रत न की तो प्रेम झूठ था तुम्हारा
प्रेम का डायल्यूटेड वर्ज़न था वो सिम सिम कर जलना

अरे
प्रेम के एहसास इतने प्योर थे जब
तो नफरतों को क्या हुआ तुम्हारी?

"जहाँ ऊंचाई होगी तो निचाई भी होगी" कहकर
क्लिशे मत करो ये बात
ऊंचाई के वजह से ही तो निचाई है
गहराई है
जितना ऊँचा होगा तुम्हारा प्रेम
उतनी ही गहरी होनी चाहिए तुम्हारी नफरतें

मैं उन्हें पाखंडी समझता हूँ जो कहते हैं
उनके ह्रदय में प्रेम ही प्रेम है

खून करने की 'सोचो' प्रेम करने की नहीं।
प्रेम स्वतः 'होगा' इस तरह
जला देने की सोचो ये दुनियां
यूँ बस जाए शायद वो

जानो नफ़रत को
वो जानते ही समाप्त हो जायेगी
वो जानकर ही समाप्त होगी
जिस युग का इतिहास युद्ध होगा
प्रेम कविताएँ होंगी उस युग का साहित्य
वही धर्म कहेगा प्रेम की बात
जो धर्म नफ़रत से भरा धर्म होगा

तुमको देखकर आश्चर्य होता है
जब तुम कहते हो
सर्वे भवन्तुः सुखिना
अस्तु तुम दुनियाँ के सबसे दुखी लोग हो

यकीन करो जान जाओगे एक दिन प्रेम
असली प्रेम
ख़ालिस प्रेम
मगर पहले
खुलकर बोलो नफ़रतों के बारे में


कविता : विकास का कचरा


शराब की खाली बोतल के बगल में लेटी है
सरसों के तेल की खाली बोतल

दो सौ मिलीलीटर आयतन वाली
शीतल पेय की खाली बोतल के ऊपर लेटी है
पानी की एक लीटर की खाली बोतल

दो मिनट में बनने वाले नूडल्स के ढेर सारे खाली पैकेट बिखरे पड़े हैं
उनके बीच बीच में से झाँक रहे हैं सब्जियों और फलों के छिलके

डर से काँपते हुए चाकलेट और टाफ़ियों के तुड़े मुड़े रैपर
हवा के झोंके के सहारे भागकर
कचरे से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे हैं

सिगरेट और अगरबत्ती के खाली पैकेटों के बीच
जोरदार झगड़ा हो रहा है
दोनों एक दूसरे पर बदबू फैलाने का आरोप लगा रहे हैं

यहाँ आकर पता चलता है
कि सरकार की तमाम कोशिशों और कानूनों के बावजूद
धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही हैं पॉलीथीन की थैलियाँ

एक गाय जूठन के साथ साथ पॉलीथीन की थैलियाँ भी खा रही है

एक आवारा कुत्ता बकरे की हड्डियाँ चबा रहा है
वो नहीं जानता कि जिसे वो हड्डियों का स्वाद समझ रहा है
वो दर’असल उसके अपने मसूड़े से रिस रहे खून का स्वाद है

कुछ मैले-कुचैले नर कंकाल कचरे में अपना जीवन खोज रहे हैं

पास से गुज़रने वाली सड़क पर
आम आदमी जल्द से जल्द इस जगह से दूर भाग जाने की कोशिश रहा है
क्योंकि कचरे से आने वाली बदबू उसके बर्दाश्त के बाहर है

एक कवि कचरे के बगल में खड़ा होकर उस पर थूकता है
और नाक मुँह सिकोड़ता हुआ आगे निकल जाता है
उस कवि से अगर कोई कह दे
कि उसके थूकने से थोड़ा सा कचरा और बढ़ गया है
तो कवि निश्चय ही उसका सर फोड़ देगा

ये विकास का कचरा है

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

अवलोकन 2014 (8)



सौंदर्य आँखों को तृप्त करता है 
पर उस तृप्ति के बाद उस सौंदर्य को तोडना ही अगला पड़ाव होता है 
और तोड़कर एक विजई भाव 
!!!
........................................ 


'स्वतंत्रता'.....महसूस क्यों नही होती?

प्रीती अज्ञात मेरा फोटोhttp://preetiagyaat.blogspot.in/

सोमवार से लेकर शनिवार तक, हम सभी की दिनचर्या कितनी नियमितता से चला करती है. वही समय पर उठना, रोजमर्रा की दौड़-भाग भरी ज़िंदगी, काम पर जाना, तय समय पर लौटना और सुकून भरे कुछ पलों की तलाश करते हुए एक और सप्ताह का गुजर जाना ! लेकिन शनिवार की शाम से ही हृदय उड़ानें भरने लगता है. एक निश्चिंतता-सी आ जाती है ! बच्चे भी उस दिन विद्यालय से लौटते ही बस्ता एक जगह टिकाकर क्रांति का उद्घोष कर देते हैं. उनके लिए 'स्वतंत्रता' के यही मायने हैं ! 'स्वतंत्रता', 'फ्रीडम' कितने क्रांतिकारी शब्द लगते हैं और 'आज़ादी' सुनते ही महसूस होता है, जैसे किसी ने दोनो कंधों पर पंख लगा खुले आसमान में उड़ने के लिए छोड़ दिया हो. पर सिर्फ़ 'लगता' है, ऐसा होता नहीं ! 'पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना ही आज़ादी है'. पर क्या बिना किसी के हस्तक्षेप के जीना संभव है ? आज़ादी का अर्थ उच्छ्रुन्खलता नही, पर एक स्वस्थ, सुरक्षित और भयमुक्त वातावरण में जीवन-यापन हमारी स्वतंत्रता का हिस्सा अवश्य है. क्या मिली है हमें, ये आज़ादी ?
 
स्व+तंत्र अर्थात मेरा अपना तंत्र, मेरा अपना तरीका, जिसके अनुसार हम काम करना चाहते हैं, जिसमें सहज हैं पर क्या 'कर' पाते हैं ? वो तो दूसरों के हिसाब से करना पड़ता है, किसी और के बनाए क़ायदे-क़ानून ही सही ठहराए जाते हैं. यानी हम उम्र-भर वो करते हैं, जो हुमारे नियम, हुमारे बनाए तन्त्र से पूर्णत: भिन्न होता है. ये कैसी स्वतंत्रता है, जहाँ अनुशासित होना तो सिखाया जा रहा है, सामजिक नियमों का पालन भी ज़रूरी है, सबका सम्मान भी करना है..और कीमत ? ये अधिकतर अपनी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को बेचकर ही अदा की जाती है. क्या तन और मन दोनों के शोषित होने की अवस्था ही स्वतंत्रता है ? ध्यान रहे, यहाँ एक आम भारतीय नागरिक की बात हो रही है, सत्ता के गलियारों में ऊँचे पदों पर आसीन शाही लोगों की नहीं ! इसी 'आम नागरिक' की तरफ से कुछ सवाल हैं, मेरे -
 
* अगर मैं स्वतंत्र हूँ तो मेरी स्वतंत्रता मुझे महसूस क्यों नही होती ? कहीं पढ़ा था कि "स्वतंत्रता, स्वतंत्र रहने या होने की अवस्था या भाव को कहते हैं, ऐसी स्थिति जिसमें बिना किसी बाहरी दबाव, नियंत्रण या बंधन के स्वयं अपनी इच्छा से सोच समझकर सब काम करने का अधिकार होता है".
* तो फिर, किसने छीन ली है मेरी आज़ादी ?, मुझे मेरे कर्तव्य तो हमेशा से दिखते आए हैं, पर मेरे अधिकारों का क्या हुआ ? उन्हें पा लेना मेरी स्वतंत्रता नही ? स्त्री और पुरुष के बीच अधिकार और कर्तव्य का ये कैसा बँटवारा, कि स्त्री के हिस्से में कर्तव्य आए और पुरुषों के में अधिकार? किसने तय की है स्वतंत्रता की ये परिभाषा ? क्या संविधान ऐसा कहता है ?
* मैं रोज ही देखा करती हूँ उसे, कभी कचरे में से सामान बीनते हुए, कभी सर पर स्वयं से भी अधिक बोझा ढोते हुए, कभी  वो किसी होटल में मेहमानों का कमरा साफ करते हुए अपनी 'टिप' के इंतज़ार में दिखता है तो कभी किसी रेस्टौरेंट में बर्तन मांजते हुए चुपके-से एक नज़र दूर चलते हुए टी. वी. पर डाल लिया करता है. मंदिर की सीढ़ियों पर उसे रोते-सूबकते उन्हीं उदार इंसानों की डाँट खाते हुए भी देखा है, जो अपने नाम का पत्थर लगवाने के हज़ारों रुपये दान देकर उसके पास से गुजरा करते हैं, इन सेठों के जूते-चप्पल की रखवाली करता बचपन अपनी स्वतंत्रता किसमें ढूँढे ?
* इन मासूम बाल श्रमिको और आम नागरिकों में बस इतना ही अंतर है, कि हमें अपने अधिकारों का बखूबी ज्ञान है. पढ़े-लिखे जो हैं, क़ानून जानते हैं, सुरक्षा के नियम भी बचपन में ही घोंट लिए थे, तभी दुर्भाग्य से समानता के बारे में भी पढ़ बैठे थे कहीं ! ये तो मूलभूत अधिकार था....बरसों से है ! आख़िर ये समानता इतने बरस बीत जाने पर भी दिखती क्यूँ नहीं ? सब धर्मों को समान अधिकार है, तो कोई दंभ में भर, खुद को श्रेष्ठ ठहराने के लिए इतना लालायित क्यों रहता है ? सब वर्ग समान ही हैं, तो हमारे आसपास रोज ही कोई युवा बेरोज़गार, आरक्षण से इतना निराश क्यों दिखाई देता है ? सुरक्षा का अधिकार है तो अकेले निकलने में डर क्यों लगता है ?
* क़ानून है तो न्याय के इंतज़ार में जीवन कैसे गुजर जाता है? सरेआम अपराध करने पर भी, अपराधी बच क्यों जाता है ?. ये समाज और इसके दकियानूसी क़ानून, कुछ स्थानों की सड़ी-गली मान्यताएँ और उनका पालन करने को उत्सुक पंचायती लोग जो, कर्तव्य-पालन से चूक जाने पर सज़ा देना कभी नही भूलते पर स्त्री के अधिकारों की माँग पर कायरॉं से भाग खड़े होते हैं, सवाल करने पर इन्हें अचानक साँप कैसे सूंघ जाता है? इनके बनाए नियम, ये कभी खुद पर क्यों नहीं आजमाते ?
* कौन है, जिसने स्त्री की स्वतंत्रता को छीनकर कर्तव्य की गठरी और तालाबंद अधिकारों की एक जंग लगी संदूकची उसके दरवाजे रख दी है. वो जब-जब उस संदूकची को खोलने का दुस्साहस करे, तो उसके सर और दिल का बोझ दोगुना कैसे हो जाता है ? अगले ही दिन वो टुकड़ों में पड़ी क्यों मिलती है ?
* कौन सी सरकार है, जो स्त्रियों के आत्म-सम्मान को वापिस देगी ? कौन सा दल है जो चुनाव के वादों के बाद सिर्फ़ 'अपनी' नही सोचेगा ? कौन सी अदालत है, जो निर्भया को निर्भय हो जीना सिखा पाएगी ? 
* कौन से अख़बार या टीवी चैनल हैं, जो निष्पक्ष हो खबरें बताएँगे ? 
.ये सब तो फिर भी परिभाषित हो सकेगा पर मानसिक स्वतंत्रता ? उसे पाने के लिए किस युग में जाना होगा ?
 
मेरी स्वतंत्रता मेरे पास नहीं, मेरे अधिकार मेरे पास नहीं ! मेरे पास भय है..कि मुझे हर हाल में अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, भय है सुरक्षा का, अपने धर्म, संस्कारों के पूर्ण-निर्वहन का...क्योंकि उनको 'ना' कहने की स्वतंत्रता मेरे पास नहीं. मैं विश्वास रखती हूँ हर धर्म में..पर यदि कोई किसी धर्म विशेष के बारे में बुरा बोल रहा है, तो उसे रोकने की स्वतंत्रता मेरे पास नही, मेरे पास उस वक़्त भय होता है, अधर्मी कहलाने का, सांप्रदायिकता फैलाने का ! बाज़ार से गुज़रते हुए मैं सरे-राह क़त्ल होते देख सकती हूँ, शायद कुछ पल ठिठक भी जाऊं, पर संभावना यही है कि मैं डर से छुपकर या अनदेखा कर आगे बढ़ जाऊं ; उस अपराधी को रोकने की स्वतंत्रता नही है मेरे पास ! सिखाया गया है इसी समाज में, कि दूसरे के पचड़ों में न पड़ना ही बेहतर, वरना अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा ! मुझे जान प्यारी है, अपना घर, परिवार, दोस्त सभी प्यारे हैं.....इसलिए मैं दंगों में खिड़कियाँ बंद कर लेती हूँ, हिंसा आगज़नी के दौरान घर से निकलना छोड़ देती हूँ..मैं बलात्कार की खबरें देख सिहर उठती हूँ..और घबराकर बहते हुए पसीने को पोंछ, अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचा करती हूँ..जो मिली तो थी, कई बरस पहले ! हाँ, वर्ष याद है मुझे, सबको याद है. क़िताबें भी इसकी पुष्टि करती हैं ! पर कोई ये नही बताता कि तब जो स्वतंत्रता मिली थी, वो अब कहाँ खो गई ? किसने छीन ली, हमारी आज़ादी ? क्या उन स्वतंत्रता-सेनानियों का बलिदान व्यर्थ गया, जिन्होंनें इसके लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ? मुझे संशय है कि दूर-दराज आदिवासी इलाक़ों में उस 'आज़ादी' की खबर अब तक पहुँची ही नहीं ? उनके हालात तो यही बयाँ करते हैं ! पर फिर भी लगता है कि वे ज़्यादा स्वतन्त्र हैं, अपनी मर्ज़ी का खाते-पहनते हैं, इन्हें लुट जाने का भय नहीं, ये धर्म के लिए लड़ते नहीं, शिक्षा का अधिकार इन्होंने सुना ही नहीं !
 
जो मिली थी कभी, उस 'आज़ादी' का 'खून' तो हम भारतीयों की आपसी लड़ाई ने स्वयं ही कर दिया है ! स्वीकारना मुश्किल है, क्योंकि हमारी मानसिकता दोषारोपण की रही है और इसमें विदेशी ताक़तों का हाथ कैसे बताएँ ?
सच तो ये है कि आम भारतीय के लिए आज का दिन आज़ादी के अहसास से भावविभोर होने से कहीं ज़्यादा, 'छुट्टी का एक और दिन' होना है. जिसके रविवार को पड़ने पर बेहद अफ़सोस हुआ करता है !
आज रविवार नहीं, इसलिए मुबारक हो !
आज के दिन अपने स्वतंत्र होने के भाव को दिल खोलकर जी लीजिए ! देशभक्ति के गीत, लहराता तिरंगा, स्कूलों से मिठाई ले प्रसन्न हो घर लौटते बच्चे, परिवार के साथ समय गुज़ारते हुए कुछ लोगों को देख हृदय बरबस कह ही उठता है - 
स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनाएँ !
नमन उन शहीदों को, सभी वीर-वीरांगनाओं को ! जिनका त्याग और समर्पण हम संभाल न सके ! 
अब भी वक़्त है, आइए अब बेहतर राष्ट्र-निर्माण के लिए एक प्रयत्न हमारी ओर से भी हो ! सच्चे राष्ट्रभक्तों के बलिदानों को हम यूँ व्यर्थ नहीं जाने दे सकते ! एक सफल प्रशासनिक ढाँचा ही हमें सच्ची स्वतंत्रता दिलवा सकता है और इस ढाँचे को बनाने में सभी भारतवासियों का योगदान अत्यावश्यक है ! पहला क़दम उठाना ही होगा ! ईश्वर हम सभी को इस लक्ष्य प्राप्ति में विजयी बनाए, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ, जय हिंद !




सोरोगेट-मदर, उर्वशी और मैं

डॉ. जयप्रकाश तिवारी  http://pragyan-vigyan.blogspot.in/


उर्वशी तो नहीं हूँ मैं ...
क्योकि कुशल नृत्यांगना नहीं
उत्तेजक मेरी भावभंगिमा नहीं
मेरे जीवन में कोई इन्द्र नहीं
मरुत, पावक और चन्द्र नहीं
ऐश्वर्य भोग की भूखी नहीं
मुस्कुराने की चाहत में रूठी नहीं...

और पुरुरवा तो तुम भी नहीं
क्योकि मेरी कोई सौतन नहीं
तुझे राज काज की उलझन नहीं
उसके लिए विरक्ति भी नहीं
मेरे लिए अनुरक्ति भी नहीं.

परंतु...परन्तु...न जाने क्यों..
न जाने क्यों, होकर समर्पिता भी 
तेरी 'उर-बसी' मैं नहीं बन पाई 
छोटी सी चाहत एक नारी की 
जाने क्यों तेरी समझ न आई ,
तुम डुबोते रहे मुझे भोगों के नीर में
थी चाहती डूबना नयनों के झील में 
अस्तु होकर निराश और हताश
आज और अभी ....इसी ...क्षण 
कर रही प्रस्थान तुम्हारे आँगन से
तुम्हारे दिल के खोखले प्रांगन से.

तूने जो कुछ दिया है अब तक
कोई दान, प्रतिदान, दाता बनकर
बदले में उसके सोरोगेट माता बनकर 
लो! आज मैंने लौटा दिया हिया तुम्हे 
सहस्र गुणित कर तेरा ही क्षुद्र अंश
जिससे चल सके तेरा यशस्वी वंश.
जानती हूँ..... इस देश में ....
यह प्रचलन .. कोई नया नहीं है
विदेश में तो अब शुरू हुआ है यह प्रथा
यहाँ सोरोगेट मदर कभी मेनका बनी थी 
कभी उर्वाशी बनी..... और अब मै...

- डॉ. जयप्रकाश तिवारी


खुद से प्यार करती औरतें

दीपिका रानी http://ahilyaa.blogspot.in/
मेरा फोटो


लोगों के लिए अजूबा हैं
खुद से प्यार करती औरतें।

औरत भी पैदा होती है उसी तरह
जिस तरह आता है हर कोई इस दुनिया में।
मगर धीरे-धीरे...
साल-दर-साल...
वह बनती रहती है औरत
जिसकी देह संवारती है कुदरत
और हम मांजते हैं मन को
बड़ी मेहनत से
संस्कारों से सजा-संवार कर।
अधिकार शब्द के कोई मायने नहीं उसके लिए
वह रोज़ रटती है कर्तव्य का पाठ।
उसके भीतर समुन्दर है
मगर वह बैठी है साहिलों पर
किसी लहर के इंतज़ार में।
वह सबके करीब है, बस खुद से अलहदा।

एहतियात के बावजूद
उग ही आती हैं कुछ आवारा लताएं
जो लिपटती नहीं पेड़ों से
फैल जाती हैं धरती पर बेतरतीब।
अपने आप पनप जाती हैं कुछ औरतें
जो प्रेम करती हैं खुद से,
किसी को चाहने से पहले।

वह दिल के टूटने पर टूटती है
बिखरती नहीं।
चांद तारों की ख्वाहिश नहीं उसे
वह चलना चाहती है धरती पर पैर जमाकर।
पहली बारिश में नहाती है,
दिल खोलकर लगाती है ठहाके।
खुद से प्यार करती औरत,
बार-बार नहीं देखती आईना।

छुप-छुप कर हंसती है अच्छी औरत
कनखियों से देखती है उसकी छोटी स्कर्ट।
कभी उससे डरती, कभी रश्क करती
उसके संस्कारों पर तरस खाती हुई
घर ले आती है एक नई फेयरनेस क्रीम।
शाम छह बजे धो लेती है मुंह
संवार लेती है बाल,
ठीक कर लेती है साड़ी की सलवटें।
ठहरी हुई झीलों के बीच
झरने की तरह बहती हैं
खुद से प्यार करती औरतें।

औरों के लिए फ़ना होती औरत
प्रेम के मायने नहीं जानती।
प्रेम करने के लिए उसे ख़ुद बनना होगा प्रेम
जब तक रहेंगी खुद से प्यार करती औरतें
इस दुनिया का वजूद रहेगा।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

अवलोकन - 2014 (7)




अहंकार से सबकुछ नष्ट हो जाता है अंततः 
- मैं भी मानती हूँ 
पर अहंकारियों की शक्ति जल्लाद जैसी होती है 
विनम्रता के कटे सर लेकर अहंकार अट्टहास करता है 
दबी ज़ुबान से विनम्रता की गाथा कही जाती है 
पर उसके पार्श्व से बोलने को कोई नहीं होता  … 


साँकल

शिखा गुप्ता http://shikhagupta83.blogspot.in/

कई नाग फुँफकारते हैं
अँधेरे चौराहों पर
अटकने लगती है साँसों में
ठिठकी सी सहमी हवायें
खौफनाक हो उठते हैं
दरख्तों के साये भी
अपने ही कदमों की आहट
डराती है अजनबी बन
सूनी राह की बेचैनी
बढ़ जाती है हद से ज़्यादा
तब ...
टाँक लेते हैं दरवाज़े
खुद ही कुंडियों में साँकल
कि इनमें क़रार है पुराना
रखनी है इन्हें महफूज़
ज़िंदगी की मासूमियत

संभल  रहना मगर ए ज़िंदगी !
होने लगती है लहूलुहान
कच्ची मासूमियत भी कभी
कुंडी में अटकी साँकल जब
हो जाती है दरवाज़ों से बड़ी



अकाल के बाद

प्रीति सुराना http://priti-deshlahra.blogspot.in/


सुनो!!
अकसर 
अकाल के बाद
सूखी जमीन को देखकर लगता है 
जमीन बंजर हो गई है,.
जबकि 
संभावनांए इंगित करती है
कहीं गहराई में कंही पल रहा है
कोई लावा,..
पर
जरा सी बारिश के आते ही
जमीन नम तो होती है 
लेकिन बढ़ जाती है उमस,..
क्यूंकि 
जमीन को ऊपर से आती बूंदे
शीतल करने की कोशिश करती हैं,..
पर अन्दर सुलगते लावे का ताप उसे वाष्पित करता है,..
हां !!
आज मैंने
खुद महसूस किया,
जमीन बारिश और लावे की 
इस जटिल परिस्थिति को,..
क्यूंकि
अरसे बाद मेरे मन की जमीन पर
आंसुओं की चंद बूंदे बरसी,
और तभी से बढ़ गई मन की बेचैनी,..
शायद
मन की गहराई में दबे पड़े कई संताप,..
जो मौसम की तरह बदली परिस्थितियों में
निकल पड़े आसुओं के कारण उभर आए,..
तभी तो 
रोकर मन शांत होने की बजाय 
जाग उठे दबे हुए सारे दर्द,..
जो छुपा रखे थे सबसे,..मैंने जाने कबसे,..
पर सुनो,..,..!!
अच्छा ही हुआ 
आज चंद बूंदे बरस गई,..
सुना है,..
दबे हुए लावे अकसर ज्वालमुखी बन जाते हैं,..
लेकिन 
मैंने ये भी सुना है
ज्वलामुखी विपदाओं के साथ साथ 
जमीन में छुपे हुई कीमती संपदाओं को भी बाहर लाता है,..
सच कहूं
आज मैं बहुत असमंजस में हूं,..
मेरे लिए ये आंसू अच्छे हैं 
या मन की घुटन,..???
जो भी हो
आज फिर यही समझा है मैंने
हर चीज सिर्फ अच्छी या सिर्फ बुरी नही होती,..
बल्कि सिक्के के दो पहलुओं की तरह होती है,.. है ना !!!!!! ,... 


आवाज़ मौन की

...कैलाश शर्मा http://sharmakailashc.blogspot.in/
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जीवन के अकेलेपन में     
और भी गहन हो जाती
संवेदनशीलता,
होता कभी अहसास
घर के सूनेपन में
किसी के साथ होने का,
शायद होता हो अस्तित्व
सूनेपन का भी.
     ***
शायद हुई आहट           
दस्तक सुनी दरवाज़े पर
पर नहीं था कोई,
गुज़र गयी हवा
रुक कर कुछ पल दर पर,
सुनसान पलों में हो जाते
कान भी कितने तेज़
सुनने लगते आवाज़
हर गुज़रते मौन की.
      ***
आंधियां और तूफ़ान       
आये कई बार आँगन में
पर नहीं ले जा पाये
उड़ाकर अपने साथ,
आज भी बिखरे हैं
आँगन में पीले पात
बीते पल की यादों के
तुम्हारे साथ.

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

अवलोकन - 2014 (6)




अच्छी बातें सीखने में बड़ी परेशानी होती है 
सीधे खड़े रहो,
मुँह मत टेढ़ा करो,
स्थिर बैठो  … 
ऐसी जाने कितनी सीख !
सिखानेवाला उस वक़्त बहुत बुरा लगता है 
पर एक वक़्त आता है 
जब इस सीख से 
एक तराशा हुआ चेहरा निकलता है 


मेट्रो चिंतन..

शिखा वार्ष्णेय http://shikhakriti.blogspot.in/
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मेट्रो के डिब्बे में मिलती है
तरह तरह की जिन्दगी ।
किनारे की सीट पर बैठी आन्ना
और उसके घुटनों से सटा खड़ा वान्या    
आन्ना के पास वाली सीट के
खाली होने का इंतज़ार करता
बेताब रखने को अपने कंधो पर
उसका सिर
और बनाने को घेरा बाहों का।
सबसे बीच वाली सीट पर
वसीली वसीलोविच,
जान छुडाने को भागते
कमीज के दो बटनों के बीच       
घड़े सी तोंद पे दुबकते सन से बाल   
रात की वोदका का खुमार.
खर्राटों के साथ लुढका देते है सिर
पास बैठे मरगिल्ले चार्ली के कंधे पे         
तो उचक पड़ता है चार्ली                  
कान में बजते रॉक में व्यवधान से।
और वो, दरवाजे पर किसी तरह
टिक कर खड़ी नव्या                                  
कानों में लगे कनखजूरे के तार से जुड़ा
स्मार्ट फ़ोन हाथ में दबाये
कैंडी क्रश की कैंडी मीनार बनाने में मस्त
नीचे उतरती एनी के कोट से हिलक गया
उसके कनखजूरे का तार
खिचकर आ गई डोरी के साथ
तब आया होश जब कैंडी हो गई क्रश।
सबके साथ भीड़ में फंसे सब
गुम अपने आप में       
व्यस्त अपने ख्याल में 
कुछ अखबार की खबर में उलझे
दुनिया से बेखबर।
और उनके सबके बीच "मैं "
बेकार, बिन ख्याल, बिन किताब
घूरती हर एक को
उन्हें पढने की ताक़ में. 



शीशे पर निशान उभरे हैं या मेरे हृदय पर

उपासना सियाग http://usiag.blogspot.in/

हर रोज़
एक नन्हीं  सी चिड़िया
मेरी खिड़की के शीशे से
अपनी चोंच टकराती है ,
खट-खट की
खटखटाहट से चौंक जाती हूँ मैं ,

मानो कमरे के भीतर
आने का रास्ता ढूंढ  रही हो ,
उसकी रोज़ -रोज़ की
खट -खट से सोच में पड़ जाती हूँ  मैं ,

 वह क्यों चाहती है
भीतर आना
अपने आज़ाद परों से परवाज़
क्यों नहीं भरती
क्या उसे आज़ादी पसंद नहीं !

कोई भी तो नहीं उसका यहाँ
बेगाने लोग , बेगाने चेहरे
क्या मालूम
कहीं कोई बहेलिया ही हो भीतर !
जाल में फ़ांस ले ,
पर कतर दे !

वह हर रोज़ आकर
शीशे को खटखटाती है या
मोह-माया के द्वार को खटखटाती है
उसे नहीं मालूम !

मालूम तो मुझे भी नहीं कि
चोंच की खट -खट से
शीशे पर  निशान उभरे हैं
या मेरे हृदय पर
मैं नहीं चाहती उसका भीतर आना
पर चिड़िया की खटखटाहट और
मेरे हृदय की छटपटाहट अभी भी जारी है !



तोते के बारे में तोता कुछ बताता है जो तोते को ही समझ में आता है


सुशील कुमार जोशी  
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तोते कई तरह 
के पाये जाते है 
कई रंगों में 
कई प्रकार के 
कुछ छोटे कुछ 
बहुत ही बड़े 
तोतों का कहा हुआ 
तोते ही समझ पाते हैं 
हरे तोते पीले तोते 
की बात समझते हैं 
या पीले पीले की 
बातों पर अपना 
ध्यान लगाते हैं 
तोतों को समझने 
वाले ही इस सब पर 
अपनी राय बनाते हैं 
किसी किसी को 
शौक होता है 
तोते पालने का 
और किसी को 
खाली पालने का 
शौक दिखाने का 
कोई मेहनत कर के 
तोतों को बोलना 
सिखा ले जाता है 
उसकी अपनी सोच 
के साथ तोता भी 
अपनी सोच को 
मिला ले जाता है 
किसी घर से 
सुबह सवेरे 
राम राम 
सुनाई दे जाता है 
किसी घर का तोता 
चोर चोर चिल्लाता है 
कोई सालों साल 
उल्टा सीधा करने 
के बाद भी अपने 
तोते के मुँह से 
कोई आवाज नहीं 
निकलवा पाता है 
‘उलूक’ को क्या 
करना इस सबसे 
वो जब उल्लुओं 
के बारे में ही कुछ 
नहीं कह पाता है 
तो हरों के हरे और 
पीलों के पीले 
तोतों के बारे में 
कुछ पूछने पर 
अपनी पूँछ को 
अपनी चोंच पर 
चिपका कर चुप 
रहने का संकेत 
जरूर दे जाता है 
पर तोते तो 
तोते होते हैं 
और तोतों को 
तोतों का कुछ भी 
कर लेना बहुत 
अच्छी तरह से 
समझ में 
आ जाता है ।

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