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गुरुवार, 15 मई 2014

लोकतंत्र, सुखदेव, गांधी और हम...

मित्रों, लोकतंत्र का पर्व अपनी परिणति पर है और कल नतीज़े आनें को हैं... कई लिहाज़ से यह चुनाव अपनें आप में बहुत अलग थे.. २००९ और २०१४ के बीच देश में बहुत कुछ हुआ... देश नें भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अब तक की सबसे बडी लडाई देखी.. फ़िर उसी आन्दोलन को मटियामेट होते देखा... जिस राजनीति को लोग गाली देते न थकते थे उसी राजनिति को पिछले छ महीने से छक छक कर स्वाद लेकर चखा.... हर किसी नें इस लोकतांत्रिक प्रणाली से ही रास्ते के निर्धारण का निर्णय लिया...  जो भ्रष्टाचार का मुद्दा २०११ में चरम सीमा तक पहुचा... वही मुद्दा चुनाव आते आते फ़ुस्स हो गया। आज न जानें क्यों कांग्रेस के इतिहास और नेहरु गांधी की कुछ बातों पर ध्यान हो आया... यह राजनिति जो आज इस नीचे स्तर पर आ गई है... उसके ज़िम्मेदार एक बहुत हद तक इनकी गलतियां ही थी.... भाषाई आधार पर भारत को बांटना... देश को तोड देना... वाकई एक बहुत बडी वजह है.... आज मैं आपको दो चिट्ठियां पढवाना चाहता हूं... दोनो पढिए... 
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यह गांधी-इर्विन समझौते के सन्दर्भ में सुखदेव जी ने एक खुला खत गांधी जी के नाम अंग्रेजी में लिखा था गांधी जी को लिखे गए उस पत्र का हिन्दी अनुवाद...  

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परम कृपालु महात्मा जी,
आजकल की ताज़ा ख़बरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रांतिकारी कार्यकर्त्ताओं को फिलहाल अपना आंदोलन बंद कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा देखने का आखिरी मौक़ा देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाएँ की हैं. वस्तुतः किसी आंदोलन को बंद करना केवल आदर्श या भावना से होनेवाला काम नहीं है. भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुआओं को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है. माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान, आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अंतिम समझौता न होगा. मैं मानता हूँ कि सब बुद्धिमान लोग बिल्कुल आसानी के साथ यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने लगने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले-मकसूद पर पहुँच गए हैं. संपूर्ण स्वतंत्रता जब तक न मिले, तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बँधी हुई है. उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ कामचलाऊ युद्ध-विराम है, जिसका अर्थ यही होता है कि आने वाली लड़ाई के लिए अधिक बड़े पैमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोड़ा विश्राम है. इस विचार के साथ ही समझौते और युद्ध-विराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है. किसी भी प्रकार का युद्ध-विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्ते ठहराने का काम तो उस आंदोलन के अगुआओं का है. लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिए आन्दोलन बन्द रखना उचित समझा है, तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है. इसी तरह हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रांतिवादियों का आदर्श समाज-सत्तावादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है. यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है. उनका ध्येय प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो, तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बँधे हुए हैं. परंतु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध-नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे. क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है. कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आंदोलन-रूप होता है, और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है. ऐसी दशा में क्रान्तिवादियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए. परंतु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया. निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्त्व नहीं होता, हो नहीं सकता. आपके समझौते के बाद आपने अपना आंदोलन बंद किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए हैं. पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं. मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाये पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है. देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं. लाहौर, दिल्ली, चटगाँव, बम्बई, कलकत्ता और अन्य जगहों में कोई आधी दर्जन से ज़्यादा षड्यंत्र के मामले चल रहे हैं. बहुसंख्यक क्रांतिवादी भागते-फिरते हैं, और उनमें कई तो स्त्रियाँ हैं. सचमुच आधे दर्जन से अधिक कैदी फाँसी पर लटकने की राह देख रहे हैं. इन सबका क्या? लाहौर षड्यंत्र केस के सज़ायाफ्ता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए हैं और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रांतिवादी दल का एक बड़ा हिस्सा नहीं हैं. उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नहीं है. सच पूछा जाए तो उनकी सज़ा घटाने की अपेक्षा उनके फाँसी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है. यह सब होते हुए भी आप इन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं. वे ऐसा क्यों करें? आपने कोई निश्चित वस्तु की ओर निर्देश नहीं किया है. ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है.
यदि ऐसी बात नहीं है, तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रांतिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते. अपना आंदोलन बंद करने के बारे में पहले आपको उनकी बुद्धी की प्रतीति करा लेने का प्रयत्न करना चाहिए था. मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं कि क्रांतिकारी बुद्धिहीन हैं, विनाश और संहार में आनंद मानने वाले हैं. मैं आपको कहता हूँ कि वस्तुस्थिति ठीक उसकी उलटी है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं, और इस प्रकार वे जो जिम्मेदारी अपने माथे लेते हैं, उसका उन्हें पूरा-पूरा ख्याल होता है.
और क्रांति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग की अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यंत महत्त्व का मानते हैं, हालाँकि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवा और कोई चारा उनके लिए नहीं है. उनके प्रति सरकार की मौजूदा नीति यह है कि लोगों की ओर से उन्हें अपने आंदोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है, उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाए. अकेले पड़ जाने पर उनका शिकार आसानी से किया जा सकता है. ऐसी दशा में उनके दल में बुद्धि-भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावपूर्ण अपील एकदम बुद्धिमानी से रहित और क्रांतिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करनेवाली होगी. इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप कुछ क्राँतिकारी नेताओं से बातचीत कीजिए-उनमें से कई जेलों में हैं- और उनके साथ सुलह कीजिए या ये सब प्रार्थनाएँ बंद रखिए.
कृपा कर हित की दृष्टि से इन दो में से एक कोई रास्ता चुन लीजिए और सच्चे दिल से उस पर चलिए. अगर आप उनकी मदद न कर सकें, तो मेहरबानी करके उन पर रहम करें. उन्हें अलग रहने दें. वे अपनी हिफाजत आप अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं.
वे जानते हैं कि भावी राजनैतिक युद्ध में सर्वोपरि स्थान क्रांतिकारी पक्ष को ही मिलनेवाला है. लोकसमूह उनके आसपास इकट्ठा हो रहे हैं, और वह दिन दूर नहीं है, जब ये जमसमूह को अपने झंडे तले, समाजसत्ता, प्रजातंत्र के उम्दा और भव्य आदर्श की ओर ले जाते होंगे. अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हों, तो उनका दृष्टिकोण समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसीलवार चर्चा कर लीजिए. आशा है, आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्वसाधारण के सामने प्रकट करेंगे.
आपका
अनेकों में से एक
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गांधीजी का आखिरी वसीयतनामा
[कांग्रेस के नये विधान का नीचे दिया जा रहा मसविदा गांधीजी ने 29 जनवरी, 1948 को अपनी मृत्‍यु के एक ही दिन पहले बनाया था। यह उनका अन्तिम लेख था। इसलिए इसे उनका आखिरी वसीयतनामा कहा जा सकता है। ]
देश का बंटवारा होते हुए भी, भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस द्धारा मुहैया किये गये साधनों के जरिये हिन्‍दुस्‍तान को आजादी मिल जाने के कारण मौजूदा स्‍वरूप वाली कांग्रेस का काम अब खतम हुआ- यानी प्रचार के वाहन और धारा सभा की प्रवूत्ति चलाने वाले तंत्र के नाते उसकी उपयोगिता अब समाप्‍त हो गई है। शहरों और कस्‍बों से भिन्‍न उसके सात लाख गांवो की दृष्टि से हिन्‍दुस्‍तानी की सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है। लोकशाही के मकसद की तरफ हिन्‍दुस्‍तान की प्रगति के दरमियान फौजी सत्‍ता पर मुल्‍की सत्‍ता को प्रधानता देने की लडा़ई अनिवार्य है। कांग्रेस को हमें राजनीतिक पार्टियों और साम्‍प्रदायिक संस्‍थाओं के साथ की गन्‍दी होड़ से बचाना चाहिये। इन और ऐसे ही दूसरे कारणों से आखिल भारत कांग्रेस कमेटी के नीचे दिये हुए नियमों के मुताबिक अपनी मौजूदा संस्‍था को तोड़ने और लोक-सेवक- संघ के रूप में प्रकट होने का निश्‍चय करे। जरूरत के मुताबिक इन नियमों में फेर फार करने का इस संघ को अधिकार रहेगा।
गांववाले या गांववालों के जैसी मनोवृत्ति वाले पांच वयस्‍क पुरूषों या स्त्रियों की बनी हुई हर एक पंचायत एक इकाई बनेगी।
पास-पास की ऐसी हर दो पंचायतों की, उन्‍हीं में से चुने हुए एक नेता की रहनुमाई में, एक काम करने वाली पार्टी बनेगी।
जब ऐसी 100 पंचायतें बन जायं, तब पहले दरजे के पचास नेता अपने में से दूसरे दरजे का एक नेता चुनें और इस तरह पहले दरजे का नेता दूसरे दरजे के नेता के मातहत काम करे। दो सौ पंचायतों के ऐसे जोड़ कायम करना तब तक जारी रखा जाय, जब तक कि वे पूरे हिन्‍दुस्‍तान को न ढक लें। और बाद में कायम की गई पंचायतों को हर एक समूह पहले की तरह दूसरे दरजे का नेता चुनता जाय। दूसरे दरजे के नेता सारे हिन्‍दुस्‍तान के लिये सम्मिलित रीति से काम करें ओर अपने- अपने प्रदेशों में अलग- अलग काम करें। जब जरूरत महसूस तब दूसरे दरजे के नेता अपने में से एक मुखिया चुनें, और वह मुखिया चुनने वाले चाहें तब तक सब समूहों को व्‍यवस्थित करके उनकी रहनुमाई करें।
(प्रान्‍तों या जिलों की अन्तिम अभी तय न होने से सेवकों के इन समूह को प्रान्‍तीय जिला समितियों में बाटने की कोशिश नहीं की गई। और, किसी भी वक्‍त बनाये हुए समूहों को सारे हिन्‍दुस्‍तान में काम करने का अधिकार रहेगा। यह याद रखा जाय कि सेवकों के इस समुदाय को अधिकार या सत्‍ता अपने उन स्‍वामियों से यानी सारे हिन्‍दुस्‍तान की प्रजा से मिलती है, जिसकी उन्‍होंने अपनी इच्‍छा से और होशियारी से सेवा की है।)
  • हर एक सेवक अपने हाथ- काते सूत की या चरखा- सेघ द्धारा प्रमाणित खादी हमेशा पहनने वाला और नशीली चीजों से दूर रहने वाला होना चाहिये। अगर वह हिन्‍दू है तो उसे अपने में से और अपने परिवार में से हर किस्‍म की छुआछूत दूर करनी चाहिये और जातियों के बीच एकता के, सब धर्मों के प्रति समभाव के और जाति, धर्म या स्‍त्री- पुरूष के किसी भेदभाव के बिना सबके लिए समान अवसर और समान दरजे के आदर्श में वि श्‍वास रखने वाला होना चाहिये।
  • अपने कार्यक्षेत्र में उसे हर एक गांववालों के निजी संसर्ग में रहना चाहिये।
  • गांववालों में से वह कार्यकर्ता चुनेगा और उन्‍हें तालीम देगा। इन सबका वह रजिस्‍टर रखेगा।
  • वह अपने रोजाना के काम का रेकार्ड रखेगा।
  • वह गांवों को इस तरह संगठित करेगा कि वे अपनी खेती और गृह- उद्योगों द्धारा स्‍वंयपूर्ण और स्‍वावलम्‍बी बनें।
  • गांववालों को वह सफाई और तन्‍दुरूस्‍ती की तालीम देगा और उनकी बीमारी व रोगों को रोकने के लिए सारे उपाय काम में लायेगा।
  • हिन्‍दुस्‍तानी तालीमी संघ की नीति के मुताबित नई तालीम के आधार पर वह गांववालों की पैदा होने से मरने तक की सारी शिक्षा का प्रबंध करेगा।
  • जिनके नाम मतदाताओं की सरकारी यादी में न आ पायें हों, उनके नाम वह उसमें दर्ज करायेगा।
  • जिन्‍होंने मत देने के अधिकार के लिए जरूरी योग्‍यता हासिल न की हो, उन्‍हें वह योग्‍यता हासिल करने के लिए प्रोत्‍साहन देगा।
  • ऊपर बताये हुए और समय- समय पर बढा़ये हुए उद्देश्‍यों को पूरा करने के लिए, योग्‍य कर्त्‍तव्‍य- पालन करने की दृष्टि से, संघ के द्धारा तैयार किये गये नियमों के अनुसार वह स्‍वयं तालीम लेगा और योग्‍य बनेगा। संघ नीचे की स्‍वाधीन को मान्‍यता देगा
  • आखिल भारत चरखा- संघ
  • आखिल भारत ग्रामोंद्योग संघ
  • हिन्‍दुस्‍तानी तालीमी संघ
  • हरिजन-सेवक-संघ
  • गोसेवा- संघ
संघ अपना मकसद पूरा करने के लिए गांववालों से और दूसरों से चंदा लेगा। गरीब लोगों का पैसा इकट्ठा करने पर खास जोर दिया जायेगा।
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आज मैनें इन चिट्ठियों का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकी यह दोनों ही भारत के आज और कल के लिय तर्क संगत और न्याय संगत हैं। आज हम अपनें लोकतांत्रिक प्रणाली पर गर्व कर सकते हैं लेकिन वास्तव में इस लोकतंत्र को पानें के लिए किये गये सार्थक प्रयासों को भुला चुके हैं... मित्रों..  आज की कांग्रेस जो खुद को गांधी वादी कहती है, उस गांधी की विचारधारा की सबसे अधिक दुर्दशा कांग्रेस ने ही तो की है। गांधीजी नें स्वदेशी, ग्रामीण विकास, पंचायत इकाई और आत्मनिर्भरता की बात की थी, लेकिन नेहरू की नीति में विकास केवल शहरीकरण और उद्योगीकरण से ही हो सकता था। वैसे दिक्कत यह भी रही की हम ना तो शहरीकरण में ही विकास कर पाए और न ही ग्रामीण भारत को ही बचा कर रख पाए। हमनें शहरों के विकास के लिए ग्रामीण भारत का दोहन किया और जो कुछ भी योजनाएं बनी उसके पैसे को कुर्ता पैजामा खा गया...  भारत भ्रष्ट बना और दुनिया के नक्शे पर हमारी पहचान एक गरीब देश की ही रही। सोने की चिडिया..... थी... आज तो अजीब सा भारत है। 
आज हम शहीदों के बलिदान को भुला चुके हैं....  अपना धर्म और अपनी आत्मा से विमुख होकर...  सोचिए हम कहां पहुंच गये?

चलिए आज के बुलेटिन की ओर चलते हैं................ 
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 चलिए आज का बुलेटिन यहीं तक.... कल मिलेंगे एक नये कलेवर में.... लोकतंत्र की इस पर्व का अंतिम परिणाम आनें को है.. देखते हैं यह एक नया बदलाव लेकर आता है या नहीं... 
जय हिन्द
देव

11 टिप्पणियाँ:

आशीष अवस्थी ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति , देव भाई व बुलेटिन को धन्यवाद !
I.A.S.I.H - ब्लॉग ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बढ़िया लिंक्स ....शामिल करने का आभार

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

ब्लॉग लिंक के लिए धन्यवाद एवं ढेर सारी शुभकामनाएँ। बुलेटिन जिंदाबाद्………

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

इतिहास के पन्नों को याद कराती यह बुलेटिन सचमुच एक गौरवशाली इतिहास की याद दिलाती है!! आभार!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुंदर बुलेटिन । सुखदेव जी को नमन ।

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

शिवम तुम्हारे हमारे स्वतंत्रता संग्राम लेकर हमारे शहीदों के बलिदान को ब्लॉग बुलेटिन के जरिये फिर से सामने लाकर उसको दुहराने से अपने देश के प्रति और देश की स्वतंत्रता के बलिदानियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। अगर पढ़ती है तो आज की पीढ़ी भी इससे पूरी तरह परिचित नहीं है क्योंकि ये सब हमारे पाठ्यक्रम में कहीं भी संक्षिप्त रूप से भी सन्निहित नहीं है। तुम्हारे इस काम के लिए आभार !

शिवम् मिश्रा ने कहा…

@रेखा दीदी,
ज़रा गौर कीजिएगा यह बुलेटिन देव कुमार झा जी ने लगाया है पर हाँ हम सब का उद्देश और प्रयास यही रहता है कि बुलेटिन को माध्यम बना कर इस तरह की जानकारी आप सब के साथ सांझा की जाये |

आजकल ही क्या ... जब हम लोग भी स्कूल मे थे तब भी इन क्रांतिकारियों के बारे मे बहुत ही कम पढ़ाया या बताया जाता था | हम मे ही से बहुत कम लोग इन के बारे मे जानते है |

आप जैसे पाठक हमारे इस प्रयास को सार्थकता देते है ... ऐसे ही स्नेह बनाए रखिएगा |

शिवम् मिश्रा ने कहा…

एक सार्थक बुलेटिन के लिए साधुवाद देव |

कविता रावत ने कहा…

हमारे गौरवशाली इतिहास को याद कराती सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार!!

Mann ने कहा…

जय हिन्द मित्रवर आप ने बेहद सुन्दर आर्टिकल लिखा


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Aman Gill ने कहा…

बहुत सुंदर बुलेटिन। सभी ठोर पुरषो को मेरा नमन।

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