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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (2)

ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -
अवलोकन २०१३ ...

कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का दूसरा भाग ...
 

नज़्म एक सूखे पत्ते के गले लगी 
पत्ता सुगबुगाया 
डालियाँ हरी हो गयीं 
नज़्म ओस हुई  … 
सूरज की किरणें जब फैली 
ओस का दाना सिहरा 
गुम हुआ  … नज़्म ने ली अंगड़ाई 
जा बैठी पन्नों पर 
और मैंने उनको धीरे से उठा लिया  … आपके लिए 


अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न .तो सुनिए. by qualification एक journalist हूँ moscow state university से गोल्ड मैडल के साथ T V Journalism में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया, हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी,और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.खैर कुछ समय पत्रकारिता की और उसके बाद गृहस्थ जीवन में ऐसे रमे की सारी डिग्री और पत्रकारिता उसमें डुबा डालीं ,वो कहते हैं न की जो करो शिद्दत से करो .पर लेखन के कीड़े इतनी जल्दी शांत थोड़े ही न होते हैं तो गाहे बगाहे काटते रहे .और हम उन्हें एक डायरी में बंद करते रहे.फिर पहचान हुई इन्टरनेट से. यहाँ कुछ गुणी जनों ने उकसाया तो हमारे सुप्त पड़े कीड़े फिर कुलबुलाने लगे और भगवान की दया से सराहे भी जाने लगे. और जी फिर हमने शुरू कर दी स्वतंत्र पत्रकारिता..तो अब फुर्सत की घड़ियों में लिखा हुआ कुछ,हिंदी पत्र- पत्रिकाओं में छप जाता है और इस ब्लॉग के जरिये आप सब के आशीर्वचन मिल जाते हैं.और इस तरह हमारे अंदर की पत्रकार आत्मा तृप्त हो जाती है.(शिखा वार्ष्णेय)

मन उलझा ऊन के गोले सा 
कोई सिरा मिले तो सुलझाऊं.
दे जो राहत रूह की ठंडक को, 
शब्दों का इक स्वेटर बुन जाऊं.

बुनती हूँ चार सलाइयां जो 
फिर धागा उलझ जाता है 
सुलझाने में उस धागे को 
ख़याल का फंदा उतर जाता है.

चढ़ाया फिर ख्याल सलाई पर 
कुछ ढीला ढाला फिर बुना उसे 
जब तक उसे ढाला रचना में 
तब तक मन ही हट जाता है। 

फिर  उलट पलट कर मैं मन को 
काबू में लाया करती हूँ 
किसी तरह से बस मैं फिर 
नन्हा इक स्वेटर बुन जाया करती हूँ 



मेरे बारे में मुझसे बेहतर वही जानता है... 'वो" है यहाँ मेरा दिल, बस यही मानता है .....(अंजू)

कान्हा 
कहाँ लिख पाऊँगी 
मैं ,राधा के प्रेम को .....
लिखा जा सकता ,तो 
लिख देती 'वो '
स्वयं.......
लिखना तो दूर ,
कहा भी तो नही 
कभी उसने .....!!
बस किया ...
तुमसे प्रेम ,और 
किया भी ऐसे 
कि खुद 
हो गई 
प्रेम स्वरूपा.. 
और तुम्हे 
बना लिया 
अनन्य भक्त.....! 
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
इसलिए, कान्हा..!
मत होना नाराज़ ,
नही लिख पाऊँगी 
मैं कभी 
चाह कर भी .....
पर हाँ ,देना मुझको 
वो दृष्टि ....
पढ़ पाऊं 
उस नेह को ...
प्रेममयी आँखों की 
मुस्कान में ...
तेरी बांसुरी की 
तान में ...
उसके चरणों की 
थकान में ...
तेरे हाथों की 
पहचान में ...
आंसुओं के 
आह्वान में ...
भक्ति के 
विरह -गान में ...
दो रूप 
एक प्राण में ...!
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
प्रेम ,भक्ति की 
यही गलबहियां 
खींच लेती है मुझे ....
आत्मविभोर हो 
खिल उठती हूँ ...
फ़ैल जाते हैं होंठ 
खुद ब खुद ही ...
देखती हूँ ,
कनखियों से ,
सकुचाहट के साथ ...
मुस्कुरा देते हो 
तुम भी 
राधा के साथ ......!!!
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
बस ,कान्हा ...! 
यहीं से ,
होता है शुरू 
एक सफ़र .....
हवाओं के उठने का ...
समंदर में उतरने का ...
बादल के बनने का ...
आसमान में उड़ने का ...
बरसात के होने का ..
मिटटी के भीगने का ...
फूलों के खिलने का ...
महक के बिखरने का ...!!!!
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
इससे पहले कि 
बिखर जाऊं ...
तान देते हो 
चादर झिलमिल सी ....
छोड़ देते हो मुझे 
फिर एक और ...
यात्रा के लिए .....
.......................
पर ,सुनो कान्हा ..!!
राह भी तेरी ...
यात्रा भी तेरी ...
पर मंजिल 
है मेरी ...!
इसलिए कान्हा ...!!!
न भूलना 'तुम '
कभी ये बात ........
क्यूंकि 
यात्रा ,
कितनी भी लम्बी हो ...
राह , 
कितनी भी कठिन हो ...
मंजिल तो 
निश्चित है ........./
इसलिए कान्हा ...!
बिखर जाने दे ...
उतर जाने दे ...
हो जाने दे 
समंदर ....
शायद ,तब 
कह पाऊं ...
लिख पाऊं ....
कुछ ऐसा 
जो हो बिलकुल 
तेरी राधा के जैसा ..........
तेरी वंशी के प्राण जैसा .......


Aharnishsagar: अन्तराल का भ्रम (-अहर्निशसागर-)


अन्तराल का भ्रम
मरीचिका की तरह हमेशा एक अन्तराल पर बना रहता हैं
मेरी माँ मरने से पहले उम्र में मुझसे छोटी हो गई थी
उसने मेरी छाती पर सर रखा
और मैंने मृत्यु से पहले मेरी माँ को बार-बार जन्म दिया
यह वियोग नहीं था
मेरे भविष्य का भुत में विलय था !
 

सत्य वही नहीं जो दिखाई दे, सत्य वह भी है - जो नहीं दिखता  . प्रतिभा वही नहीं जो आपने देख लिया और पढ़ लिया - प्रतिभाओं  का अंत नहीं और उन्हें ढूँढना मेरा अथक प्रयास है जो जारी है - रहेगा जब तक हूँ, मेरे बाद कोई और होगा :)

15 टिप्पणियाँ:

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

बढ़िया - जय हो

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

मेरे बाद कोई और होगा :)
सच है कि सफर-राह से
राही बदल जाता है
लेकिन
कोई किसी जैसा नहीं होता
आप जैसा कोई नहीं होगा

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर चयन....आभार

नीलिमा शर्मा Neelima Sharma ने कहा…

sundar rachnaaye umda rachnaakaar

vandana gupta ने कहा…

सार्थक रचनायें …………बेहतरीन प्रयास

shikha varshney ने कहा…

bahut bahut aabhaar ..

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत सुन्दर.......
अहर्निश,अनन्या और शिखा.......तीनों प्रिय.

आभार दी
अनु

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुंदर वाह !

सब कुछ साफ दिख रहा है
एक सुंदर सा चित्र
पत्थरों का संतुलन
सब कुछ तो कह दे रहा है !

Sadhana Vaid ने कहा…

आपका चयन बेमिसाल है रश्मिप्रभा जी ! सारी रचनायें एक से बढ़ कर एक हैं ! आभार आपका इन्हें सबसे शेयर करने के लिये !

शिवम् मिश्रा ने कहा…

साल भर की पोस्टों मे से इस प्रकार चुनिन्दा पोस्टों को खोज लाना कोई आसान काम नहीं ... आपको साधुवाद रश्मि दीदी !

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुंदर वाह !

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

nayi aur sarthak rachanayon se avagat karne ke liye aabhar !

Saras ने कहा…

आपके इसी अथक प्रयास का नतीजा है कि ऐसे नायाब मोती भी हाथ लगते जा रहे हैं जिनपर कभी नज़र ही नहीं पड़ी ...साधुवाद आपको रश्मिजी

Lion_Vinod ने कहा…

muskura dete ho tum bhi.... radha ke saath... bahut khoob....

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

''सत्य वही नहीं जो दिखाई दे, सत्य वह भी है - जो नहीं दिखता'' सत्य वचन. सुन्दर संकलन. सभी रचनाकारों को बधाई.

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