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मंगलवार, 30 जुलाई 2013

एक बाज़ार लगा देखा मैंने

इस कविता के पीछे एक छोटी सी कहानी है | एक दिन जब मैं व्यायाम शाला से घर वापस लौट रहा था | अचानक मेरी नज़र एक ठेले वाले पर पड़ी | वो आम बेच रहा था | ऊँचे दाम और डंडी मार तोल | दोनों तरीकों से पैसे बटोर रहा था | फिर भी लोग मक्खी की तरह उसके ठेले पर भिनभिना रहे थे | वहीँ करीब में एक छोटा सा बच्चा फटे चिथड़ों में खड़ा बेबस और ललचाई आँखों से आमों को देख रहा था | सोच रहा था के शायद कोई उसे भी कुछ दे दे | पर कोई भी इंसान उसकी तरफ़ नज़र घुमाने तक को तयार नहीं था | उसकी उस हालत को देख और उसकी आँखों में उमड़ती भावनाओं को पढ़ मेरा मन विचलित हो उठा | मैंने आगे बढ़ कर दो आम खरीद कर उसे खाने को दे दिए | आमों को देख उसके चेहरे पर आई मुस्कान ने मेरा ह्रदय गद गद कर दिया | घर आकर मैंने इस कविता की कुछ पंक्तियाँ लिखने का प्रयत्न किया और जो प्रत्यक्ष देखा और महसूस किया वो शब्दों में पिरो दिया | आशा करता हूँ आपको मेरी यह कोशिश पसंद आएगी |















एक बाज़ार लगा देखा मैंने
जम कर हो रहा था व्यापार
बेच रहे थे बेबाक, बेधड़क
झूठ, सच, भूख, आइयाशी
साथ में थे
दिल, जान, जिस्म और इमान
ढेर लगा था चापलूसी का
भ्रष्टाचार पड़ा था सीना तान
भीड़ ऐसी लदी पड़ी थी
जैसे फ्री मिल रहा हो जजमान
जिसको देखो चीख चीख कर
कर रहा था गुणगान
इन चीजों के सौदे लेकर
हर एक बन फिर रहा था धनवान
एक बाज़ार लगा देखा मैंने
जम के हो रहा था व्यापार

बाजु वाले ठेले पर भी
कुछ बेच रहा था एक इंसान
सीधा साधा भोला भला
शायद, थे उसके भी कुछ अरमान
प्यार, वफ़ादारी, सपने थे
या कुछ उमीदें थी अनजान
कुछ बेजुबान अफसाने भी थे
और भी न जाने क्या क्या था सामान
शराफत से आवाज़ लगा के
कहता ले लो जी श्रीमान
पर कोई ग्राहक ना आया
और न बिकता उसका सामान
लगता था इमानदार है, बेचारा
जितना बोलता उतना तोलता
पर कोई चवन्नी भी न देता
अगर मिल भी जाती तो
यह ज़हर खा लेता
गला फाडेगा बस दिन भर खाली
और खायेगा लोगों की गाली
न बिकेगा कभी इसका सामान
एक बाज़ार लगा देखा मैंने
जम के हो रहा था व्यापार

मैं दूर से ताड़ रहा था
ज़िन्दगी का यह अजब तमाशा
बेईमानी, चोरी, चालाकी, भ्रष्टाचार
घूसखोरी, झूठ, सच, भूख, आइयाशी
और इन जैसे कई और आइटम भी
बिक रहे थे जिंदाबाद
भाव रहे थे छु आसमान
वहीँ पास में
हो रही थी किसी की ज़िन्दगी वीरान
दम तोड़ते पड़े थे ठेले पर
शराफत, सपने और अरमान
प्यार, मोहब्बत, ईमानदारी भी
आखरी सासें ले रहे थे
थे दाने दाने को मोहताज
एक बाज़ार लगा देखा मैंने
जम के हो रहा था व्यापार

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19 टिप्पणियाँ:

रविकर ने कहा…

बढ़िया बुलेटिन-
आभार आदरणीय तुषार जी-

रविकर ने कहा…

प्रभाव शाली कथ्य -शुभकामनायें

Unknown ने कहा…

Aap ne sach kaha hai,
Vinnie,

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

रोचक और प्रभावशाली कथ्य, सुंदर लिंक्स.

रामराम.

Rishabh Shukla ने कहा…

sundar prastuti ke liye badhayee

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

प्रभावशाली !!

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

शुक्रिया और आभार
हार्दिक शुभकामनायें ....

प्रवीण गुप्ता - PRAVEEN GUPTA ने कहा…

बहुत ही अच्छी सटीक टिप्पणी

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुन्दर कार्य, सुन्दर कविता और पठनीय सूत्र।

Unknown ने कहा…

रचना को शामिल करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया .. सुन्दर लिंक्स से सजा बुलेटिन ..शुभकामनायें

yashoda Agrawal ने कहा…

आभार भाई तुषार
सादर

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान ने कहा…

dam todte pade the thele par sharafat,spne or arman
sahi bimbo ko ubharti ek achchee kavita hai
dhanyabad badhai

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

क्या देखा, क्या लिख दिया! ...वाह!!!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

ढेर सारे लिंक पढ़े। यशोदा जी की ग़ज़ल सबसे अच्छी लगी।

HARSHVARDHAN ने कहा…

भईया,,, आपने एक अच्छा कार्य किया। आपकी नेकी से भगवान भी खुश होगा।
सुन्दर भाव के साथ एक सुन्दर बुलेटिन पेश करने के लिए आपका सहर्ष धन्यवाद।

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ग्राहम बेल की आवाज़ और कुदरत के कानून से इंसाफ।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बेहद उम्दा रचना तुषार भाई ... और साथ साथ इन लिंक्स के मेल से बुलेटिन मे और जान आ गई ... लगे रहिए !

Unknown ने कहा…

bahut badhiya aabhar meri kavita pasand karne ke liye

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

सभी मित्रों और सह ब्लॉगर साथियों का हार्दिक अभिनन्दन और शुक्रिया अदा करता हूँ | आपके सहयोग और साथ के साथ ही आज यहाँ तक पहुँच पाया हूँ उम्मीद है आगे भी आप सबका साथ ऐसे ही बना रहेगा | एक बार फिर से बहुत बहुत धन्यवाद् | जय हो मंगलमय हो |

Dr ajay yadav ने कहा…

हकीकत से रूबरू कराती रचना |
वाकई मन की संवेदना उभरी हैं |आभार |

“सफल होना कोई बडो का खेल नही बाबू मोशाय ! यह बच्चों का खेल हैं”!{सचित्र}

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