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गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

कट टू कट …ब्लॉग बुलेटिन

आजकल परीक्षाएं चल रही हैं सो एक बीबा बच्चे की तरह हम उसी में , यानि धमाधम पढाई में लगे हुए हैं मगर शिवम भाई की तबियत तनिक नासाज़ हुई और उन्होंने रिले दौड में आज की दौड का हिस्सा हमारे हवाले कर दिया , सो झटपट से फ़टफ़ट हम अपनी दौड भी पूरी कर रहे हैं । परीक्षाओं की समाप्ति के बाद मिलते हैं एकदम फ़ुर्सत में , तब तक आप देखिए आज की कटपेस्टिया बुलेटिन ॥

 

SINGH SADAN -- HALL OF FAME

 

HOLI SPECIAL - 2013

HAPPY & COLOURFULL HOLI 

 

चुप ना रहो, कुछ तो कहो

मैं सोचता हूं
तुम कुछ कहो तो टूटे सन्नाटा
तुम सोचती हो
मैं कुछ कहूं तो टूटे सन्नाटा
प्यार में जब
दिल की जगह

 

 

बैक-पेनःअनदेखी होगी घातक

बदलती जीवन शैली और भागमभाग भरी जिंदगी के कारण आज हर दसवां व्यक्ति बैक पेन से परेशान है। कभी बुढ़ापे में होने वाला यह पीठ या कमर दर्द आज युवाओं और अधेड़ों से लेकर बच्चों में भी दिखाई पड़ने लगा है। यदि कमर दर्द के लक्षणों की लंबी समय तक अनदेखी की जाए तो यह गंभीर बीमारी का रूप भी ले सकता है क्योंकि रीढ़ की हड्‌डी और कमर दोनों मिलकर ही शरीर को आधारभूत संरचना प्रदान करते हैं और दैनिक कार्य करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारे शरीर का पूरा भार कमर पर होता है। यह भार जब असंतुलित ढंग से मसल्स, कार्टिलेज, बोन्स या स्पाइनल कार्ड पर पड़ता है तो दर्द की शुरुआत होती है।

 

 

ऐसा हो नहीं सकता.....

 

 

मेरी ये मेरी कविता मेरी आवाज़ में नोश फ़रमायें :)

मैं ठोकर खाके गिर जाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

गिर कर उठ नहीं पाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

तुम हँसते हो परे होकर, किनारे पर खड़े होकर

मैं रोकर हँस नहीं पाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

अभी जीना हुआ मुश्किल, घायल है बड़ा ये दिल

मैं टूटूँ और बिखर जाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

 

 

पहली तिमाही और आईपीएल

-अजय ब्रह्मात्मज
    तीन साल पहले 2010 में भी पहली तिमाही में 41 फिल्में रिलीज हुई थीं। तब तीन महीनों का कुल बिजनेस 320 करोड़ था। इस साल फिर से 41 फिल्में रिलीज हुई हैं, लेकिन बिजनेस में स्पष्ट उछाल दिख रहा है। इस साल पहली तिमाही का कलेक्शन 481 करोड़ है। प्रति फिल्म कलेक्शन पर भी नजर डालें तो लगभग डेढ़ गुने का उछाल दिखता है। 2010 में प्रति फिल्म कलेक्शन 7 ़ 8 करोड़ रहा, जबकि 2013 में प्रति फिल्म कलेक्शन 11 ़ 73 करोड़ है। स्पष्ट है कि हिंदी फिल्मों के दर्शक बढ़े हैं। हालांकि साजिद खान की ‘हिम्मतवाला’ अपेक्षा के मुताबिक नहीं चल सकी। फिर भी पहले वीकएंड के लगभग 30 करोड़ के कलेक्शन से उसने पहली तिमाही का कुल कलेक्शन 500 करोड़ से अधिक कर दिया। यह कोई संकेत नहीं है। अगले 9 महीनों में फिल्मों का बिजनेस कितना चढ़ेगा या उतरेगा ? अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

 

 

महाशय 'क' जब किसी को प्‍यार करते हैं

महाशय 'क' से पूछा गया, 'जब आप किसी आदमी को प्‍यार करते हैं, तब क्‍या करते हैं ?'
महाशय 'क' ने जवाब दिया : 'मैं उस आदमी का एक खाका बनाता हूं और इस फिक्र में रहता हूं कि वह हूबहू उसी के जैसा बने।'
'कौन ? वह खाका ? '

 

नए सपने भी पल रहे कितने

दिल में अरमान जल रहे कितने
नए सपने भी पल रहे कितने
एक गिरगिट ने खुदकुशी कर ली
रंग इन्सां बदल रहे कितने
यूँ तो अपनों के बीच रहते हम
फिर भी आँसू निकल रहे कितने

 

 

नववर्ष

 

आज नववर्ष का पहला दिन है - विक्रमी संवत 2070 के प्रथम मास चैत्र के शुक्ल पक्ष की पहली तिथि यानि प्रतिपदा। आदि काल से ही सूर्य की आभासी गति और ऋतुओं के सम्बन्ध को मनुष्य जानता समझता चला आया है। भारत के मनीषि प्राकृतिक व्यवस्था को बहुत उदात्त रूप में देखते थे और उसे एक अर्थगहन नाम दिया – ऋत। रीति-रिवाज की 'रीति' भी इसी ऋत से आ रही है।
ऋत व्यवस्था में किसी निश्चित कालावधि को उसमें निश्चित बारम्बारता में होने वाले परिवर्तनों, जलवायु और दैहिक प्रभाव लक्षणादि के आधार पर 'ऋतु' नाम दिया गया। शस्य यानि कृषि का सम्बन्ध भी ऋतु चक्र से है। भारत में छ: ऋतुयें पायी गयीं - वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमंत। इनमें वसंत पहली ऋतु थी।

 

 

"कन्फेशन " !!

"सोचता था जब चालीस का हूँगा जिंदगी का जायका जबां पे होगा, रोजो- शब् के पेंच उलटे नहीं घूमेगे . किसी शख्स का कोई करतब  हैरान नहीं करेगा . ऐब उबाने लगगे . दोस्त पहले की तरह अज़ीज़ होगे .  हाथ की जुम्बिश से तहरीरे  लिखूंगा .  फरिश्तो के नंबर मेरे मोबाइल में सेव होगे ओर सैंकड़ो दास्ताने लाइब्रेरी में .  कंप्यूटर में दर्ज होगे कई मुश्किल लम्हों के हल ओर एक ऐसा  फोल्डर जिसकी  तफसील तब भी किसी से न कहूँगा .

 

 

गरीब सब कुछ खा गए है

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

        एक नए रहस्य का पर्दाफाश हुआ है। ‘गरीबों’ की पोल खुल गई है। एक तरह से कहा जाए ‘रंगे हाथों’ की तर्ज पर वे ‘रंगे पेट’ पकड़े गये हैं। पैसठ सालों से हम हैरान-परेशान थे कि आखिर कम्बख्त यह महँगाई बढ़ती क्यों है? राजनीतिज्ञों ने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए, अर्थशास्त्रियों ने एक से एक भारी-भरकम सिद्धांत पेले, मगर असली चोर अब पकड़ में आया है। ये साले गरीब देश का सारा अन्न भकोस-भकोस कर महँगाई को हवा दे रहे हैं।

 

 

मयस्सर नहीं खुदा तो इन्सां ही गंवारा कर दे

मयस्सर नहीं खुदा तो इन्सां ही गंवारा कर दे,
नहीं तो कम से कम वो वक़्त दुबारा कर दे||

जीते थे जिनके नाम पर मरते थे उन्ही पे,
थे सुनते ,थे गाते , सदके उन्ही के,
न रहने को मंजर न पिलाने को साकी,
न सहने को दर्द का किनारा कर दे,
नहीं तो कम से कम वो वक़्त दुबारा कर दे||

 

स्वाद के प्रकार

दुनिया में तरह-तरह के स्वाद हैं। हर व्यक्ति चाहता है कि  उसका भोजन स्वादिष्ट हो,चाहे वह कितना भी सादा हो। केवल सूखी रोटी खाने वाला कोई निर्धन व्यक्ति भी उसमें नमक तो चाहता ही है। स्वाद का अपना अलग रंग-ढंग है। शराब के शौक़ीन व्यक्ति को उसके कड़वे होने पर भी कोई ऐतराज नहीं है।बच्चों को दवा का कड़वा होना भी नहीं रुचता,चाहे दवा उनकी सेहत के लिए ही हो। मधुमेह पीड़ित को शक्कर-विहीन "मीठा"  चाहिए।
विविधता-भरी दुनिया में स्वाद की भी कोई कमी नहीं है। मीठा,फीका,तीखा,खट्टा,चरपरा,कसैला,कड़वा नमकीन,अर्थात कोई न कोई स्वाद तो हर वस्तु में है।आइये, देखें कि  किसी स्वाद-विशेष को बहुत पसंद करने वाले व्यक्ति की यह पसंद उसके चेहरे पर कैसे झलकती है।

 

हम अपने बाबा के साथ

एक चित्र मेरे पितामह श्री सत्यराम पांडेय के साथ। हम उन्हें बाबा कहते थे। वह अपने समय में उर्दू और गणित के अध्यापक थे। प्रधानाध्यापक पद से आठ रुपए वेतन पा कर रिटायर हुए थे वह। बताते थे कि तब बीस आने में देसी घी के साथ पूरे परिवार की बसर हो जाती थी। परिवार भी संयुक्त परिवार। खूब बाल-बच्चे। खैर बात-बात में चांदी के रुपए की खनक जैसे उन के जुबान पर भी आ जाती थी। अपने अध्यापन के तमाम किस्से, तमाम गाथाएं उन के पास थीं। जिसे जब-तब वह सुनाते रहते थे, बड़े चाव के साथ। बड़े दर्प के साथ। 1983 में वह दिवंगत हुए। दिवंगत होने के समय भी उन के बत्तीस दांत मौजूद थे। ऊंख चूस कर वह गए थे। खैर जब तक जीवित रहे अपने अध्यापन को ले कर वह बहुत गौरवान्वित महसूस करते थे। संयोग से मेरे पड़-पितामह यानी मेरे बाबा के पिता श्री रामशरन पांडेय भी उर्दू और गणित के अध्यापक रहे थे। और कि वह भी प्रधानाध्यापक पद से ही रिटायर हुए थे। उन को तो मैं ने देखा नहीं, पर उन के अध्यापन की यश-गाथा के किस्से बहुत सुने हैं अपने बाबा से। कि उन के पढ़ाए लोग कैसे-कैसे ऊंचे-ऊंचे ओहदों तक लोग पहुंचे।

 

 

आज के लिए इतना ही , अभी परीक्षाएं चल रही हैं , सो बाद में मिलता हूं आप सबसे तब तक के लिए , लिखते रहें , पढते रहें और टीपते रहें , ब्लॉगियाते रहें

4 टिप्पणियाँ:

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

Ajay ji aapka dhanywaad !

सदा ने कहा…

बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ...
आभार

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बड़े अच्छे सूत्र सजाये हैं।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बढ़िया बुलेटिन अजय भाई ... जल्दी से अपने इम्तिहान से निबट फिर से पूरी स्पीड मे बुलेटिन एक्सप्रेस को दौड़ाने आइये ... हम सब इंतज़ार मे है !

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