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मंगलवार, 1 जनवरी 2013

मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है... ब्लॉग बुलेटिन

मित्रों, २०१३ आ गया... पूरी दुनियां जब नये साल के जश्न में डूबी थी तो सच कहें जश्न मनानें जैसा मन नहीं था। पिछले कुछ दिनों से देश भर में एक अजीब स्थिति उत्पन्न हो रही है जब सडक पर आकर आम आदमी अपनी पीडा कहनें और विरोध प्रदर्शन करनें को मजबूर होना पडा है। सरकारें केवल मुद्दों को लटकानें और राजनीति खेलनें में व्यस्त हों और घडियाली आंसू दिखा कर संवेदनशील मुद्दों पर भी घोर निराशाजनक व्यवहार करें... नौकरशाह अपनें फ़ैसले न लें और सरकारी दिशा निर्देश पर जांच एजेंसी भी चलें तो फ़िर ऐसे में जनता आखिर जाए तो जाए किधर?  ऐसे में सडक पर अपना विरोध जतानें के अलावा और रास्ता भी क्या है?  

विरोध और विरोधाभास आखिर क्या है? यह दो अवस्थाएं हैं जिसमें आजकल हम और आप बुरी तरह फ़ंसे हैं। विरोध सरकार से ही नहीं उस मानसिकता से भी है जो इस प्रकार की वीभत्स कॄत्य के लिए ज़िम्मेदार है...  उस मानसिकता से भी जो इस भोगवादी मानसिकता से बाहर आनें को तैयार ही नहीं हैं... वहीं विरोधाभास जनता से जुडे आन्दोलन के राजनीतिकरण से उपजे उहापोह से भी है... हम सही और गलत के फ़ैसले स्वयं लेनें की जगह भीड का हिस्सा क्यों बनते हैं। कोई आन्दोलन किसी राजनीतिक विचारधारा को  चुनौती देनें के लिये हो सकते हैं लेकिन इस समय देश में कोई राजनीतिक आन्दोलन की स्थिति नहीं है, इस समय तो हम अपना देश बचानें की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। तो ऐसे में राजनीतिक दलों को इस भीड से जुडे मुद्दों में अपना भविष्य दीख रहा है जो अपनें आप में एक बहुत बडी विडम्बना है। आन्दोलन और विरोध प्रदर्शन जो जनता ने शुरु किए हों उनको बीच में ही हाई-जैक होते हमने बहुत बार देखा है और ऐसे में गैंगरेप से उमडे क्रोध जनित शान्तिपूर्ण विरोध में राजनीति तलाशते राजनीतिक दलों को उनका वास्तविक चेहरा दिखाना होगा।   

मुन्नवर राणा जी का शेर है... "मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है , मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं"  आज कल की परिस्थिति पर पूरी तरह उचित बैठता है...  

बदलाव अगर शुरु होगा तो वह हर एक व्यक्ति से होगा... हर घर से होगा... हर मोहल्ले से होगा... हर शहर से होगा... और फ़िर देश सुधरेगा... अगर हर आदमी संकल्प ले विरोध करनें का तो फ़िर समाज की इस गन्दगी को साफ़ होनें में देर नहीं होगी...  आईए हर उस चीज का विरोध करें जो भोगवादी मानसिकता को बढावा देता हो...  मीडिया में खुलेपन के नाम पर होनें वाली अश्लीलता को भी निशानें पर लें.. उसकी भी शिकायत करें।  बालीवूड के उन अश्लील गीतों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए... केवल नाम के लिए ही नहीं सोच बदलनें के लिए घर से शुरुआत हो... खुलेपन के नाम पर हमारी सभ्यता में हो रहे इस बदलाव पर भी सोचा जाए....   हम और आप रोज़मर्रा के काम-काज में और समाज में अपने आस पास घट रही घटनाओं को नज़र अंदाज़ न करें.... सतर्क रहें.... और हां यह चिंगारी बुझनी नहीं चाहिए.... इससे जो शमां जले... वह इस पाश्विक मानसिकता को जला कर भस्म करे... सरकारें हिले और मजबूर हो जाएं कोई कठोर कानून बनानें पर..... 

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आईए बदलाव के इस संकल्प के साथ ही आज के बुलेटिन की ओर बढते हैं..... 
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हलकट जवानी चिपकाले फ़ेवीकोल से …………ललित शर्मा

ब्लॉ.ललित शर्मा at ललितडॉटकॉम 
ऊंSSS अंSSSSअ अंSSSSअ अंSSSSअ अंगड़ाईयां लेती हूँ मैं जब जोर-जोर से, ऊ आह की आवाज आती है हरोर से, मैं तो चलुं इस कदर, मच जाए रे गदर, होश वाले भी मदहोश आए रे नजर, मेरे होठों कोSSS मेरे होठों को सीने से यार, चिपकाले सैंया फ़ेविकोल से,मेरे होठों कोSSS मेरे होठों को सीने से यार, चिपकाले सैंया फ़ेविकोल से,फ़ेविकोल से,फ़ेविकोल से, मै तो हाय मै तो कब से हूँ रेडी तैयार पटा ले सैंया मिस काल से ……… कोई प्रभाती सी गा रहा था, मेरी नींद में खलल हुआ तो आँख खोल कर देखा। फ़ुल्ल मुड में चंदू गा रहा था यह गीत। नए साल की पहली किरण का स्वागत मिस काल से कर रहा था। नए गीतों से मेरा कोई सरोकार दूर-दूर... more »


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चीन समाजवाद या पूँजीवाद की ओर?-2

रणधीर सिंह सुमन at लो क सं घ र्ष ! 
*माओवाद की पृष्ठभूमि * यहाँ एक बात समझने की जरूरत है। अब वे भी खुलकर कहते हैं कि माओ ने 50 से 70 के दशकों में गलत नीतियाँ अपनाईं थीं। आज चीन में माओ कम ही दिखाई पड़ते हैं, हालाँकि उनका सम्मान जरूर है। माओ की देखरेख में लंबी छलांग, कुछ ही वर्षो में कम्युनिज्म लाने और 'सांस्कृतिक क्रांति’ की जो विनाशकारी नीतियाँ चलाई गई थीं, आज चीनी उनकी तीखी आलोचना करते हैं। चीन की उत्पादक शक्तियों का भारी विनाश हुआ था। इसलिए उसने पहले उत्पादन, संचार, आधारभूत संरचनाओं, बिजनेस और बाजार का विकास करने का निर्णय लिया। यह काफी हद तक ठीक है। इससे चीन का विकास अवश्य हुआ है। आज चीन विश्व की शक्तियों में से एक... more »

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विभिन्न संस्कृतियों में नव-वर्ष के विविध रूप

Akanksha Yadav at शब्द-शिखर
मानव इतिहास की सबसे पुरानी पर्व परम्पराओं में से एक नववर्ष है। नववर्ष के आरम्भ का स्वागत करने की मानव प्रवृत्ति उस आनन्द की अनुभूति से जुड़ी हुई है जो बारिश की पहली फुहार के स्पर्श पर, प्रथम पल्लव के जन्म पर, नव प्रभात के स्वागतार्थ पक्षी के प्रथम गान पर या फिर हिम शैल से जन्मी नन्हीं जलधारा की संगीत तरंगों से प्रस्फुटित होती है। विभिन्न विश्व संस्कृतियाँ इसे अपनी-अपनी कैलेण्डर प्रणाली के अनुसार मनाती हैं। वस्तुतः मानवीय सभ्यता के आरम्भ से ही मनुष्य ऐसे क्षणों की खोज करता रहा है, जहाँ वह सभी दुख, कष्ट व जीवन के तनाव को भूल सके। इसी के तद्नुरुप क्षितिज पर उत्सवों और त्यौहारों की बहुर...more »

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अहंकार - बंजर जमीन है (उत्सव समापन)

रश्मि प्रभा... at परिकल्पना 
*अहंकार - एक बंजर जमीन के समान है . वह प्रकृति से सामंजस्य बैठने में पूर्णतया असफल होता है, प्रकृति भी अहंकार से दूर होती है . प्रकृति सत्य है शिव है सुन्दर है - और सत्य शिव और सुन्दर अहंकार से अछूते रहते हैं . वसुधैव कुटुम्बकम की भावना अहंकार रहित होती है . अहंकार प्रस्फुटन को रोकता है, दीमक की भांति हर शाखाओं को निष्प्राण कर देता है ...... * * * *प्रश्न है कि अहंकार आखिर क्यूँ ? कुछ भी तुम्हारा नहीं ... जो है वो क्षणिक है .... आयु पाकर न यश को भोगा जा सकता है,न वैभव को ..... विनम्रता में अमरत्व है . पर अमरत्व के लिए विनम्रता का स्वांग - ईश्वर सब जानता है . * * * *सच कहिये - पूरे उ... more »


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…there was no one left to speak for me.

Abhishek Ojha at ओझा-उवाच 
सच कहूँ तो इस मुद्दे पर मैंने कहीं कुछ नहीं लिखा, कोई पसंद नहीं, कोई टिप्पणी भी नहीं। इससे जुड़ी खबरें भी ठीक से नहीं पढ़ पाया। लोगों ने मुझसे कुछ कहना भी चाहा तो मैंने मना कर दिया । एक तो मुझे हर किसी की बात में लगा कि वो बस इस मुद्दे पर भी कुछ कह कर पसंद और टिप्पणी ही गिन रहे हैं। सारी बहस बेकार लगी। मीडिया के टीआरपी बटोरने जैसी। बहुत कम लोगों की बातों में ईमानदारी और सच्ची चिंता दिखी। कुछ भी कहा लोगों ने... या तो मुझे इतनी समझ नहीं या लोग सच में हर बात पर कुछ भी कह 'हीरो' बनना चाहते हैं । मुझे हर बात से चिढ़ होती गयी... मुझे अपने से भी चिढ़ हुई। इस बात से भी चिढ़ हुई कि मुझे किसी ...more »


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सारी घड़ियाँ बीत गई -- संजय भास्कर

संजय भास्कर at ...... मुस्कुराहट
सारी घड़ियाँ बीत गई अब हर रोज होगी मुलाकातें कुछ तुम कहना कुछ हम कहेंगे अपने दिल की बातें कैसे कैसे सपने देखे कैसे बीती रातें बीता वर्ष 2012 चला गया नया दिन 2013 के साथ इंतज़ार की घड़िया ख़त्म हो गई रूबरू हुये हम 2013 में आपके साथ लेकर खुशियों की बरसात .........!!! Happy New Year 2013 चित्र - गूगल से साभार @ संजय भास्कर

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बस ... अब और नहीं ...

शिवम् मिश्रा at हर तस्वीर कुछ कहती है ... 
*आखिर कब तक हम सिर्फ मूक दर्शक बने रहेंगे ... बहुत हुआ ... जागो भारत जागो !! *

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आज मैं फिर जी उठी हूँ

उम्मीदों की पुडिया हर बार बाँधी मैंने और रख दी आस की टोकरी में ये सोच अब की बार जरूर एक नया रंग भरेगी मगर आस की टोकरी हमेशा सूखती रही और मुझमे एक चेतना का संचार करती रही और अब और नहीं , और नहीं बहुत हुआ ख्वाबों के महल सजाना अब मैंने हकीकत से है आँख मिलाना बस जिस दिन ये प्रण लिया मेरी उम्मीदों की बगिया का हर फूल खिल उठा जीवन का हर पल महक उठा बस यही तो मैंने खुद से वादा किया अब खुद लडूंगी अपनी लडाई अपने वजूद का अहसास कराऊंगी सबको ये बतलाऊंगी हाँ , मैंने खुद को बदल लिया है एक क्रांति का बीज खुद में बो दिया है जहाँ न कोई नर मादा हुआ है बस एक इंसानियत का तरु विकसित हुआ है ... more »



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शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान-2012 व शोभना फेसबुक रत्न सम्मान-2012

शोभना वैलफेयर सोसाइटी ने ब्लॉग जगत व फेसबुक पर सक्रिय लेखकों को सम्मानित करने का निर्णय किया है. सोसाइटी ऐसे रचनाकारों को, जिन्होंने माँ हिन्दी की सेवा करते हुए सामाजिक जागरूकता बढ़ाने में योगदान दिया हो, शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान-2012 एवं शोभना फेसबुक रत्न सम्मान-2012 प्रदान करेगी. इन सम्मानों के लिए हिन्दी लेखकों की प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं. लेखकों को केवल इतना करना है कि अपनी ताज़ा फोटो, अपने संक्षिप्त परिचय के साथ व अपनी किसी भी विधा में लिखी अप्रकाशित कोई एक रचना मौलिकता के प्रमाण पत्र के साथ हमें भेज देना है. पाठकों की टिप्पणियों व निर्णायक मंडल के निर्णय के आधार पर लेख... more »


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नव वर्ष की बधाई

हमारे एक मित्र हैं बड़े विचित्र एक जनवरी को हमसे बोले - "चक्र" जी नव वर्ष की बधाई ! हमने कहा बड़े अजीब हो, बिना सोचे समझे ही बधाई आपको देने मै ज़रा भी शर्म नहीं आयी ? अरे, नव वर्ष जब भी आता है केवल वर्ष ही तो नया रहता है लेकिन समस्याएँ पुरानी दोहराता है ! समस्याओं की श्रेणी में प्रथम क्रमांक रोटी का आता है विश्वाश करो, एक दिन तो ऐसा आएगा जब मोनो एक्टिंग करके कोरी कल्पना से पेट भरना होगा, तब हम अपने बच्चों को बताएंगे कि रोटी एक इतिहास है और उसकी कहानियां सुनाएंगे ! यह सुनकर हमारे बच्चे भी रोटी के भूतकालीन अस्तित्व पर विशवास नहीं कर पाएंगे ! मेरे भाई, बधाई का क्या है - नव वर्ष की सिर्फ निष्ठ... more »


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माँ सदा मेरे साथ रहना

माँ सदा मेरे साथ रहना मेरे जीवन को सुखद बनाते रहना कभी मुझे अकेला मत छोड़ना गिर जाऊं तो गोद में उठा लेना पथ से भटक ना जाऊं मुझे रास्ता बताते रहना दुखों में दिलासा देते रहना हिम्मत हौंसला बनाए रखना मुझे दया धर्म सिखाते रहना सद्कर्म का पाठ पढ़ाना माँ तुमने ही जन्म दिया तुमने ही जीना सिखाया ध्र्ष्टता हो जाए तो डांट लगाना त्रुटियों को क्षमा करना माँ तुम ही पालनहार तुम ही मेरी जीवन आधार यूँ ही प्यार बरसाते जाना मुझे आशीर्वाद देते रहना मेरे जीवन को सफल बनाना माँ तुम्हारी खुशी में मेरी खुशी तुम्हारी आशाओं पर खरा उतरना कर्तव्य मेरा मुझे कर्तव्य पथ से भटकने न देना 872-5... more »


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आज का बुलेटिन यहीं तक.. आशा है आपको आज का बुलेटिन पसन्द आया होगा... आईए एक बेहतर भारत के लिए संकल्प लिया जाए और खुद से ही बदलाव की शुरुआत की जाए......   
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13 टिप्पणियाँ:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

देव बाबा की जय हो, पोस्ट लिंक देने के लिए आभार

शिवम् मिश्रा ने कहा…

इस सार्थक बुलेटिन मे मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार देव बाबू ... सच कहते हो आप बदलाव की बहुत जरूरत है आज और यह शुरुआत हमें खुद से ही करनी होगी !

Sumit Pratap Singh ने कहा…

काश ऐसा हो सके...नव आंग्ल वर्ष - 2013 की शुभकामनाएँ...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

नया साल तब नया होगा जब नया सूरज निकले इन्साफ का... तभी बधाई भी देना अच्छा लगेगा!!

अजय कुमार झा ने कहा…

बहुत अच्छा पोस्ट संकलन किए हैं हो देव बाबा साथ में सार्थक प्रस्तावना । बुलेटिन एकदम सामयिक बन पडा है

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बढिया लिंक्स
नया वर्ष मंगलमय हो

Shikha Kaushik ने कहा…

नव वर्ष मंगलमय हो,.सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार हम हिंदी चिट्ठाकार हैं

Rohitas Ghorela ने कहा…

बहुत सार्थक ,सुन्दर बुलेटिन ...ललित शर्मा जी का लेख बहुत अच्छा लगा।

यहाँ पर आपका इंतजार रहेगा शहरे-हवस

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

हमारे समाज का दोग़लापन कैसे दूर हो ?
आपने जिस बात को उठाया है, उस पर वाक़ई विचार किया जाना चाहिए। इससे आगे बढ़कर यह भी सोचा जाना चाहिए कि बलात्कार या हत्या के जिन मुजरिमों के लिए कोर्ट सज़ा ए मौत मुक़र्रर करता है। उन्हें राष्ट्रपति द्वारा माफ़ कर दिया जाता है। इसी के साथ समाज को ख़ुद अपने बारे में भी सोचना होगा क्योंकि ये सारे बलात्कारी और हत्यारे इसी समाज में रहते हैं।
ऐसी धारणा बन गई है कि सामूहिक नरसंहार और बलात्कार के बाद भी सज़ा से बचना मुश्किल नहीं है अगर यह काम योजनाबद्ध ढंग से किया गया हो। पहले किसी विशेष समुदाय के खि़लाफ़ नफ़रत फैलाई गई हो और उस पर ज़ुल्म करना राष्ट्र के हित में प्रचारित किया गया हो और इसका लाभ किसी राजनीतिक पार्टी को पहुंचना निश्चित हो। ऐसा करने वालों को उनका वर्ग हृदय सम्राट घोषित कर देता है। वे चुनाव जीतते हैं और सरकारें बनाते हैं और बार बार बनाते हैं। देश के बहुत से दंगों के मुल्ज़िम इस बात का सुबूत हैं। राजनैतिक चिंतन, लक्ष्य और संरक्षण के बिना अगर अपराध स्वतः स्फूर्त ढंग से किया गया हो तो एक लड़की से रेप के बाद भी मुजरिम जेल पहुंच जाते हैं जैसा कि दामिनी के केस में देखा जा रहा है।
दामिनी पर ज़ुल्म करने वालों के खि़लाफ़ देश और दिल्ली के लोग एकजुट हो गए जबकि सन 1984 के दंगों में ज़िंदा जला दिए गए सिखों के लिए यही लोग कभी एकजुट न हुए। इसी तरह दूसरी और भी बहुत सी घटनाएं हैं। यह इस समाज का दोग़लापन है। इसी वजह से इसका अब तक भला नहीं हो पाया। दूसरों से सुधार और कार्यवाही की अपेक्षा करने वाला समाज अपने आप को ख़ुद कितना और कैसे सुधारता है, असल चुनौती यह है।

संजय भास्‍कर ने कहा…

अच्छा पोस्ट संकलन...मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार

vandana gupta ने कहा…

बहुत सुन्दर लिंक्स संजोये हैं।

जैसे मौसम बदलने के लिये फ़ूलों का खिलना जरूरी नहीं
वैसे ही तेवर बदलने के लिये ज़ख्मों का मिलना जरूरी नहीं
बस इतना याद रख ले गर ये आदमी कि ज़िन्दगी में
सोच बदलने के लिये क्रांतियों का होना जरूरी नहीं

बस इक जज़्बा ऐसा होना चाहिये
कि इंसान तो क्या पत्थर भी पिघलना चाहिये

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुन्दर बहुत सार्थक लिंक्स संजोये हैं।मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार....

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दोनों का ही संतुलन साधना है..

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