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शनिवार, 21 जुलाई 2012

आइटमिया ब्लॉगिंग पर किच्चम किच्च






इन दिनों जहां ब्लॉगिंग में आइटम पोस्ट लिखी जा रही हैं वहीं इन पोस्टों पर बराबर चिंता भी जताई जा रही है ।  प्रवीण शाह जी अपनी पोस्ट में इसी प्रवृत्ति पर प्रश्न उठाते हुए कहते हैं,
"एक पैटर्न देखा है शुरू से... जब कभी कोई विवाद चल रहा होता है, चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, या फिर किसी खास ब्लॉगर या समूह के खिलाफ लामबंद हो बहिष्कार-बहिष्कार का खेल खेला जा रहा हो... अचानक से सोये पड़े ब्लॉगवुड में एक जान सी आ जाती है... खूब पोस्टें आती हैं, पाठक बढ़ते हैं, टिप्पणियाँ गति पकड़ लेती हैं, कुल मिलाकर वीराने में रौनक सी आ जाती है... और जब कहीं कोई विवाद नहीं हो रहा होता तो एक किसिम की वीरानगी सी आ जाती है अपने ब्लॉगवुड में... :( "


और जब उन्होंने सबसे पूछा कि क्या उन्हें भी ऐसा लगता है तो देखिए पाठकों की क्या प्रतिक्रिया रही ,


  1. @क्या मेरी तरह आपको भी नहीं लगता कि...
    क्या 'ब्लॉगवुड' आबाद रहने के लिये विवाद रूपी ' आइटम ' पर निर्भर हो गया है ?

    नहीं लगता जनाब!! क्योंकि ब्लॉगिंग हम गम्भीरता से लेते है, मात्र मनमौज का साधन नहीं!!
    इसलिए भी कि हमारी दृष्टि रतौन्ध भरी नहीं न विशेष रंग के चश्मे से देखते है।
    छदमावरण व छुपी मंशाएं यहाँ मूल्यों को चोट पहुचाती है ऐसी बातों का विरोध होना ही चाहिए और उसी से विवादों का सर्जन होता है। अगर ऐसे चिंतन और विमर्श ब्लॉगजगत के आबाद रहने के कारण बनते है तब भी इसमें कोई बुराई नहीं।
    प्रत्‍युत्तर दें
  2. @छदमावरण व छुपी मंशाएं यहाँ मूल्यों को चोट पहुचाती है ऐसी बातों का विरोध होना ही चाहिए और उसी से विवादों का सर्जन होता है। अगर ऐसे चिंतन और विमर्श ब्लॉगजगत के आबाद रहने के कारण बनते है तब भी इसमें कोई बुराई नहीं

    Yess!!!

    यही है परफेक्ट विव्यू..... धन्यवाद सुज्ञ जी, मेरे मन की बात कहने के लिये।

    जो लोग रात-दिन घूम घूम कर मिशनरी अंदाज में ब्लॉगिंग में तमाम तरह का नैतिक पंवारा पढ़ाते रहते हैं, अल्ल्म गल्लम वाद लेकर टाईम पास करते हैं... ये होना चाहिये वो होना चाहिये, उनके छद्मालय को उजागर करने का सशक्त माध्यम है ब्लॉगिंग और इस तरह के मंथन से परहेज नहीं करना चाहिये।

    वैसे भी ऐसे लोग उस तरह के हैं जिन्हें बाहर कोई नहीं पूछता इसलिये चाहते हैं कि वर्चुअल वर्ल्ड में तनिक रौब दाब बनाया जायु.....तनिक दबी कुंठाओं को, अहम को खुराक पहुंचाई जाय....सो जाहिर है ऐसी शख्सियतें खुद-ब-खुद आइटम के तौर पर नजर आएंगी....फिर तो वही होना है जो फिल्मी आइटमों पर होता है...लहालोटीकरण....हत तेरे धत तेरे....ब्ला ब्ला :)

    और हां, गंभीर ब्लॉगरी अब भी चल रही है, लोग ब्लॉगिंग को गहन-गंभीर ढंग से पढ़ते हैं लिखते हैं, वो तो आइटमीकरण के चलते नेपथ्य में चले गये हैं वरना अच्छे अच्छे ब्लॉग हैं इसी ब्लॉगधरा पर.
और :-




  1. जीवन्तता से परहेज क्यों ?:-)
    प्रत्‍युत्तर दें
  2. @ छदमावरण व छुपी मंशाएं यहाँ मूल्यों को चोट पहुचाती है ऐसी बातों का विरोध होना ही चाहिए और उसी से विवादों का सर्जन होता है। अगर ऐसे चिंतन और विमर्श ब्लॉगजगत के आबाद रहने के कारण बनते है तब भी इसमें कोई बुराई नहीं।
    इससे हमारी भी सहमती ! किन्तु सुज्ञ जी ने किसी और मायने में ये बात कही सतीश जी ने किसी और मायने में इससे सहमती जताई और मैंने किसी और अब इन तीन मायनों को समझने का प्रयास करे :)
    प्रत्‍युत्तर दें

    उत्तर


    1. इसका अर्थ यह है कि यह कथन सर्वस्वीकार्य सत्य बन पड़ा है। प्रवीण जी, रचना जी, अरविन्द जी तीनों ने इसका खण्डन भी नहीं किया। अब रही मायनों की बात तो वाक्य में पहले से ही "छुपी मंशाएं" सम्मलित है, यह केमिकल स्वतः ही "छुपी मंशाएं" पर जाकर सक्रिय होगा। मायने या मंशाएं जानने का श्रम लेने की क्या आवश्यक्ता?
    2. प्रवीण ने विवाद को आइटम कहा हैं , और एक कमेन्ट में ब्लोगर को आइटम कहा जा रहा हैं यही फरक हैं सोच का .
  3. ये लीजिए आपके विवाद के अंदेशे पे भी विवाद* शुरू :)

    नोट :
    हमारे कमेन्ट में प्रयुक्त 'तारांकित विवाद' शब्द का अर्थ असहमति से ही लें और आपके वाले विवाद शब्द का अर्थ वो , जो भी टिप्पणीकार मित्र और आप कहें :)
    प्रत्‍युत्तर दें
  4. 'आईटम' तो हर फिल्म में होता भी नहीं है...इसके बिना भी फिल्में चल ही रहीं हैं और सफल भी हो रहीं हैं...
    आपने विमर्श को 'आईटम' का नाम दिया बढ़िया है जी, कम से कम इसी बहाने कुछ आईटम किसिम के लोग ऐसे आईटम में हिस्सा लेंगे...
    ऐसे विमर्श बहुत ज़रूरी हैं...सिर्फ़ लिखते जाना और उनपर कोई बात न होना, कोई मायने नहीं रखता, उससे अच्छा तो कोई किताब ही पढ़ ले और लेखक से कुछ भी न कहे... ब्लॉग ऐसा सशक्त मंच है, जिसकी उपयोगिता ऐसे विमर्शों से पूरी होती है...आत्मावलोकन का अवसर मिलता है, साथ ही बहुत सारी भ्रांतियाँ दूर होतीं हैं... इसलिए यह 'आईटम' तो इस फिलिम में मांगता है...

    अभी विमर्श /विवाद ज़ारी है आप भी फ़ौरन पहुंच कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराएं । 
    लेकिन अचानक ही हमें ये ख्याल आया कि ये हिंदी ब्लॉगिंग का ही कमाल है कि कबाडखाना , जिसे लोग शायद कभी तवज्जो की सूची में नहीं रखते किंतु हिंदी ब्लॉगिंग के कबाडखाने में आपको एक से एक सुंदर पोस्टें नूमदार होती मिलेंगी , आज भाई अशोक पांडे , उनके लिए कुछ कह रहे हैं जो सुन्दर था ,

    देखिए ,
    क्या आपको लगता नहीं कि इस देश में जो भी सुन्दर है उसकी खाल में भुस भरने का कार्य बहुत बड़े स्तर पर जारी है -

    यह रही पुरानी मूर्ति -


    और यह ताज़ा तस्वीर -




जब तस्वीरों की कुछ बात चली है तो फ़िर आइए दखें कि चिडिया को देख कर किसकी आत्मा बेचैन हो रही है ,





घंटियों के ऊपर बैठी चिडिया



और ये रही एक निडर चिडिया




काका राजेश खन्ना ने आखिरकार " जिंदगी कैसी है पहेली..... को अलविदा कह दिया , उनके आखिरी सफ़र की कुछ झलकियां , भाई रंजीत जी ने अपनी पोस्ट में पाठकों के लिए रखी हैं 


मुझे इस बात पर अब हैरानी नहीं होती कि चकमक चकमक जिंदगी जीते और रुपहला जीवन बिताते हमारे बहुत सारे चहेते लोगों की जिंदगी की शाम अक्सर ही धुंधली और गहराई सी होती है और उनके जाने के बाद तो जैसे उनके घर , बंगले , कोठियों के मुकदमों के किस्से ही बचे रह जाते हैं , सुना है कि राजेश खन्ना की संपत्ति पर अपना हक जताने के लिए भी किसी अनीता ने खन्ना परिवार को नोटिस भेज दिया है । खैर , काका का जादू उनके जाने के बाद भी युगों तक बना रहेगा इसमें कोई संदेह नहीं । पुष्यमित्र अपनी पोस्ट में कहते हैं कि काका लाखों पुष्पाओं के पेन किलर हुआ करते थे ,


"वह सातवां दशक था, जब बालीवुड के प्रोडय़ूसरों ने टैलेंट हंट के जरिये एक ऐसे हीरो को तलाशा था जो पुष्पा, गीता, सुनीता, कामना, रीना और अनीता को कह सके .. आई हेट टीयर्स और उन्हें देख कर गा सके .. मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू. और उनके इस उम्मीद पर जतिन खन्ना नामक यह अदाकार सौ फीसदी खरा उतरा. हालांकि वे देवानंद के विकल्प के रूप में लाये गये थे, मगर रोमांस के साथ-साथ एक संदिग्ध छवि को जीने वाले देवानंद के बरक्श राजेश खन्ना सीधे-सादे युवक नजर आते थे जो मरदों की दुनिया में एक ऐसा चेहरा थे जो औरतों के जख्मों पर अच्छी तरह हाथ रखना जा चुके थे. वे पेन किलर भी थे और स्लिपिंग पिल्स भी.
इस बात को समझने के लिए हमें वापस उस दौर में लौटना पड़ेगा. जब लोग-बाग दस लोगों के सामने अपनी घरवालियों से बतियाने में भी झिझकते थे और ऐसा करने वालों को हमारी तरफ बलगोभना कह कर पुकारा जाता था. जिसका सीधा-सपाट मतलब नामर्द होता था. औरतें मर्द के गुस्से भरे डायलॉग के बीच प्यार तलाशती थी और उस जमाने में राजेश खन्ना ने जब यह कहना शुरू किया .. कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना तो जैसे माहौल ही बदलने लगा. राजेश खन्ना को देख कर मरदों ने भी आई हेट टीयर्स कहना शुरू कर दिया. पारिवारिक और सामाजिक माहौल की घुटन में जीने वाली औरतों के लिए जाहिर सी बात है वे एक देवदूत सरीखे थे."

खैर काका  को छोड अब आगे बढते हैं । प्रवीण पांडेय "उर्वशी " पर रीझे हुए हैं , और उसे पढते हुए वे कहते हैं ,"



क्या जानू, क्या मन में मेरे
कथा के केन्द्र में है उर्वशी, उसकी गति के माध्यम से कथा में संक्रमण होता है, अप्सरा, मानवी और तापसी के चरित्रों के बीच। उर्वशी अप्सरा है, इन्द्रलोक का प्रमुखतम आकर्षण, सब देव उसके लिये कुछ भी कर देने को लालायित रहते थे। एक अप्सरा जिसका मन स्वर्गलोक के आनन्द विलास की एकरूपता से उकता जाता है। उसे प्रेम की वह अवस्था चाहिये जिसमें अग्नि की धधक हो, जिसमें आकर्ष की तपन हो, जिसमें स्नेहिल अनुराग हो। देवप्रेम का कृत्रिम स्वरूप उसके लिये असहनीय सा था, उसे मानवीय प्रेम की प्राकृतिक रूक्षता रुचिकर लगती थी। उसे मृत्युलोक अच्छा लगता था। इस बीज का क्या वृक्ष पनपता है, इसकी कहानी है उर्वशी।

पुरुरवा ही प्रमुख नर पात्र की ध्वजा वहन करते हैं, उन्हीं के माध्यम से नर के भीतर की विभिन्न मनोदशाओं का चित्रण किया गया है। वह एक प्रतापी राजा हैं, देवों को बहुधा सहायता देते रहते हैं, दानवों के विरुद्ध। पुरुरवा के मन में देवलोक के प्रति अप्रतिम आकर्षण है, उन्हें यह तथ्य कचोटता भी है कि श्रेष्ठ होने पर भी उनके पास वह सब क्यों नहीं है? एक अतृप्त तृषा सदा ही उनके पीछे भागती है, एक अधूरेपन के भाव का लहराना उन्हें खटकता है।
"




इस पर प्रतिक्रिया देते हुए , पाठक कहते हैं ,


एक दूसरा पहलू भी है इस उर्वशी रूपी कहानी का ! डरता हूँ शायद कुछ लोगो को यह सच पचनीय न लगे ! ये इस जग की रीत है कि कुछ धूर्त, चालाक और कुकर्मी लोगों ने पाप भी किये और उनपर सफाई से पर्दा डालने के लिए ह्यपोथेटिक कहानिया भी गढ़ी ! ठीक वैसे ही जैसे आज भ्रष्टाचार के दलदल में इतने घोटाले करने के बाद भी एम् एम् एस को कहानियों में आज के कथाकारों द्वारा इमानदार व्यक्तित्व का खिताब भी दिया जाता है !
Reply
  1. निश्चय ही यह दृष्टिकोण रोचक है, इस पर अभी तक सोचा नहीं। पूरी कहानी में यदि किसी पर अपराध हुआ लगता है, तो वह है औशीनरी और यदि कोई अपराधी लगता है, तो वह है पुरुरवा। समाज की मान्यताओं के आधार पर अपराधी हो सकते हैं पुरुरवा, पर उस समय पर समाज की मान्यतायें क्या थीं और नैतिक मूल्य कितने बँधे थे, उसका भी विवरण आवश्यक है। अप्सराओं के लोक से देखें तो पुरुरवा बहुत सधे थे, मानवी के लोक से देखें तो पुरुरवा थोड़े बिगड़े थे। हाँ कुकर्म का आक्षेप तो बस केसी दानव पर ही लगता है।


आमिर खान का शो सत्यमेव जयते , चाहे जैसा भी रहा हो , उसकी सफ़लता और असफ़लता , फ़ायदे नुकसान के आकलन विश्लेषण के बीच ये तो जरूर हुआ है कि इस कार्यक्रम में उठाए हुए मुद्दों पर बहस और विमर्श खूब हुआ और हो रहा है । हाल ही में अस्पृश्यता  को आधार बना कर प्रस्तुत एपिसोड के लिए लिखते हुए पल्लवी सक्सेना अपनी पोस्ट में कहती हैं ,"


"

यह 'छुआछूत' की समस्या हमारे समाज में ना जाने कितने सालों पुरानी है। राम जी के समय से लेकर अब तक यह समस्या हमारे समाज में अब न केवल समस्या के रूप में, बल्कि एक परंपरा के रूप में आज भी विद्दमान है। जो कि आज एक प्रथा बन चुकी है, एक ऐसी कुप्रथा जो सदियों से चली आ रही है। जब मैंने वो सब सोचा तो, मेरा तो दिमाग ही घूम गया। हो सकता है उस ही वजह से शायद आपको मेरा यह आलेख थोड़ा उलझा हुआ भी लगे। एक तरफ तो भगवान राम से शबरी के झूठे बेर खाकर यह भेद वहीं खत्म कर दिया और यदि हम प्रभु के रास्ते पर चलना ही उचित समझते है, तो केवट और शबरी के साथ प्रभु ने सतयुग में ही इस भेद को बदल दिया था। लेकिन हम आज भी वहीं के वहीं हैं।    
खैर वैसे भी बात यहाँ इंसान और भगवान की नहीं 'छुआछूत' की है। जो तब भी थी और आज भी है और इस सब में मुझे तो घोर आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह छुआछूत की मानसिकता सबसे ज्यादा हमारे पढे लिखे और सभ्य समाज के उच्च वर्ग में ही पायी जाती है। निम्न वर्ग में नहीं, ऐसा तो नहीं है। मगर हाँ तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो बहुत कम 
और लोग इस मानसिकता के चलते इस हद तक गिर जाते हैं, कि इंसान कहलाने लायक नहीं बचते। क्योंकि यह घिनौनी और संकीर्ण मानसिकता न केवल बड़े व्यक्तियों को, बल्कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को भी इस क़दर मानसिक आहत पहुँचाती है कि उन्हें बाहरी दुनिया से कटना ज्यादा पसंद आता है। बजाय उसे जीने के, उसे देखने के, क्योंकि या तो लोग उन्हें घड़ी-घड़ी पूरे समाज के सामने अपमानित करते है या उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है।       "

इस  पोस्ट पर आई प्रतिक्रियाएं भी जरूर बांचिए ,




इस समस्या पर हम जब भी सोचते हैं, आशंकाओं के साथ सोचते हैं. यदि हम कहें कि जातिपाति जल्दी समाप्त होने वाली है तो ऐसा नहीं है. हमारी वर्तमान शासन व्यवस्था सदियों से मनुस्मृति से संचालित रही है. उसके प्रावधानों का हमारी परंपराओं पर गहरा प्रभाव है.
हमारे देश में छुआछूत एक अपराध है. लेकिन तत्संबंधी नियमों का उल्लंघन होने पर किसी को आज तक कोई दंड मिला हो ऐसा देखने में नहीं आया. आपका दिया हुआ अंतर्जातीय विवाहों का सुझाव एक कारगर उपाय है जो ज़ोर पकड़ रहा है. लेकिन उसमें काफी समय लगेगा.
पल्लवी बिटिया, मुख्य मुद्दा है धन के प्रवाह का. यदि सरकार आरक्षण के माध्यम से अनुसूचित जातियों की ओर धन का प्रवाह होने देती है तो देश की अन्य जातियों को और उद्योग जगत को सस्ते श्रम की उपलब्धता खतरे में दिखने लगती है. इसी लिए इनकी शिक्षा के स्तर को भी अच्छा नहीं होने दिया जाता चाहे उसके लिए कपिल सिब्बलाना सुधार ही क्यों न लागू करने पड़ें. यह है सच्चाई.
आपका आलेख पढ़ कर अच्छा लगा





और ,


Reply
आज कल छुवा छूत पहले के मुक़ाबले में काफी कम है .... शहरों में तो पता ही नहीं चलता कि कौन किस जाति का है ... दलित खुद ही प्रमाण - पत्र ले कर घोषणा कराते हैं कि हम दलित हैं । आज कल अंतरजातीय विवाह का प्रचालन भी बढ़ा है ... पर बदलाव धीरे धीरे ही आएगा ... बस मानवीय संवेदना का होना ज़रूरी है ... विचारणीय लेख

मैं जब भी छुआछूत के सन्दर्भ में लोगों से राम और शबरी की बात करती हूँ, तो उनका हमेशा यही जवाब होता है कि वो तो भगवान् हैं...हम उनकी बराबरी कैसे कर सकते है... गाँधी जी का भी यही कहना था कि जब हरिजनों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं होगा, तब तक छुआछूत को समूल उखाड़ फेंकना असंभव है... सार्थक प्रस्तुति... :)


सबसे पहले तो हमे खुद इन दकियानूसी परम्पराओं से मुक्त होना होगा आपके सवाल का यही जवाब दे सकता हूँ -

तुम बदलोगे युग बदलेगा, तुम सुधरोगे युग सुधरेगा

प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं और अपने आस पास के लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा तभी धीरे धीरे इससे पूरे समाज में जागरूकता आ सकती है।

एक बात और भी कहना चाहूँगा 'आरक्षण' नाम की बीमारी भी इस देश से दूर होनी ज़रूरी है क्योंकि ये भी एक वजह है जो शूद्रों को अपनी हालत वही की वही रखे रहने का लोभ है ......ये मेरा अपना नजरिया है ।



 अजय भाई , हमारे लिए लगातार और लगभग सबसे पहले हर आने वाली पिक्चर का विश्लेषण प्रस्तुत कर देते हैं । आज वे गट्टू के बारे में बताते हुए कह रहे हैं  कि ,

Review : Gattuबालमन की निर्दोष संवेदना पर राजन खोसा ने समान संवेदनात्मक गहराई के साथ फिल्म बनाई है। अमूमन बाल फिल्मों में बड़ों के दृष्टिकोण के हावी होने का खतरा रहता है या फिर फिल्में उपदेशात्मक हो जाती हैं। गट्टू अत्यंत मासूम फिल्म है। गट्टू का बचपन वंचित है, लेकिन उसके उत्साह और जोश में बच्चों की ढीठता है। यही बात इस फिल्म को सुंदर बनाती है। राजन खोसा ने छोटे शहर का माहौल रचने के लिए इसे रुड़की में शूट किया है। किसी भी पूर्वधारणा से बचाने के लिए फिल्म में परिचित कलाकारों को नहीं लिया गया है। सारे कलाकार नए हैं और वे अपने किरदारों में जंचते हैं।
खास कर मोहम्मद समद की तरलता उल्लेखनीय है। वह आसानी से हर सिचुएशन में ढल जाता है। स्कूल के बच्चों ने मोहम्मद समद का पूरा साथ दिया है। लगता है राजन खोसा ने बच्चों के साथ एक्टिंग वर्कशॉप कर उन्हें साधा है। चाचा के किरदार में नरेश कुमार और प्रिंसिपल के रूप में जतिन दास का अभिनय उल्लेखनीय है।
फिल्म की पटकथा और संवाद के लिए लेखकीय टीम राजन खोसा, के डी सत्यम और दिलीप शुक्ला को खास बधाई। उन्होंने दृश्यों और संवादों में बचपना रहने दिया है। कैमरामैन से फिल्म का माहौल रचने में सहायता मिली है। छोटे शहर की गालियां, छतें और विहंगम दृश्य मोहक और विश्वसनीय हैं।"


शेखर सुमन आजकल बहुत प्रसन्न हैं क्योंकि उन्हें अपने संघर्ष की पहली सीढी को सफ़लता के सोपान तक पहुंचाने का अवसर प्राप्त हुया है इसलिए आजकल उनका मन गा रहा है देखिए , किसे कह रहे हैं ,

बावरी सी हो तुम

तुम तो बावरी नदी सी हो
कभी तो होती हो शांत
फूलों की पंखुड़ियों सी,
और कभी हो जाती हो चंचल,
जैसे शाम में समुद्र की लहरें...

तुम तो उस पतंग जैसी हो,
जो उड़ना चाहती है आसमान में
और थामे हो मुझे
एक डोर की तरह...

तुम तो पगली सी हो,
हर शाम बैठे बैठे
रेत के महल बनाती हो
लगाती हो उसमे एक चारपाई,
और मेरे ख्यालों को ओढ़कर प्यार से सो जाती हो...

तुम तो खुशबू बिखेरती उस हवा सी हो
घर के पीछे वाले आँगन में
प्यार के फूल लगाती हो
और हर सुबह उन प्यार भरे फूलों का एक गुलदस्ता
मेरे सिरहाने रख कर जाती हो...

और मैं...
मैं तो हमसफ़र हूँ तुम्हारा
हर पल तुम्हें ही जीता रहता हूँ,
हाथों में हाथ लिए
तुम्हें आसमान की सैर कराता हूँ,
तुम हंसती हो, खिलखिलाती हो
इतराती हो, इठलाती हो....
कभी कभी शरमा कर खुद में सिमट जाती हो...

मैं तो वो आवारा बादल हूँ
जो अपनी बरसात अपने संग लिए चलता है..


शिवम भाई , हमें अक्सर कृतघ्न होने से बचा लेते हैं और सही समय पर अपनी पोस्टों द्वारा अपने देश के शहीदों और देश के सपूतों के बलिदानों से हमारा परिचय कराकर एक बहुत संज़ीदा काम करते हैं , आज बटुकेश्वर दत्त को उनकी 47 वीं पुण्यतिथि पर याद करते हुए वे उनके बारे में कहते हैं

"
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला-नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।

8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान का संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पचांर्े के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।"


कभी पुरानी शराब का मज़ा लेना हो तो हथकढ पर पहुंचिए ,

कि कुछ नहीं हो सकता

रात के कई पहर बीत जाने के बाद भी अजनबी आवाज़ें, सन्नाटे को तोड़ती रहती है. उदास थकी हुई करवट, पसीने से भीगी हुयी पीठ, तसल्ली की थपकियाँ देती रेगिस्तान की सूखी हवा. सो जाओ, रात जा रही है...

तुम्हें कुछ नहीं सोचना चाहिए
खिड़की के पेलमेट पर रखे हुए तनहा गुलदस्ते के बारे में
उसे आदत है एकाकीपन में जीने की.

कि उन फूलों ने बहुत कोशिशें की थी
लोगों से घुल मिल जाने की
मगर निराशा में चुन ली है यही जगह, ज़रा अँधेरी, ज़रा उदास
जैसे कोई हताश आदमी बैठा होता है, एक अधबुझे लेम्पोस्ट के नीचे.

मैं ऐसी ही चीज़ों के बीच
इसी घर में हूँ, तुम्हें प्रेम करने के लिए
ये मर्ज़ी है तुम्हारी कि रात भर जागते रह सकते हो कहीं भी.

सुनो मेरी बात कि अगर तुम आओगे यहाँ
तो अपनी आदत के हिसाब से मेरे कमरे में रो सकते हो रात भर
कि मुझे भी आदत है पतझड़ के पेड़ों को देखने की
और मालूम है कि सूखी पत्तियों को किस तरह उठाना चाहिए सावधानी से.

ज्यादा सोचा मत करो कि तुम्हारे बिना भी मैं कभी तनहा नहीं होता हूँ
कि मुझे अक्सर चुभते रहते हैं किसी याद के कांटे
जैसे आप बैठे हुए हों किसी नौसिखिये कारीगर की बनायी हुई दरी पर.
तुमसे बिछड़ने के बाद
मैंने कई बार आत्महत्या की और फिर लौट आया घर.
मैंने एक उदास भालू की तरह नैराश्य को सूंघा
और फिर से खो गया आदमियों की भीड़ के जंगल में
कि मरना बड़ा वाहियात काम है जब तक घर पर बच्चे कर रहे हों इंतज़ार.

इधर आने से नहीं डरना चाहिए तुमको
कि मेरे घर की गली से नहीं गुज़रता है कोई झाड़ागर,
किसी के पास नहीं बचे हैं जादुई शब्द
मोहल्ले का सबसे कद्धावर आदमी भी बैठा है, उम्मीद का सहारा लिए हुए.

मैं तुम्हें नहीं करना चाहता हूँ सम्मोहित बिल्ली की तरह आँखें टिमटिमा कर
बस कहना चाहता हूँ कि देखो अहसासों की मुफलिसी के बीच
कितना कुछ तो बचा रहता है हम सब में, उन दिनों का बाकी.

यूं इस दुनिया में नुमाईशों की फ़िल्म चलती रहती है.
आदमी और औरतें मिल कर रोते हैं, एक इंतजार करते हुए कुत्ते को देख कर
मगर भूल जाते हैं, जाने क्या क्या ?   

कि कुछ नहीं हो सकता
फटे पुराने जूतों की तरह ठुकराई हुई पड़ी है ज़िन्दगी, 
हम इसे जीते भी नहीं और फैंकते भी नहीं, जाने किसलिए...

जैसे मैं लिखता रहता हूँ ऐसी बेवजह की बातें, जो कहीं पहुँचती ही नहीं. 
आइए अब कुछ रैपिड फ़ायर राउंड हो जाए 


थोडे से बदलाव से बदल सकती है जिंदगी :   स्वास्थ्य का रखिए ध्यान तो ज्यादा चल सकती है जिंदगी 


रखते हैं लोग ज़िल्द में दिल की किताब को :  पढने का अपना ही मज़ा है इन ज़नाब को     


समय के साथ : आपके हाथ HMT घडियां


रमज़ान मुबारक :     मुबारक मुबारक


यह मर्दों की जात नहीं अब पहले जैसी :    उफ़्फ़ तो हुई हाय अब ये कैसी  


आ गया एक और सस्ता इंडियन टैबलेट :   पानी के साथ दो टाइम जरूर लें    


अच्छा तो हम चलते हैं :  चलिए पीछे ही हम मिलते हैं 


अधर मौन क्यों रहते हैं : नैना जो सब कुछ कहते हैं


मम्मा तकिए पर गिरा मोती :   हाय , जब भी है तू रोती


बेटी नहीं , बेटा है तू :  जो भी है , मेरा है तू


लेखक मुंशी प्रेमचंद :  नतमस्तक और नयन हैं बंद


मंज़र बदल गए :   हम तो संभल गए


अनिश्चितता के बादल :   कर के रखते हैं पागल


सोनमर्ग (कशमीर ) :  एक खूबसूरत तस्वीर


श्रोताओं को तलाश रही कहानी : सुनिए आप इस पोस्ट की जुबानी


अंडरएचीवर बनने की जंग :    हाय इस अंडरएचीवर से सब हुए तंग


पापा जल्दी मत आना :  मैच खतम हो जाए तब आना


अल्हड चंचल सी बरसाती हवा :    क्या कहती है , ज़रा ये तो बता



rahul gandhi cartoon, sonia gandhi cartoon, sharad Pawar cartoon, congress cartoon, indian political cartoon



तो आज के लिए इतना ही , उम्मीद करता हूं कि कल के रविवारीय साप्ताहिक महाबुलेटिन के साथ फ़िर मुलाकात होगी आपसे । लिखते रहें , पढते रहें , टीपते रहें । शुक्रिया , शब्बा खैर ....

आपका ब्लॉग खबरी .....

अजय कुमार झा

27 टिप्पणियाँ:

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

ई तो पूरा पी एच डी का मसाला है भाई !

बेनामी ने कहा…

ये तो जबरदस्त कलेक्शन दे दिया है आपने.. काफी दिनों बाद हिन्दी ब्लौग्वुड में आया.. यहाँ तो पूरी रौनक है.. :)

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत कुछ पढ़ने को मिल गया ...आभार

विष्णु बैरागी ने कहा…

यह तो 'ब्‍लॉग बुलेटिन'नहीं, 'ब्‍लॉग बगिया' है। समूचा ब्‍लॉग जबत मानो यहॉं महक रहा है। आपका परिश्रम चकित करता है।

मेरे ब्‍लॉग को शामिल करने के लिए कोटिश: आभार और धन्‍यवाद।

Pallavi saxena ने कहा…

वाकई आज तो आपने कोई पोस्ट नहीं छोड़ी बहुत ही बढ़िया एवं शानदार लिंकों से सजाया है आपने आज यह बुलेटिन मेरी रचना को यहाँ स्थान देने के लिए आभार....

कुमार राधारमण ने कहा…

अच्छी चर्चाओं और उन पर कुछ बेहद दिलचस्प टिप्पणियों से रूबरू हुआ। रैपिड फायर राउंड के लिए चुनकर आपने हमें भी सम्मानित किया।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

झकास बुलेटिन

गुंज झाझारिया ने कहा…

अच्छी रचनाएँ..धन्यवाद मुझे शामिल करने के लिए..

devendra gautam ने कहा…

बेहतरीन लिंक्स की दिलचस्प प्रस्तुति. मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद!

P.N. Subramanian ने कहा…

मेरी प्रविष्टि को यहाँ स्थान देने के लिए आभार.

एस एम् मासूम ने कहा…

यहाँ आकर हमेशा कुछ अच्छा पढने को मिलता है |

राजेश उत्‍साही ने कहा…

प्रस्‍तुतिकरण पसंद आया।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

प्रस्तुतिकरण वाकई बढ़िया हैं। मुझे और बढ़िया लग रही है कि मेरी पोस्ट इसमें शामिल है। एक फोटो और जोड़ दिया हूँ चिड़िया वाली पोस्ट में। यह चिड़िया आज सुबह मिली।:)..धन्यवाद।

रविकर ने कहा…

आभार ||
श्रम को नमन ||

शिवम् मिश्रा ने कहा…

जय हो महाराज इतने दिन गायब रहने की पूरी कसर निकाल दिये आप ... जय हो !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

इस विविध ब्लॉग भारती बुलेटिन की शानदार प्रस्तुति के लिए आभार झा साहब !

Unknown ने कहा…

अच्छी रचनाएँ..........

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

अगर ये बुलेटिन यूं ही चलता रहे तो एग्रीगेटर की कोनू जरूरत ही नही होगी, अत्यंत सार्थक प्रयास, शुभकामनाएं.

रामराम.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

एक से बढ़कर एक लिंक्स और ... मसले

Sanil Sexena ने कहा…

शानदार बहुत ही बढ़िया लिंकों से सजाया है आपने आज यह बुलेटिन मेरी पोस्ट को यहाँ स्थान देने के लिए आभार.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

टिप्पणियों ने ब्लॉग बुलेटिन को एक नयी विमा दी है..बहुत सुन्दर..

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत अच्‍छे अच्‍छे लिंक्‍स मिले ..

इस पोसट के माध्‍यम से कई नए ब्‍लोगों पर भी गयी ..
अच्‍छी प्रस्‍तुति !!

प्रवीण ने कहा…

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काफी मेहनत से सजाई गयी ब्लॉगचर्चा...
आपका आभार !



...

Shekhar Suman ने कहा…

अरे वाह, इस बुलेटिन में हम भी हैं... और सच में हम आज कल बहुत खुश हूँ.... और बुलेटिन देखकर और खुश हो गया....

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

Wah Ajay bhai, Blog me innovation karne ka aap Master hain. Hindi Blog jagat ko aap lagatar samridh kar rahe hain. Shukriya aapka.
Ranjit

Akhileshwar Pandey ने कहा…

शुक्रिया अजय जी.

मनोज कुमार ने कहा…

झा जी .. बस .. आप कमाल करते हैं।

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बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!

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