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मंगलवार, 19 जून 2012

यादों की खुरचनें - 7



यादों के रथ पर न जाने कितने धागे बंधे हैं , छुते ही बज उठते हैं , चलचित्र से रिवाइंड हो फिर से चलने लगते हैं . एक एक धागों में कोई न कोई कविता मिल जाती है ...
किसी में दर्द , किसी में खोई ख़ुशी , किसी में संभावनाओं की तलाश .... रुदन से आरम्भ , प्यार , दर्द , आंसू , ममता की कई आहटें ....

कविता के लिए वध - दर्द न हो तो जीवन शाखों से नहीं उतरता , न दरख्तों पर अपने निशां छोड़ता है . शब्द तो बिखरे होते हैं , पर आंसू की नमी में ही उनकी जड़ें

मजबूत होती हैं .

" कहते है....
कविता कवि की मजबूरी है
उसके लिए वध जरूरी है
जब भी होगा कोई वध
तभी मुँह से फूटेगे शब्द
दिमाग मे था बालपन से ही
कविता पढने का कीडा
न जाने क्यूँ उठाया
कविता लिखने का बीडा
किए बहुत ही प्रयास
पर न जागी ऐसी प्यास
कि हम लिख दे कोई कविता
बहा दे हम भी भावो की सरिता
कहने लगे कुछ दोसत
कविता के लिए तो होता है वध
कितने ही मच्छर मारे
ताकि हम भी कुछ विचारे
देखे वधिक भी जाने-माने
पर नही आए जजबात सामने
नही उठा मन मे कोई ब्वाल
छोडा कविता लिखने का ख्याल
पर अचानक देख लिया एक नेता
बेशर्मी से गरीब के हाथो धन लेता
तो फूट पडे जजबात
निकली मुँह से ऐसी बात
जो बन गई कविता
बह गई भावो की सरिता
सुना था जरूरी है
कविता के लिए वध
फिर आज क्यो
निकले ऐसे शब्द ?
फिर दोसतो ने ही समझाया
कविता फूटने का राज बताया
नेता जी वधिक है साक्षात
वध किए है उसने अपने जजबात
जिनको तुम देख नही पाए
और वो शब्द बनकर कविता मे आए "

आरसी: आरसी चौहान की कविताएं- कौन भूलता है , कौन भूल पाता है - चकवा चकिया हम तुम भईया आआआआआआआ ,,,,


" एक खेल जिसके नाम से
फैलती थी सनसनी शरीर में
और खेलने से होता
गुदगुदी सा चक्कर
जी हां
यही न खेल था घुमरी परैया
कहां गये वे खेलाने वाले घुमरी परैया
और वे खेलने वाले बच्चे
जो अघाते नहीं थे घंटों दोनों
यूं ही दो दिलों को जोड़ने की
नयी तरकीब तो नहीं थी घुमरी परैया
या कोई स्वप्न
जिसमें उतरते थे
घुमरी परैया के खिलाड़ी
और शुरू होता था
घुमरी परैया का खेल
जिसमें बाहें पकड़कर
खेलाते थे बड़े बुजुर्ग
और बच्चे कि ऐसे
चहचहाते चिड़ियों के माफिक
फरफराते उनके कपड़े
पंखों से बेजोड़
कभी-कभी चीखते थे जोर-जोर
उई----- माँ----
कैसे घूम रही है धरती
कुम्हार के चाक.सी
और सम्भवतः
शुरू हुई होगी यहीं से
पृथ्वी घूमने की कहानी
लेकिन
कहां ओझल हो गया घुमरी परैया
जैसे ओझल हो गया है
रेडियो से झुमरी तलैया
और अब ये कि
हमारे खेलों को नहीं चाहिए विज्ञापन
न होर्डिगों की चकाचौंध
अब नहीं खेलाता कोई किसी को
घुमरी परैया
न आता है किसी को चक्कर । "


दफ़्अतन: तुम्हारे जाने के बाद.. तुम न होकर भी हो ... यादों की उस धूल की तरह , जिसे आज तलक अंतिम बार कोई बुहार नहीं सका ! एक तरफ से हटाने का उपक्रम , तो

दूसरी तरफ तुम -


" अब जबकि तुम
नही हो मेरी जिंदगी मे शामिल
तुम्हारा न होना
उतना ही शामिल होता गया है
मेरी जिंदगी मे

हर सुबह
घर से बुहार कर फेंकता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों की धूल
बंद खिड़की-दरवाजों वाले घर मे
न जाने कहाँ से आ जाती है इतनी धूल
हर रात
बदरंग दीवारों पर लगे माज़ी के जालों में
उलझे हुए फ़ड़फ़ड़ाते हैं
कुछ खुशगवार, गुलाबी दिन
बचता हूँ उधर देखने से
आँखे उलझ जाने का डर रहता है.
बारिश मे भीगी तुम्हारे साथ की कुछ शामें
फ़ैला देता हूँ बेखुदी की अलगनी पर
वक्त की धूप मे सूखने के लिये
मगर मसरूफ़ियत का सूरज ढ़लने के बाद भी
हर बार शामें बचा लेती हैं थोड़ी सी नमी
थोड़ा सा सावन
चुपचाप छुपा देती हैं
आँखों की सूनी कोरों मे

कमरे मे
पैरों मे पहाड़ बाँध कर बैठी है
गुजरे मौसम की भारी हवा
खोल देता हूँ हँसी की खोखली खिड़्कियाँ, दरवाजे
नये मौसमों के अनमने रोशनदान
मगर धक्का मारने पर भी
टस-मस नही होती उदास गंध
और दरवाजे का आवारा कोना
जो तुम्हारे बहके आँचल के गले से
किसी जिगरी दोस्त जैसा लिपट जाता था
अब चिड़चिड़ा सा हो गया है.
जबर्दस्ती करने पर भी नही खुलता है
चाय-पत्ती का गुस्सैल मर्तबान
तुम्हारे कोमल स्पर्श ने
कितना जिद्दी बना दिया है उसे
(थक कर अब बाहर ही पी आता हूँ चाय)

आइना अब मुझसे नजरें नही मिलाता
रूखे बालों से महीनों रूठा रहता है कंघा
प्यासे गमले अब मेरे हाथों पानी नही पीते
बिस्तर को मुझसे तमाम शिकवे हैं
टूटी पड़ी नींदों को मुझसे सैकड़ों गिले हैं
रो-रो कर सिंक मे ही सो जाते हैं
चाय के थके हुए कप
और ऊन की विवस्त्र ठिठुरती सलाइयाँ
अब सर्दियों मे भी आपस मे नही लड़ती

हाँ अब खिड़की से उचक कर अंदर नही झाँकती
दिसंबर की शाम की शरारती धूप
लान की मुरझाई घास पर
औंधे मुँह उदास पड़ी रहती है

अब मेरे चेहरे पर
बिना तस्वीर के सूने फ़्रेम सी
टंगी रहती हैं आँखें
और चेहरे की नम दीवारें
दिन के शिकारी नाखूनों की खराशों के
दर्द से दरकती रहती हैं
पड़ा रहता हूँ रात भर बिस्तर पर
किसी सलवट सा
नजरों से सारी रात छत के अंधेरे को खुरचता
और बाहर खिड़की से सट कर
बादल का कोई बिछ्ड़ गया टुकड़ा
रात भर अकेला रोता रहता है

एक-एक कर मिटाता जाता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों के पग-चिह्न
और तुम उतना ही समाती जाती हो
घर के डी एन ए में
किताबों ने पन्नों के बीच छुपा रखा है
तुम्हारा स्निग्ध स्पर्श
चादरों ने सहेज रखी है तुम्हारी सपनीली महक
आइने ने संजो रखा है बिंदी का लाल निशान
और तकिये ने बचा कर रखे हैं
आँसुओं के गर्म दाग

और घर जो तुम्हारी हँसी के घुँघरु पहन
खनकता फिरता था
वहाँ अब अपरिचित उदासी
अस्त-व्यस्त कपड़ों के बीच छुप कर
हफ़्तों बेजार सोती रहती है

ड्राअर मे पड़े अधबुने स्वेटर का अधूरापन
अब हमेशा के लिये दाखिल हो गया है
मेरी जिंदगी मे

हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे .."


इक सरसराहट सी है .... परछाइयां मुझसे बातें करती हैं , चलो कुछ दूर साथ चलें

7 टिप्पणियाँ:

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

अदभुत कविताएं
साधु साधु

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति,,,,,,

RECENT POST ,,,,फुहार....: न जाने क्यों,

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

are waah kitni saribaton ki yaad dila di...manmohak prastuti....

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

स्तरीय संकलन, प्रभावशाली प्रस्तुति।

सदा ने कहा…

बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ..आभार

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बहुत बढ़िया सीरीज चल रही है दीदी ... बधाइयाँ आपको !

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