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सोमवार, 30 अप्रैल 2012

कुछ इनकी कुछ उनकी - एक अलग व्यंजन एक दिलचस्प स्वाद (5)



सुना , पढ़ा और एहसास किया - वर्तमान का हर पल अतीत की नींव पर चलता है . बनते हैं कमरे रिश्तों के , बनते हैं कमरे यादों के , बनते हैं कमरे हंसी के ..स्विम्मिंग पूल आंसुओं के... ..बागवानी होती है बच्चों की ..काट - छांट सुन्दर सुडौल वृक्ष तैयार करता है ..जिद्द बना देता है फूलभंगा ! ..पॉलिश दर पॉलिश दीवारें क़ैद करती हैं तस्वीरों को और ज़मीन उनकी पद-चाप को सीने में क़ैद करती है ..दीवार का कोना कैलेंडर के पन्ने पलटता है ..और धीरे धीरे पूरा पन्ना पलट जाता है , सारे दृश्य बदल जाते हैं - बढ़ते वक़्त का अपना अतीत होता है और उसके वर्तमान का निर्माण ..ना कभी अतीत का क्रम ख़त्म होता है ,ना वर्तमान का ..नहीं ख़त्म होती है भविष्य की योजनायें ...कल पुरानी पीढ़ी थी ..आज नयी पीढ़ी , आगे आने वाली पीढ़ी ..
हम ही गाते हैं " जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है " पर उसे रोक लेने की ख्वाहिश रखते हैं ..खाली कमरे में बैठ कर समय को रिवाइंड करते हैं और आह भरते हैं ...ये खाली कमरे तो हर अतीत हर वर्तमान , हर भविष्य में हैं ..वापस लौटना आसान नहीं ..बेचैनी हर सेंसिटिव दिमाग में है ..अतीत की पुकार , वर्तमान की पुकार , भविष्य की पुकार - शोर बन कर दिल दिमाग में गूंजते हैं ..अब क्षमता आपकी - बीमार पड़ते हैं , थकते हैं या चलते हैं ..
क्रम चलता रहता है ..गीत गूंजते हैं कानों में .."बीते हुए दिन कुछ ऐसे ही हैं ..याद आते ही दिल मचल जाए "

"दूरियां
हर एक से बना कर रखिये
अपनों के दरमियाँ भी
थोड़ा फासला तो रखिए
.
दोस्त या दुश्मन
की परख तो रखिये
दिल की किताब में
हर एक का हिसाब तो रखिये
.
जिंदगी
में है कई रंज-औ-गम
पर कुछ गमो को
हमराज बना कर तो रखिये
.
दोस्ती है
तो गुफ्त-गु और दिल-ऐ-बयां भी कीजिये
मगर
कुछ तो पर्दा भी रखिये
.
दिल है तो
गमो का बादल भी होगा
पर खुशियों के बरसात
बरसा कर के तो रखिये " http://www.jindagikeerahen.blogspot.in/

"मेरे inbox में पड़ा तुम्हारा सन्देश.......
'क्या हुआ
r u there "?.....

"where r u ????????"
आज मुझे चिढ़ा रहा है,
खूब रुला रहा है,
जितनी पीड़ा ताउम्र नहीं मिली,
उससे ज्यादा आज तड़प
एक पल में पा ली....
जीवन भर न मिट पानेवाली
ग्लानि पा ली.....


मैं रुक न सकी दो पल,
और तुम इतनी आगे निकल गए...
मेरे उत्तर की प्रतीक्षा भी न कर सके?
मेरा जवाब तो सुन लेते,
जाते-जाते कुछ तो कह जाते .
आज बार-बार मैं msg कर रही हूँ..
'क्या हुआ, r u there ?'
कोई जवाब नहीं...
अब; कभी कोई जवाब नहीं...
जीवन भर पूछती ही रह जाऊँगी
पर अब कभी कोई जवाब न पाऊँगी
क्यों न इंतज़ार कर सकी उस पल
और अब इंतज़ार हर पल
अविराम........" http://ragini-astitva.blogspot.in/

" कभी तल्ख़ सा चुभता है ये
कभी संजोये सुमधुर ख्वाब
कभी कह जाता क्षण-क्षण
और कभी निशब्द हो जाता है....|


थामना चाहती हूँ जब कभी
रफ़्तार उसकी बढ सी जाती है
कभी गुजर जाने की चाह में ये
शूल सी पीड़ा दे जाता है....|


मैं हूँ बेसुध खोज में इसकी
चाहती हूँ हर पल साथ चलना
पर मुझे ही उलझा कुछ पलों में ये
आगे बढ जाता मेरा ही चिर प्रतिद्वंदी
ये निष्ठुर समय....|| " http://asha-bisht.blogspot.in/

"सूरज छुट्टी पर है और चाँद को उतार कर आले पर रख दिया है। दिन एकसार हो गये हैं और रातें रोशनीखोर। ऐसे में न प्रात होती है और न साँझ। तबियत नासाज नहीं, क़ैद हो गई है – न जेल का पता और न जेलर का। इस क़ैदखाने में कोई गाछ नहीं। कउवा की बोली का सवाल ही नहीं उठता कि सुन कर सूफियाना हो जाऊँ और कहूँ मुझे नोच नोच खा ले, आँखों को भी न छोड़! रखने से भी क्या होगा जब कि सब एक सा दिख्खे! आवाज़ों से जानता हूँ कि दुनिया बदस्तूर उन मुलायमबाजियों में व्यस्त बढ़ती जा रही है जिन्हें मैं लिजलिजा कह थूकता रहा हूँ।

मैं जब भी सीरियस होता हूँ तो स बोलने पर श हो जाता है। जीभ अपने आप तालू की ओर आवारा चुम्बन को बढ़ जाती है। मुझे फिल्मों के एलियन कौंधते हैं जिनके समूचे चेहरे से श्लेष्मा टपकती रहती हैं और फिर वह कथा जिसमें एक राजकुमारी को मेढक को चूमना होता है जिससे वह सुन्दर राजकुमार बन जाता है। दुनिया बदलने का जिम्मा राजकुमारियों को दिया गया है जो अनिवार्यत: बला की खूबसूरत होती हैं, जिनकी हँसी से फूल झड़ते हैं और रुलाई से मोती गो कि दुनिया उन्हें रुला रुला कर ही धनी होती रही है। उनके हँसने से तो हवा में पराग फैलते हैं, एलर्जी की बीमारियाँ बढ़ती हैं। अब जीभ तो रहती ही लार सार के बीच है, तालू पर भी वही लिपटा हो तो की फरक पैंदा? लेकिन राजकुमारी को कैसे हिम्मत होती होगी एक बदसूरत श्लेष्मा पोते मेढक को चूमने की? उसे उबकाई नहीं आती? " http://girijeshrao.blogspot.in/

" प्रयाण कर प्रयाण कर
हे यायावर, प्रयाण कर
अब मुक्त हुआ तू शिखा काटकर
खोज निलय का नाभी-अमृत
ढून्ढ क्षितिज का धरणी पर रथ
प्रयाण कर, प्रयाण कर
हे यायावर, प्रयाण कर

श्रृष्टि बीज का अंकुर अब तू
कंठ गरल का शंकर अब तू
दिनकर के कर कहाँ छुपे हैं ?
पहचान कर पहचान कर
अनुशंधान कर, शंधान कर
प्रयाण कर, प्रयाण कर
हे यायावर, प्रयाण कर

शशि की शीतल चेतना को
मरू की मार्मिक वेदना को
नभ सी गहरी तन्द्रा को
अंतस से पकड़, अंतस से पकड़
प्रयाण कर, प्रयाण कर
हे यायावर, प्रयाण कर

है व्योम का सारांश तू अब
ओ ब्रह्म-नाभी के धवल कमल
शिव तांडव के रचना फल
ओ 'जद दृष्टम तद श्रृटम'
निर्माण कर, निर्माण कर
प्रयाण कर, प्रयाण कर
हे यायावर, प्रयाण कर

जिजीविसाओं की रिचाओं
का तुझे संज्ञान है
इस नित नए से मार्ग का
अज्ञान ही विज्ञान है
कर्म से संसर्ग कर
प्रयाण कर, प्रयाण कर
हे यायावर, प्रयाण कर " http://rajkibaatpatekibaat.blogspot.in/

मुझे तो व्यंजनों की खोज ने दीवाना बना दिया , आपका क्या ख्याल है ?

रविवार, 29 अप्रैल 2012

जिंदगी की जद्दोजहद और ब्लॉग बुलेटिन

ब्लॉग बुलेटिन की 151वीं कड़ी के साथ आपका दोस्त  शाह नवाज़ एक बार फिर से हाज़िर है. हफ्ते भर प्लान बनाया था, कि इस बार के बुलेटिन में यह बात कहूँगा, वोह मुद्दा उठाऊंगा. मगर पूरा दिन मसरूफियात में यूँ ही गुज़र गया. सुबह से ही बैचेन था आप लोगो से रूबरू होने को, परन्तु जब आपके पास ब्लॉग पोस्टों के अपने पिटारे के साथ हाज़िर हुआ तो देखिये वक़्त इजाज़त नहीं दे रहा है. जब तैयारी पूरी की तो शिवम भय्या ने बताया की आउट पुट में गडबड है. गडबडी ठीक करने में कुछ ज्यादा ही समय लगा, जिसके कारण बहुत से लिंक छोड़ने पड़े, क्षमा चाहता हूँ........ 

पता नहीं ब्लॉगर की कमी है या अपनी. शायद अपनी ही होगी... ब्लॉगर नित नए प्रयोग कर रहा है और हम ठहरे वही पहले वाले. लगता है अपने आप को अब रोज बदलने का, अपडेट करने का समय आ गया है बंधू! 

सुबह फिर से ज़िन्दगी के जिहाद पर लगना है, ऑफिस के काम की फ़िक्र अभी से सताने लगी है. लोग कहते हैं कि हफ्ते के अंतिम दिन आराम मिल जाता है, पर सच कहूँ तो दिन चढ़ने के साथ-साथ बचे हुए कामों की फ़िक्र एक बार फिर से शुरू होने लगती है. क्या कहें ज़िम्मेदारी चीज़ ही ऐसी होती है, चैन लेने ही नहीं देती. 

चलिए ज़िन्दगी की जद्दो-जहद तो चलती ही रहेगी, आप ब्लॉग जगत की खट्टी-मीठी पोस्टों का आनंद लीजिये.


"छींटे और बौछारें" पर  पढ़िए
एक शाम कन्याकुमारी के नाम


कन्याकुमारी में विराट, अनंत समुद्र में से सूर्योदय और सूर्यास्त को देखने का अपना अलग अनुभव है. इन चित्रों से उस माहौल की कल्पना आप भी कर सकते हैं...




"काव्य मंजूषा" पर पढ़िए
ये कैसी नौकरी है जहाँ हर दिन की शुरुआत ही झूठ और फरेब से होती है....
कॉल सेण्टर में काम करने वाली एक नई युवा पीढ़ी की खेप की बाढ़ इन दिनों पूरे देश में आई हुई है ....पश्चिम के सुर में सुर मिलाते हुए और अंग्रेजियत का लबादा ...




"TSALIIM" पर पढ़िए
पानी के बिन जीवन कैसे सम्‍भव है ?

हालाँकि धरती का 70.87 प्रतिशत भाग पानी से घिरा हुआ है, बावजूद इसके धरती पर पीने के पानी का जबरदस्‍त संकट विद्यमान है। इसका मुख्‍य कारण यह है कि धरती पर उपलब्‍ध 97.5 प्रतिशत जल लवणीय है और मात्र 2.5 प्रतिशत जल पीने के योग्‍य है।

 "अनवरत" पर पढ़िए


वित्त मंत्री वाशिंगटन गए। वहाँ जा कर बताया कि प्रधानमंत्री बहुत मजबूत हैं। वे आर्थिक सुधार करने के लिए कटिबद्ध हैं (चाहे कुछ भी क्यों न हो)। उन्होंने ...


"मनोज" पर पढ़िए
भारतीय काव्यशास्त्र – 110


आचार्य परशुराम राय पिछले अंक में आलम्बन ऐक्य, आश्रय ऐक्य और विरोधी रसों का निरन्तरता के साथ वर्णन से काव्य में आए रसदोषों के परिह...




"नारी , NAARI" पर पढ़िए
ब्रेस्ट इम्प्लांट , इंडिया टुडे का कवर गैर जरुरी
ब्रेस्ट इम्प्लांट करना ना करना किसी का अपना अधिकार हैं जो उसको संविधान और कानून ने दिया हैं इस पर बहस करना फिजूल हैं अगर क़ोई एडल्ट हैं और ये करना चाहता ...



"सिंहावलोकन" पर पढ़िए
अकलतरा के सितारे


आजादी के बाद का दौर। मध्‍यप्रांत यानि सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार में छत्‍तीसगढ़ का कस्‍बा- अकलतरा। अब आजादी के दीवानों, सेनानियों की उर्जा नवनिर्माण...



"न दैन्यं न पलायनम्" पर पढ़िए
उन्होनें साथ निभाया

दस दिन की यात्रा थी, पैतृक घर की। बहुत दिन बाद छुट्टी पर गया था अतः अधीनस्थों को भी संकोच था कि जब तक अति आवश्यक न हो, मेरे व्यक्तिगत समय में व्यवधान...




"मेरे गीत !" पर पढ़िए
मैंने तो मन की लिख डाली ( भूमिका मेरे गीत की )


*उर्मिला दीदी * *बचपन में दो साल की उम्र की धुंधली यादों में मुझे , मुझे २० वर्षीया उर्मिला दीदी की गोद आती है जो मुझे अपनी कमर पर बिठाये, रामचंदर दद्दा...


"शब्दों का सफर"  पर पढ़िए
लोबान की महक 


दुनिया में शायद ही कोई होगा जिसे खुशबू नापसन्द होगी । सुवास से न सिर्फ़ तन-मन बल्कि आसपास का माहौल भी महक उठता है । सुगन्धित पदार्थ की...





"अजित गुप्‍ता का कोना" पर पढ़िए
हम अक्‍सर “यूज” होते हैं
मानवीय रिश्‍ते एक-दूसरे के पूरक होते हैं। हर पल हमें एक-दूसरे की आवश्‍यकता रहती है। लेकिन कभी ऐसा लगता है कि फला व्‍यक्ति हमें यूज कर रहा है...



"स्पंदन SPANDAN" पर पढ़िए
उम्मीदों का सूरज
आज निकली है धूप बहुत अरसे बाद सोचती हूँ निकलूँ बाहर समेट लूं जल्दी जल्दी कर लूं कोटा पूरा मन के विटामिन डी का इससे पहले कि फिर पलट आयें बादल और ढक ...



"अंतर्मंथन" पर पढ़िए
फेसबुक ने बदल दी है ब्लॉगिंग की तस्वीर
लम्बे सप्ताहांत पर लम्बे सफ़र की लम्बी दास्ताँ जारी रहेगी . हालाँकि अभी दो दिलचस्प किस्त बाकि हैं . लेकिन अभी लेते हैं एक छोटा सा ब्रेक . ब्रेक के बाद आपक...



"अपनी, उनकी, सबकी बातें"  पर पढ़िए
मुर्झाये उपवन में नन्ही कली का प्रस्फुटन (कहानी --10)


*(जया के कविता संग्रह को पुरस्कार मिलने पर पत्रकारों ने उसकी दर्द भरी कविताओं का राज़ पूछा .जया पुरानी यादों में खो गयी बचपन बड़े प्यार में बीता....बाबूजी...




"देशनामा"  पर पढ़िए
बिना शब्द की पोस्ट...खुशदीप



 इसे देखें, आप हिल जाएंगे...




"An Indian in Pittsburgh - पिट्सबर्ग में एक भारतीय"  पर पढ़िए
परशु का आधुनिक अवतार - इस्पात नगरी से [57]


माँ बाप कई प्रकार के होते हैं। एक वे जो बच्चों की उद्दंडता को प्रोत्साहित करते हैं जबकि एक प्रकार वह भी है जो अपने बच्चे की ग़लती होने पर खुद भी शर्मिन्दा...



"ज्ञानवाणी"  पर पढ़िए
मातृत्व की गरिमा बढ़ा देते हैं " पीले -पोमचे " ...राजस्थानी संस्कृति में परिधान (3)


प्रकृति द्वारा इस सृष्टि की सम्पूर्णता के लिए दिए गये अनुपम उपहारों में नर और नारी भी सम्मिलित हैं. प्रकृति ने ही उसी नारी को मातृत्व का सुख ,अधिकार और...




"धान के देश में!"  पर पढ़िए
किसी को नहीं पता कि घोटालों का रुपया आखिर कहाँ जाता है
घोटाले होते हैं, और उसके बाद उसकी जाँच होती है जो कि पच्चीसों साल तक चलती है। पच्चीस साल के बाद जाँच का यह यह निष्कर्ष आता है कि फलाँ दोषी नहीं पाया गया...




"कवि योगेन्द्र मौदगिल"  पर पढ़िए
२३ को नकोदर के कविसम्मेलन में रहा.. 
- २३ को नकोदर के कविसम्मेलन में रहा.. २६ को सूर जयंती के उपलक्ष में हो रहे कविसम्मेलन में फरीदाबाद रहूँगा.. आज यहीं मस्ती मारते हैं.. आप सब के साथ जाल-मंच ...





"उड़न तश्तरी ...."  पर पढ़िए
सेन फ्रेन्सिसको से कविता...


एक सप्ताह गुजर चुका है सेन फ्रेन्सिसको आये. एक सप्ताह होटल में और रहना है फिर एक किराये का अपार्टमेन्ट ले लिया है, उसमें शिफ्ट हो जायेंगे. नजदीक ही है. ३० ...





"मानसिक हलचल - Halchal.org"   पर पढ़िए
लिमिटेड हाइट सब वे (Limited Height Sub Way)
रेल की पटरियों को काटते हुये सड़क यातायात निकलता है और जिस स्थान पर यह गतिविधि होती है, उसे लेवल क्रॉसिंग गेट (समपार फाटक) कहा जाता है। समपार फाटक रेल (और ...



और अंत में....




"पाल ले इक रोग नादां..."  पर पढ़िए
नहीं मंजिलों में है दिलकशी, मुझे फिर सफर की तलाश है...


नहीं मंजिलों में है दिलकशी...न, बिलकुल नहीं ! मोबाइल के उस पार दूर गाँव से माँ की हिचकियों में लिपटे आँसू भी कहाँ इस दिलकशी को कोई मोड दे पाते हैं| क्यों...




इसी के साथ आज का बुलेटिन समाप्त करता हूँ, अगले बुलेटिन के साथ इंशाल्लाह एक बार फिर अगले हफ्ते मिलेंगे... 

तब तक के लिए खुदा हाफ़िज़

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

सलिल बिहारी, एम्.पी. के तरफ से डेढ़ सौवाँ - ब्लॉग बुलेटिन


ई जो हमरे सिवम बाबू हैं ना, जब कोनो हाफ सेंचुरी, सेंचुरी, चाहे डेढ़ सेंचुरी वाला बुलेटिन का पारी आता है, त हमको पकड़ा देते हैं, लिखने के लिए. इनको पता है कि हम ना नहिंये बोलेंगे. बाकी जब कोनो ज्वलंत मुद्दा होता है त हमको कहियो नहीं कहेंगे. अब जाने दीजिए, बड़प्पन का बहुत सा नोकसान में एगो इहो नोकसान है कि छोटा भाई लोग का बात मानिए लेना पड़ता है. त चलिए हमहूँ हाजिर हैं एकाध ठो ताजा खबर के साथ आज का डेढ़ सौवाँ बुलेटिन लेकर. बिहारी बाबू एम्.पी (महा पकाऊ- एम्.पी. माने हर घड़ी सचिन नहीं होता है)

बॉलीवुड अभिनेत्री जोहरा सहगल ने नई दिल्ली में शुक्रवार, 27 अप्रैल को कुछ इस तरह केक काटकर अपना सौवां जन्मदिन मनाया। (चित्र जागरण से साभार ) 
सबसे पहिले बात करते हैं सेंचुरी का... का बोले.. सचिन का बारे में. दुर्र, सेंचुरी माने हर घड़ी सचिन नहीं होता है. आज त सेंचुरी के नाम पर जिनको हम इयाद कर रहे हैं उनका पैर छूने का मन करता है. आज सौ साल का उम्र हो गया महान कलाकार जोहरा सहगल का. आझो उनको याद करते हैं त उनका ओही सरारत भरा आँख याद आता है और खूबसूरत आवाज़. हिन्दी, अंग्रेज़ी अऊर उर्दू पर एक समान महारत... जेतना अच्छा कलाकार, ओतने माहिर नर्तकी. अब नृत्य और उदय शंकर जी का नाम के साथ जब इनका नाम जुट जाए त आप अंदाजा लगा सकते हैं कि बस संगम का पबित्रता इस्टेज पर बिखर जाता है. ख्वाजा अहमद अब्बास साहब अऊर चेतन आनंद जी के साथ फिल्म का सुरुआत, इप्टा का सम्बन्ध, एक तरफ १९४६ का धरती के लाल और नीचा नगर, दूसरा तरफ चीनी कम और सांवरिया सन २००७ में.. बीच में बहुत सा हिन्दी अंग्रेज़ी सिनेमा, रंगमंच और टीवी. पद्मविभूषण (२०१० में), संगीत नाटक आकादमी का फेलोशिप (२००४ में) अऊर २००१ में कालिदास सम्मान.. बस एतना काफी है उनके बारे में कहने के लिए. हैप्पी बर्थ डे!! आपको परमात्मा अऊर लंबा उम्र दे!! लीजिये आपो पढ़िये ... अभी तो मैं जवान हूँ ... अभी तो मैं जवान हूँ - जोहरा सहगल के 100 वे जन्मदिन पर विशेष

चलिए अब तनी पार्लियामेंट का बात करते हैं... ताजा ताजा बात है... का बोले.. सचिन का बारे में. दुर्र, अरे ताजा एम्.पी. माने हर घड़ी सचिन नहीं होता है भाई! आज त रेखा जी के बारे में बतियाने का मन है. रेखा गनेसन, राज्य सभा में मनोनीत एम्.पी. अब जाकर हमरा बचपन का सपना पूरा हुआ. अरे एतना आँख तरेर कर काहे देख रहे हैं. बचपन से सुनते आ रहे हैं
निरमा, निरमा, वासिंग पाउडर निरमा,
रेखा, हेमा, जया अऊर सुसमा!
आज जाकर रेखा जी के आने से ई गनवा सच हुआ है. सब लोग बोलता है कि संसद में सब दूध का धुला नहीं होता है. अब ई चारों के आ जाने से का जाने दूध सा सफेदी आइये जाए! नहीं त काजल के कोठरी में से त देस का जनता एगो रोसनी का उम्मीद लगाए बैठले है.
अब आप लोग लिंक संभालिए अऊर घूमिये तनी ब्लॉगे-ब्लॉग. भाई हमनी का डेढ़ सौवाँ बुलेटिन है. पूरा टीम को बधाई अऊर पढ़ने वाला लोग को धन्यवाद! ले बलैय्या, सचिन के बारे में हम कहबे नहीं किये! दुर्र हर बुलेटिन का माने सचिन थोडो न होता है!

**************


आज निकली है धूप 
बहुत अरसे बाद 
सोचती हूँ 
निकलूँ बाहर 
समेट लूं जल्दी जल्दी 
कर लूं कोटा पूरा 


भैया ,रामसहारे जी।
क्यों हो हारे--हारे जी
क्यों तन्हा बेचारे जी।
सोचो रामसहारे जी


ऐसे दीपक को बुझाये क्या हवा -
तूफां में भी जो सदा जलता रहा ।


हृदय-देहरी पर , हथेली ने ढका  
मुश्किलों का दौर यूं  टलता  रहा ।


माँ बाप कई प्रकार के होते हैं। एक वे जो बच्चों की उद्दंडता को प्रोत्साहित करते हैं जबकि एक प्रकार वह भी है जो अपने बच्चे की ग़लती होने पर खुद भी शर्मिन्दा होकर क्षमायाचना करते हैं। एक माता पिता बच्चों के पढाई में ध्यान न देने पर उन्हें डराते हैं कि पढोगे नहीं तो घास काटनी पड़ेगी।

मेरे अंदर का बच्चा
क्यूँ करता है तंग
अंदर ही अंदर करता है हुड़दंग ।



मैंने सीताफल बाईक की डिक्की में रखा और उसे बीस का नोट दिया। उसने नोट को अपनी जेब में डाला और उसके बाद उसी हाथ से  दूसरी तरफ की जेब में से एक का सिक्का निकालने की कोशिश करने लगा। दूसरा हाथ कोहनी के  ऊपर से ही कटा हुआ था।


देश-वेश और जाति, धर्म का, मन में कुछ भी भेद नहीं।
भोग लिया जीवन सारा, अब मर जाने का खेद नहीं।।


शब्दों के अरण्य में
विचारों की गोष्ठी होती है
सुख दुःख आलोचना समालोचना
प्यार नफरत ...


"ए पगली, नींद आ रही है क्या ??? सर सहला दूं... ?"
"हम्म्म्म....."
".... आओ, चलो सो जाओ.. !!!"
"अच्छा एक बात बताओ, तुम्हारा हाथ दर्द नहीं करता ??? यूँ घंटों मेरा सर सहलाते रहते हो, खुद तो एक मिनट के लिए भी नहीं सोते.... !!!"



कभी कभी यूँ ही मैं ,
अपनी ज़िन्दगी के बेशुमार
कमरों से गुजरती हुई ,
अचानक ही ठहर जाती हूँ ,
जब कोई एक पल , मुझे
तेरी याद दिला जाता है !!!


मानवीय रिश्‍ते एक-दूसरे के पूरक होते हैं। हर पल हमें एक-दूसरे की आवश्‍यकता रहती है। लेकिन कभी ऐसा लगता है कि फला व्‍यक्ति हमें यूज कर रहा है। अर्थात हमारा उपयोग अपने स्‍वार्थपूर्ति के लिए कर रहा है। कई बार इस सत्‍य को आप जानते भी हैं लेकिन फिर भी आप यूज होते हैं।

अब आप लोग एन्जॉय कीजिये.. आनंद लीजिए.. हम एम्.पी. हैं मगर ई लिंक में जेतना पोस्ट है, उसमें से कोनो एम्.पी. नहीं हैं. पढ़िए और देखिये!!! हम चले!!!

जय राम जी की!  

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

अभी अलविदा न कहना ... विक्रम जी - ब्लॉग बुलेटिन

ब्लॉग बुलेटिन आपका ब्लॉग है.... ब्लॉग बुलेटिन टीम का आपसे वादा है कि वो आपके लिए कुछ ना कुछ 'नया' जरुर लाती रहेगी ... इसी वादे को निभाते हुए हमने शुरू की श्रृंखला "मेहमान रिपोर्टर" ... इस श्रृंखला के अंतर्गत हर हफ्ते एक दिन आप में से ही किसी एक को मौका दिया गया बुलेटिन लगाने का ... तो अपनी अपनी तैयारी कर लीजिये ... हो सकता है ... अगला नंबर आपका ही हो !



"मेहमान रिपोर्टर" के रूप में आज बारी है धीरेन्द्र जी की...

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विक्रम सिंह

.नमस्कार साथियो
मै धीरेन्द्र अपनी प्रथम चर्चा पोस्ट में आज एक ऐसे ब्लॉगर की रचनाओ को प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनकी प्रेरणा से मै ब्लोगर बना और मैंने लिखना शुरू किया ! और अभी हाल ही में इन्होने ने ब्लॉग दुनिया को समयाभाव के कारण अलविदा कहा है,.. जी हाँ मै बात रहा हूँ "विक्रम जी" की, विक्रमजी लिखते कम और कमेंट्स भी कम करते थे,इसके कारण अधिकतर पाठकों ने इनकी रचनाओं को नही पढ़ा, पर जो लिखते है ,वह मिसाल बन जाता है, हर रचना भावना प्रधान,व कुछ सोचने पर मजबूर करती ,विषय चयन भी अलग अलग है, तभी तो विजय जी, ने उनके बारे में कहा कि "शब्दों से खेलना कोई आप से सीखे" | अभी एक बोल्ड रचना को लेकर विवाद हुआ, उसी विषय पर विक्रम जी ने लिखा, "
समय ठहर उस क्षण,है जाता...," पर,मर्यादा में रह कर, और दूसरी रचना में खुद उसी का जवाब भी, अद्भुत लेखन शैली के धनी है विक्रम जी, प्रस्तुत है मेरी पसंदीदा उनकी कुछ रचनाये.....
1 - समय ठहर उस क्षण,है जाता...

समय ठहर उस क्षण,है जाता

ज्वार मदन का जब है आता
रश्मि-विभा में रण ठन जाता

तभी उभय नि:शेष समर्पण,ह्रदयों का उस पल हो जाता

2 - आँसू से उर ज्वाल बुझाते...

आँसू से उर ज्वाल बुझाते

देह धर्म का मर्म न समझा
भोग प्राप्ति में ऎसा उलझा

कर्म भोग के बीच संतुलन,खोकर सुख की आश लगाते

3 - आ,मृग-जल से प्यास बुझा लें...

आ,मृग -जल से प्यास बुझा लें

कहाँ गई मरकत की प्याली
द्रोण-कलश भी मेरा खाली

चिर वसंत-सेवित सपनों में,खोकर शायद मधु-रस पा लें

4 - अन्ना के सम्बन्ध पर लिखे मेरे लेख पर...

अन्ना पहले यह निश्चय कर लें, वह करना क्या चाहते हैं.
अन्ना को यह समझना चाहिए,की देश की जनता भ्रष्टाचार से परेशान है,और अन्ना नें उसका लाभ लेकर दिशाहीन आन्दोलन व सस्ती लोकप्रियता हासिल करनें का प्रयास किया , अन्ना कहते हैं,अगले लोकसभा चुनाव में जनता को जागृत करेगें युवाओं को चुनाव लड़ाएँगे,.......

5 - महाशून्य से व्याह रचायें...

महाशून्य से व्याह रचायें

क्रिया- कर्म से ऊपर उठ कर
अहम् और त्वम् यहीं छोड़कर

काल प्रबल के सबल द्वार को ,तोड़ नये आयाम बनायें

6 - है कौन कर रहा प्रलय गान...

है कौन कर रहा प्रलय गान

भय-ग्रसित हो गए तरु के गात
हो शिथिल झर रहे उसके पात

सकुचे सहमें तरु के पंछी,गिर गिर कर तजनें लगे प्राण

है कौन कर रहा प्रलय गान..

7 - तन्हाई में मै गाता हूँ...

तन्हाई में मै गाता हूँ

यादों के बादल जब आते
मदिर-मदिर रस हैं बरसाते

शीतल मंद पवन के संग मै,अक्षय सुधा पीने जाता हूँ

तन्हाई में मै गाता हूँ

8 - मैं जीवन का बोधि-सत्व क्याँ खो बैठा हूँ .......

मैं जीवन का बोधि-सत्व क्याँ खो बैठा हूँ
या जीवन के सार-तत्व में आ बैठा हूँ
मैं अनंत की नीहारिका में अब क्या ढूढूँ
स्वंम पल्लवित सम्बोधन में खो बैठा हूँ

9 - मैनें अपने कल को देखा....

मैनें अपने कल को देखा

उन्मादित सपनों के छल से
आहत था झुठलाये सच से

10 - क्यूँचुप हो कुछ बोलो श्वेता.....

क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता
मौंन बनी क्यूँ मुखरित श्वेता

10 - कैसा,यह गणतंत्र हमारा.........

कैसा,यह गणतंत्र हमारा

भ्रष्टाचार , भूख से हारा
वंसवाद का लिये सहारा

आरक्षण की बैसाखी पर,टिका हुआ यह तंत्र हमारा

11 - वह सुनयना थी...

वह सुनयना थी
कभी चोरी-चोरी मेरे कमरे मे आती
नटखट बदमाश
मेरी पेन्सिले़ उठा ले जाती,..

12 - इतने दिनों बाद.......

इतने दिनों बाद
अपनी खीची,अर्थहीन रेखा के पास
खड़ा हूँ
तुम्हारे सामाने


13 - मै चुप हूँ.....

मै चुप हूँ
ढूढता है तू
बन व्रतचारी
हिम शिखर में
स्वंम सिध्द मंत्रो की साधना से
मै चुप हूँ


14 - द्वन्द एक चल रहा.........

द्वन्द एक चल रहा रहा
रक्त नीर बह रहा
कर्म के कराहने से
इक दधीच ढह रहा
क्यूँ अनंत हों नये,छोड़ कर चले गये
एक बूंद नीर की , दो कली गुलाब की
देह-द्वीप जल रहा

15 - इस ब्लॉग की आखिरी पोस्ट ...

आदरणीय साथियो
नमस्कार
आज से अपने ब्लॉग विक्रम ७ में लेखन कार्य समय की कमी के कारण बंद कर रहा हूँ


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मेरी विक्रम जी से विनती है कि हो सके तो एक ब्रेक के बाद ही सही पर वापसी जरूर करें !
आप सभी ब्लॉग बुलेटिन के पाठकों को मेरा चयन एवं विक्रम जी की रचनाये कैसी लगी, जरूर बताएं ... आपके विचार आमंत्रित है !
सादर आपका

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

आज बुलेटिन में पढिए ..नहीं नहीं ..देखिए पोस्टों का ..चित्रहार

 

 

अबे बंद करो ई चैनल सौ ठो , फ़ोड के फ़ेंकों इस रिमोट को यार ,
दिन रात करें हैं ओवर टाईम , मगर दिखा नहीं सकते "चित्रहार "

चित्रहार याद है कि याद दिलाएं हो ....रुकावट के लिए खेद वालों

 

 

तो चलि आज लिए चलते हैं आपको आज की , नहीं नहीं बिल्कुल नहीं , सिर्फ़ आज की तो नहीं हैं , तो कुछ उन पोस्टों की झलकियों का चित्रहार दिखाते हैं जिन पर खाकसार विचरते रहे


 

पूजा के बारे में रश्मि प्रभा जी बहुत खूबसूरत बातें पहले ही कह चुकी हैं और आप जितनी बार भी इनकी पोस्टों को पढेंगे तो यकीनन वो सारी खूबसूरत बातें आपको याद आएंगी । पूजा जब मूड में हों , और लिखने के मूड में हों ..तो फ़िर ..देखिए आप खुद देखिए


लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

मैं ऐसी ही किसी शाम मर जाना चाहती हूँ...मैं दर्द में छटपटाते हुए जाना नहीं चाहती...कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जाना चाहती.
उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.

ये शहर बहुत तनहा कर देने वाला है...यहाँ आसमान से भी तन्हाई ही बरसती है. आज दोपहर बरसातें हुयीं...किताब पढ़ रही थी और अचानक देखा कि बादल घिर आये हैं...थोड़ी देर में बारिश होने लगी...अब एक तरफ मिस्टर सिन्हा और उनके सिगार से निकलता धुआं था...दुनिया को नकार देने के किस्से थे...बेजान किताबें थीं और एक तरफ जिंदगी आसमान से बरस रही थी जैसे किसी ने कहा हो...मेरी जान तुम्हें बांहों में भर कर चूम लेने को जी चाहता है. मैंने हमेशा जिंदगी को किताबों से ऊपर चुना हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता...तो बहुत देर तक बालकनी से बारिशें देखती रही...फिर बर्दाश्त नहीं हुआ...शैम्पू करके गीले बालों में ही घूमने निकल गयी...एक मनपसंद चेक शर्ट खरीदी है अभी परसों...फिरोजी और सफ़ेद के चेक हैं...थोड़ी ओवरसाइज जैसे कोलेज के टाइम पापा की टीशर्ट होती थी.

 

 

अगला खूबसूरत कतरा है कंचन जी का , कंचन सिंह चौहान ..ब्लॉग हृदय गवाक्ष पर वो देखिए क्या कहती हैं

क्यों ना बैसाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी

पिछले वर्ष  लगभग इन्ही दिनों गुरू जी के ब्लॉग पर ग्रीष्म का तरही मुशायरा  हुआ था। वैशाख आया भी और जाने को भी है, तो सोचा लाइये ये मौसमी बयार यहाँ भी चले.....

दोस्त सी आवाज़ देती, गर्मियों की वो दुपहरी,
और रक़ीबों सी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी।
ओढ़ बैजंती के पत्ते, छूने थे जिसको शिखर उस,
ज़िद से करती होड़ सी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।

 

अभिषेक की एक खूबसूरत पोस्ट ..अभिषेक मेरे छोटे बाई जैसा है , और मैं अक्सर उसकी पोस्टों को पढते रहने के बावजूद बुलेटिन में बांचना भूल जाता हूं , अब बडे भाई का कुछ जुलुम तो झेलना ही पडता है , लेकिन बच्चा अखबारीलाल हो गया यानि अभिषेक की पोस्टों की चर्चा अखबारों में है जानकर अच्छा लगा , देखिए आज की पोस्ट

 

वो गर्मियों के दिन..मेरा बचपन और गुलज़ार

दिल्ली में हूँ और गर्मियां शुरू हो गयी है...कई सालों बाद मैं उत्तर भारत की गर्मी को अनुभव कर रहा हूँ..पिछले आठ-नौ सालों से कर्नाटक में रहने के कारण उत्तर भारत की गर्मियों से पाला ही नहीं पड़ा.वैसे कर्नाटक में भी गर्मी अच्छी खासी पड़ती है, लेकिन इधर से बिलकुल अलग.वैसे मुझे गर्मियों से कोई खास प्यार नहीं है, और ना तो कोई खास नफरत लेकिन गर्मियों के मौसम में अपने बचपन के बिताए दिनों की याद आती है.थोड़ा नॉस्टैल्जिक सा मौसम होता है ये मेरे लिए.गर्मियों की याद सिर्फ और सिर्फ मेरे बचपन की ही है, क्यूंकि पटना से बाहर जाने के बाद शायद ही ऐसी कोई गर्मियों के दिन हों जिसका जिक्र यहाँ किया जा सके.

बचपन के गर्मियों की बात ही कुछ और थी, वो बात अब कहाँ..गर्मियों की सुनसान दोपहर में स्कूल से आने के बाद हम लोग कान लगाये रहते थे की कब आईस-क्रीम वाले की आवाज़ सुनाई दे..और फिर जैसे ही दोपहर या शाम को गली से आईस-क्रीम वाले की 'ढप-ढप' या आवाज़ सुनाई देती तो बस हमारे अंदर आईस-क्रीम खाने की इच्छा कुलबुलाने लगती और घरवालों से कितना रिक्वेस्ट वैगरह करने के बाद हमारी आइसक्रीम खाने की ईच्छा पूरी होती थी..उन्ही दिनों एक नयी तरह की आईसक्रीम(कुल्फी)पटना में बिकनी शुरू हुई(या शायद पहले से बिकती हो),मटका-कुल्फी.ये हम बच्चों के लिए एकदम नये तरह का आईसक्रीम था(हमने कभी इसे कुल्फी कहा ही नहीं बल्कि हमेशा पीला वाला आइसक्रीम ही कहा).कुल्फी वाले भैया अपने ठेला से कुल्फी निकालते जो की एक ग्लास जैसे बर्तन में रहता और फिर चाक़ू से उसे चार भाग में काट कर एक स्टिक लगा कर चार अलग कुलफियां निकालते.हम ये सब उन दिनों बड़े हैरत से देखते और बड़ा अच्छा लगता था इस तरह से कुल्फी को काट कर निकलते देखना. मटका-कुल्फी के आने से हमारी आईसक्रीम खाने की रिक्वेस्ट जल्दी पूरी हो जाती थी, क्यूंकि घरवाले भी जो खाते थे मटका-कुल्फी.वैसे हमारी रिक्वेस्ट को घरवाले कभी कभी ये समझा कर टाल भी देते थे की ज्यादा आईस-क्रीम खाना सेहत के लिए अच्छा नहीं.हम तो बच्चे थे, बड़ों की चिकनी चुपड़ी बातों में आसानी से आ जाते थे.उस समय ये सोचते थे की जब बड़े होंगे तो आईस-क्रीम खाने के लिए कम से कम इतना रिक्वेस्ट तो किसी से नहीं करना पड़ेगा..और अब देखिये की जब कभी भी, कहीं भी आईस-क्रीम खा सकते हैं, तो वो बचपन याद आता है जब आईसक्रीम खाने के लिए कितनी मिन्नतें और नाटक करनी पड़ती थी.

 

 

नहीं मंजिलों में है दिलकशी, मुझे फिर सफर की तलाश है...

नहीं मंजिलों में है दिलकशी...न, बिलकुल नहीं ! मोबाइल के उस पार  दूर गाँव से माँ की हिचकियों में लिपटे आँसू भी कहाँ इस दिलकशी को कोई मोड दे पाते हैं| क्यों जा रहे हो फिर से? अभी तो आए हो?? सबको ढाई-तीन साल के बाद वापस जाना होता है, तुम्हें ही क्यों ये चार महीने बाद ही??? रोज उठते इन सवालों का जवाब दे पाना कश्मीर के उन सीधे-खड़े पहाड़ों पे दिन-दिन रात-रात ठिठुरते हुये गुजारने से कहीं ज्यादा मुश्किल जान पड़ता है|
...  छुटकी तनया के जैसा ही जो सबको समझाना आसान होता कि पीटर तो अभी अपना दूर वाला ऑफिस जा रहा है| बस जल्दी आपस आ जायेगा| देर से आने वालों के लिये,  तनया चार साल की हुई है और पीटर पार्कर उसका पापा है और वो अपने पापा की मे डे पार्कर :-)
....बाहर पोर्टिको में झाँकती बालकोनी के ऊपर अपनी मम्मी की गोद में बैठी आज समय से पहले जग कर वो अहले-सुबह अपने पीटर को बाय करती है और दिन ढ़ले फोन पर उसकी मम्मी सूचना देती है कि शाम को पार्क में झूला झूलने जाने से पहले वो दरियाफ़्त कर रही थी कि पीटर आज ऑफिस से अभी तक क्यों नहीं आया| समय कैसे बदल जाता हैं ना...मोबाइल के उस पार वाली माँ की हिचकियाँ पीटर को उतना तंग नहीं करतीं, जितना मे डे का ये मासूम सा सवाल और हर बार की तरह पीटर इस बार भी सचमुच का स्पाइडर मैन बन जाना चाहता है कि अपनी ऊंगालियों से निकलते स्पाइडर-वेब पे झूलता वो त्वरित गति से कभी मम्मी की हिचकियों को दिलासा दे सके तो कभी वक़्त पे ऑफिस से वापस आना दिखा सके मे डे को ...कि उसे प्रकाश सहित व्याख्या न देना पड़े खुल कर उसके अपने ही उसूल का:- विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी

 

 

1988 की एक कविता

1988 मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण वर्ष है , इस साल मेरा विवाह हुआ था और मुझे घर की पकी - पकाई रोटी मिलने लगी थी । कुछ प्रेम कवितायें भी लिखीं इस साल और शिल्प और कथ्य में भी कुछ परिवर्तन हुआ । प्रस्तुत है उस समय की यह एक कविता ।

रोटी की गन्ध

ओसारे में बैठकर

मैं जब लिख रहा होता हूँ कोई कविता

झाँककर देखता हूँ

यादों की खपच्चियों से बना

अनुभूतियों का पिटारा

संवेदनाएँ बचाना चाहती हैं

मस्तिष्क को अनचाही फांस से

लेकिन उंगलियों से टटोलकर

बिम्ब ढूँढना तो सम्भव नहीं

 

 

गई नहीं महंगाई

महंगाई के आगे घुटने टेक चुकी है यू.पी.ए सरकार मुद्रास्फीति के आंकड़ों में अपनी विफलता छुपाने की कोशिश कर रही है

महंगाई और मुद्रास्फीति के आंकड़ों की लीला अद्दभुत है. इस लीला के कारण यह संभव है कि मुद्रास्फीति की दर कम हो लेकिन आप महंगाई की मार से त्रस्त हों. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार दावे कर रही है कि महंगाई काबू में आ गई है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर धीरे-धीरे नीचे आ रही है.
सरकार के मुताबिक, थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च महीने में सात फीसदी से भी नीचे ६.४३ प्रतिशत पर पहुँच गई है. लेकिन इन दावों के विपरीत आम आदमी को आसमान छूती महंगाई से कोई राहत नहीं मिली है. उल्टे पिछले कुछ सप्ताहों में खाद्य वस्तुओं खासकर फलों-सब्जियों से लेकर दूध तक की कीमत में जबरदस्त उछाल के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया है.

 

 

तेरी आहट की धूप आती नहीं है
मेरे घर में न होगी रौशनी क्या
नहीं आओगे इस जानिब कभी क्या?
उदासी एक तो तुहफ़ा है उसका
मसल देगा समय ये पंखुड़ी क्या?
चहकती बोलती आँखों में चुप्पी
इन्हें चुभने लगी मेरी कमी क्या ?

 

 

वर्तमान आरक्षण व्यवस्था: एक विखंडनकारी अवधारणा

भारतीय संविधान के निर्माण के पश्चात अगले दस वर्षो तक आरक्षण की व्यवस्था इसलिये की गयी थी कि जो हजारो वर्षो दबे कुचले थे उन्हे उनकी जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व दिया जा सके. आरक्षण की इस मूल भावना से कोई भी इंकार नही करता. किंतु यदि ध्यान से देखा जाय तो सबसे बडी समस्या जो उभर कर सामने आती है वह इन दबे कुचले और शोषित वर्गो को पहचानने मे आती है.हजारो वर्षो से शोषित और दमित कौन है?जब हमारे संविधान निर्माता इस प्रश्न से दो चार हुये तो उन्होने इसके उत्तर मे भारतीय जाति व्यवस्था को ही आधार मान लिया और इस प्रकार आरक्षण को जाति व्यव्स्था के सहारे लागू करने का प्रयास किया गया. इस क्रम मे हमारे नीति निर्माता यह भूल गये कि इस तरह जाति व्यवस्था और भी मजबूत होकर सामने आयेगी. और ऐसा हुआ भी. जातिवाद का जो घृणित रूप आज हम 21 वी शताब्दी मे देख रहे है शायद गत 30 से 40 वर्ष पूर्व न था. आरक्षण व्यवस्था सकारात्मक भेदभाव की प्रक्रिया को गति देने के लिये एवम सामाजिक पिछडापन दूर करने के लिये लागू की गयी थी किंतु मूल प्रश्न कि दमित कौन है की अनदेखी बार बार हमारे नीतिकार जानबूझकर लोभ लालच के चलते करते रहे. अगर जाति को पिछडेपन का आधार माना जाय तो स्वयम शाहूजी जिनको आरक्षण की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है, सत्ता मे क्यो आते? ये सभी महापुरुष अपने पराक्रम और शौर्यता की वजह से उच्चतम शिखर तक पहुचे. ऐसे ही सैकडो उदाहरणो से इतिहास भरा पडा है. चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर शिवाजी तक हमे सत्ता मे तथाकथित पिछडो की भागीदारी देखने को मिलती है.

 

 

कातिल न समझो

जिनके लिए हमने छोड़ी थी दुनिया
दुनिया से ही हमको  आज मिटा बैठे

लुट तो चुके थे हम, कुछ भी न बचा था

पर ढूंढ़ कर बचा वो फिर भी चुरा बैठे  

उनका तो वादा था, जन्मो जन्म तक का

अगला न देखा पर, वो आज का मिटा बैठे

हम मिट गये तो क्या, हाथों से उन्ही के

आखिरी सांस जो निकली गोदी में जा बैठे

 

"ये हैं बॉम्बे मेरी जान "

चलिए आज आपको घुमाती हूँ मुंबई के नजदीक 'विरार ' लोकल स्टेशन पर बना नया वंडरफुल पार्क  :---

यजु पार्क

यजु पार्क में मैं

 

 

Wednesday 25 April 2012

सैक्स-सीडी और जनता-इश्क

सेक्स (करना) सभी एकलिंगी जीवधारियों का स्वाभाविक कृत्य है और बच्चों की पैदाइश सेक्स का स्वाभाविक परिणाम। जब भी स्वाभाविक परिणाम को रोकने की कोशिश की जाती है तो अस्वाभाविक परिणाम सामने आने लगते हैं। बच्चों की पैदाइश रोकी जाती है तो सीडी पैदा हो जाती हैं। बच्चों को पैदा होते ही माँ की गोद मिलती है। लेकिन जब सीडी पैदा होती है तो उसे सीधे किसी अखबार या वेब पोर्टल का दफ्तर मिलता है। अदालत की शरण जा कर उसे रुकवाओ तो वह यू-ट्यूब पर नजर आने लगती है, वहाँ रोको तो फेसबुक पर और वहाँ भी रोको तो उस की टोरेंट फाइल बन जाती है। आराम से डाउनलोड हो कर सीधे कंप्यूटरों में उतर जाती है। रिसर्च का नतीजा ये निकला कि सेक्स के परिणाम को रोकने का कोई तरीका नहीं, वह अवश्यंभावी है।

 

 

सफ़र ...

हे 'खुदा', जो आलम, तूने

कदम कदम पे

दिखाया है मुझको !

किसी और को, मत दिखाना

 

तुम न होगी तो....

आज सुबह अचानक किताबों के पन्ने पलटते हुए  मेरी निगाह अपने एक ऐसे मित्र की रचनाओं पर पडी, जिसे पढ़ते हुए मैं खो गया पुरानी स्मृतियों में । मेरे ये बुजुर्ग मित्र नवगीत के स्थापित हस्ताक्षर हैं । नाम है हृदयेश्वर । सीतामढ़ी में साथ-साथ रहते हुए 1991 से 1994 तक मुझे इनके सान्निध्य का सुख प्राप्त हुआ। फिर एक दिन अचानक इनका स्थानान्तरण हाजीपुर हो गया और उसके कुछ महीनों बाद मैं भी वाराणसी आ गया । फिर उनसे मुलाक़ात नहीं हुयी । ‘आँगन के ईच-बीच’, ‘बस्ते में भूगोल’ व ‘धाह देती धूप’ (गीत संग्रह) तथा ‘मुंडेर पर सूरज’ (काव्य संग्रह) इनकी प्रकाशित कृतियाँ है । बिहार सरकार के प्रतिष्ठित राजभाषा सम्मान से ये सम्मानित भी हो चुके हैं । आज मैं उनका एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मुझे बहुत पसंद है : रवीन्द्र प्रभात

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तुम न होगी तो....
मैं सुबह के चाँद का एहसास लेकर क्या करूंगा
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा


हो तरल कुछ तो
जिसे मन-प्राण-कंठों में उतारें
धुप की संवेदना
जल की मछलियों को दुलारे

 

 

आज के लिए इतना ही ….





.रुकावट के लिए खेद है

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

'विकी डोनर' से घर छोड़कर जाता छोटू तक - ब्लॉग बुलेटिन

रश्‍िम रविजा के फेसबुक स्‍टे्टस अपडेट से
‎'विकी डोनर' फिल्म में कोई बड़े या जाने-पहचाने स्टार नहीं हैं...महंगे सेट्स और फॉरेन लोकेशन भी नहीं है....पर सिर्फ एक नया विषय...अच्छी कहानी..बढ़िया डायरेक्शन...कलाकारों का सहज अभिनय और कॉमेडी का टच फिल्म को देखने लायक बना देती है. सेकेण्ड हाफ में फिल्म थोड़ी इमोशनल और प्रेडिक्टेबल हो जाती है....फिर भी देखकर निराशा नहीं होगी.

रविश कुमार लिखते हैं
एक ड्राईवर की आत्मकथा-लप्रेक

हिन्दीकुंज लिखते हैं
जीवन : एक अनुभूति / महेंद्र भटनागर
बिखरता जा रहा सब कुछ
सिमटता कुछ नहीं !

खुशदीप सहगल लिखते हैं
बकौल जस्टिस काटजू 90 % भारतीय 'मक्खन'...खुशदीप​
स्लॉग ओवर
जस्टिस काटजू की राय वाली इस रिपोर्ट के बारे में जब से मक्खन ने सुना है, उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे. हंस रहा है कि वो खुद​ ​को इस देश में अपने जैसा एक ही नमूना समझता था. लेकिन यहां तो..

कुलवंत हैप्‍पी लिखते हैं

महिलाओं को चाहिए तराशे हुए वक्ष, मर्दों को चुस्‍त की चाहत

विद्या बालन की 'द डर्टी पिक्‍चर' 

रुपहले पर्दे का असली द एंग्री यंग मैन

दिलीप लिखते हैं
दिल की कलम से...
तो क्या बुरा होगा...
मैं रोऊँ तो खुदा हँसता रहे, तो क्या बुरा होगा...
ये कारोबार यूँ चलता रहे, तो क्या बुरा होगा...

मनीष जी लिखते हैं
मूली रे मूली तू हुई क्‍यूं इतनी रंगीली

पूजा उपध्‍याय लिखती हैं
घर फूंके आपना...

उन्‍मुक्‍त लिखते हैं
ब्रह्मा की आंख - शापित?

भगत भोपाल लिखते हैं 
बड़े काम का गूगल डॉक्‍स

डॉ॰ मोनिका शर्मा लिखती हैं
घर छोड़कर जाता छोटू

ओके जी अब चलते है ... लौट के मिलते है !!

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

झरने की कलकल से झांकता है समय



कोशिशों की नाव है , रोज बनाती हूँ .... और नन्हीं नन्हीं ख्वाहिशों की कंदील जला उसकी पाल से जोड़ देती हूँ और कहती हूँ - " वह जो मंजिल है , वह तुम्हें मिले " . आज ख्वाहिशों की कंदील को मैंने जोड़ा है -

बस्तर की अभिव्यक्ति -जैसे कोई झरना.... से . इस झरने की कलकल से झांकता है समय और कौशलेन्द्र जी की कलम को एक आयाम देता है . 2010 से ब्लॉग का नींव डाला और

ठोस इंटों से साल दर साल इसकी पुख्ता दीवारें बनायीं . पहली ईंट पर इन्होंने लिखा वसुधैव कुटुम्बकम्

गर्म तपते लाल ईंट सुलगते गए और कवि ने कहा - The questions......not asked.... दिमाग की पेशियाँ झंकृत हो उठीं

"आज तक कभी नहीं पूछा गया
किसी प्रश्न-पत्र में
कि क्या है भीख मांगते
या होटल में थाली धोते बच्चों का भविष्य.
कैसी होती है
आत्मदाह से पूर्व के क्षणों में
अंतर्दाह की पीड़ा.
क्यों खाती है चाबुक
तांगे की मरियल सी घोड़ी.
किसने देखे हैं
काँधे पर ठहरी पीड़ा धोते
बूढ़े बैलों की आँखों में ठहरे आंसू.
क्यों निर्धन हैं मूल्य
और क्यों नहीं बना कोई न्यायालय
जहां कह सकता बेचारा न्याय
अपने मन की पीड़ा.
नहीं पूछे गए
और भी न जाने कितने प्रश्न
जो अब पहाड़ हो गये हैं.
कोई पर्वतारोही नहीं आता इस ओर
क्यों आये ?
शौक के लिए हिमालय जो है."
सत्य की जिजीविषा है या सत्य को पाकर सत्य को प्रस्तुत करने की अदम्य लालसा या सत्य के लहू से सने शब्द !!! पर जो है , वह नसों को उद्द्वेलित करता है , लक्ष्य की
दिशा दिखाता है , कुछ यूँ -

सही-सलामत

अस्वीकृत किन्तु ग्राह्य

2011 के सोपान पर जलते चाँद की व्यथा को कवि ने जीया है - सोचा ही नहीं

अर्थ को माध्यम बना बड़ी संजीदगी से कवि ने कहा है -

" सूरज तो
अभी भी उगता है रोज
प्रतीक ही खँडहर होते जा रहे हैं.
एक-एक कर
धराशायी होते जा रहे हैं अर्थ .
खंडित मूर्तियों के साथ तुकबंदी
और अस्पष्ट सी, शिलालेखों में उकेरी
किसी अबूझ लिपि को पढ़ना
बुद्धिविलास का हिस्सा बनकर रह गया है .
भग्न मुंडेरों पर बैठ
काँव-काँव करने से क्या लाभ ?
आइये , इसी बरसात में बोते हैं कुछ बीज
नयी फसल में जब फूल खिलेंगे
तो ख़ुश्बू के झोंकों से
सजीव हो उठेंगीं मूर्तियाँ
और सार्थक हो उठेंगें
शून्य होते जा रहे अर्थ. "
यात्रा निरंतरता में है , बिना रुके बिना थके ओजस्वी स्वर लिए 2012 का सूर्योदय और
कवि -
" 1- तंत्र की बाध्यता

कपड़े
कितने भी ख़ूबसूरत क्यों न हों
चौबीसों घंटे नहीं पहन सकते आप.
उतारने ही पड़ते हैं
कभी न कभी...
अपनी-अपनी सुविधानुसार
और तब
कोई नहीं रह जाता
उतना सभ्य
जितना कि वह दिखता था
अब से पहले.


२- प्रेम ....

मैं इनवर्टेड कॉमा नहीं
जो लिस्बन से चलकर
खजुराहो में आकर दफ़न हो जाऊँ.
आग लगाने के लिए
अर्ध विराम क्या कम है ?
गौर से देखो ....
मैं डैश-डैश हूँ ......
यहाँ
कभी विराम नहीं होता.


3- साल

क्या ?
नया साल फिर आ गया ?
अपना वो पुराना वाला किधर है ...
मुझे तो वही देदो
बड़ी जतन से
उसमें कुछ पैबंद लगाए थे मैंने
नए साल में वही दोहरकम कौन करे!


४- नेता के आंसू

ए समंदर !
तुझसे कितनी बार कहा है .....
दो बूँद
उसे भी क्यों नहीं दे देता
बेचारे को
ग्लिसरीन से काम चलाना पड़ता है.


५- ये तो होना ही था.....

यूनीवर्सिटी लवली
स्टूडेंट लवली
बातें लवली
कपड़े लवली
स्टाइल भी लवली.
सुना है,
जालंधर में
लवली ने कोर्ट मैरिज कर ली है.


६- डिग्री

छात्र को यूनिवर्सिटी ने दी
यूनिवर्सिटी को यू.जी.सी. ने दी
यू.जी.सी. को पैसे ने दी
पैसे सेठ जी की जेब में थे
जो अब खाली है
जेब फिर से भर गयी है.
इस पूरे धंधे में
फैकल्टी कहीं नज़र नहीं आ रही.


७- सवाल-जवाब

जंगल में गाँव
गाँव में कॉलेज
कॉलेज में देश का 'भविष्य'
यह 'भविष्य' अपने वर्त्तमान से चिंतित है
रोज भीख माँगता है...
"भगवान के नाम पर एक अदद शिक्षक का सवाल है माई-बाप".
.........................
हुंह........
ऐसे थोड़े ही चलता है
हर चुनाव से पहले
एक ही माँग पूरी करने का विधान है.


८- उपनाम

मेरे पिता जी उपाध्याय लिखते हैं
मैं मिश्र लिखता हूँ
मेरी पत्नी चतुर्वेदी लिखती है
मेरी बेटी चटर्जी लिखती है
मेरा बेटा बनर्जी लिखता है
मेरा कुत्ता शर्मा लिखता है
मेरी बिल्ली तिवारी लिखती है
मेरा तोता पाण्डेय लिखता है
मेरे दादा जी क्या लिखते थे
यह नहीं बताऊँगा
बस, इतना जान लो
कि हम लोग
अनुसूचित जाति वाली सुविधाओं के सुपात्र है
खबरदार ! जो कभी मुझे भंगी कहा.


९- जाति

स्कूल में
जाति लिखना अनिवार्य है तो क्या हुआ.
इस अभिशाप से मुक्ति का सरलतम उपाय तो है
ऐसा करते हैं ....
ब्राह्मणों और राजपूतों के उपनाम लूट लो
यह अभिशाप दूर हो जाएगा.
उपनाम का डाका वरदान बन जाएगा.
शादी के बाद लड़की को बता देंगे
कि दरअसल
यह तो एक आदर्श
इंटरकास्ट मैरिज थी.
इमारत बुलंद बनती जा रही है ... अभिव्यक्तियाँ मुकाम पाने और देने में सफल हो रही हैं .... झरने का सौन्दर्य बहुत कुछ कहता है , कहता रहेगा...

लेखागार